रविवार, 31 दिसंबर 2017

मेहंदी

मेहंदी का दूसरा नाम हिना है. हिना नाम से ये हर्बल हेयर कलर में प्रयोग की जाती है. ये एक झाड़ीनुमा पौधा है. बीज और कटिंग दोनों से नये पौधे लगाए जाते हैं. इसकी पत्तियों को ही श्रंगार के लिए हाथों, पैरों और बालों में लगाने में इस्तेमाल किया जाता है.

मेहंदी की पत्तियां पीसने पर पीलापन लिए लाल रंग देती हैं. यही मेहंदी का विशेष रंग होता है. मेहंदी एक अच्छा ब्लड प्यूरीफायर है. यह खून को साफ़ करती है. स्किन के दाग धब्बे मिटाती है. मेहंदी की ताज़ी पत्तियां 10 ग्राम  ऐसे ही बिना पीसे नीम की  10 ग्राम पत्तियों के साथ  एक ग्लास पानी में  रात को भिगो दी जाती हैं और सुबह वह पानी खली पेट पीने से स्किन के दाग धब्बे, खुजली, जलन दूर हो जाती है. मेहंदी को इस प्रकार इस्तेमाल करने का मौसम अप्रैल से जून के मध्य है. क्योंकि मेहंदी का स्वाभाव ठंडा है. बरसात और जाड़े में मौसम में मेहंदी का अंदरूनी इस्तेमाल नुक्सान करता है. वे लोग जो नज़ला, खांसी के मरीज़ हैं उन्हें मेहंदी इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.
मेहंदी सौंदर्य प्रसाधन के रूप में बालों में लगाने से न केवल उन्हें बढ़िया रंग देती है बल्कि बालों की कंडीशनिंग भी करती है. मेहंदी बालों पर एक परत चढ़ा देती है जिससे बाल देखने में घने लगने लगते हैं. यह सर को भी ठंडा रखती है. गर्मी से जिनके सर में दर्द रहता हो, हाई ब्लड प्रेशर हो, तो मेहंदी का सर और हाथ पैर में लगाने से लाभ होता है. मेहंदी में मार्च से लेकर मई जून में फूल आते है. इसका फूल सफ़ेद होता है और गुच्छो में खिलता है. फूल भी त्वचा की बीमारियों में लाभकारी है. इसके फूल को छाया में सुखाकर मुंडी बूटी के फूलों के साथ सामान मात्रा में पानी में भिगोकर पीने से त्वचा कांतिमय हो जाती है और खून के खराबी ठीक हो जाती है. लेकिन मेहंदी का स्वाभाव ठंडा है. जो लोग ठन्डे स्वाभाव के हैं, नज़ला, ज़ुकाम, खांसी के मरीज़ हैं, जिनकी सांस फूलती है और जो दमे के बीमारी का शिकार हैं उनके लिए मेहंदी का प्रयोग खतरनाक हो सकता है.

शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

गुले सुपारी

 गुले सुपारी या या सुपारी का का फूल किसी फूल का नाम नहीं है. ये एक पेड़ के गोंद का नाम है जिसे सेमर या सिल्क कॉटन ट्री कहते हैं. कई बार पुराने यूनानी नुस्खे बनाने वाले दवाएं ढूंढते फिरते हैं. कभी कभी दवाओं के बेचने वालों को भी दवाओं के विभिन्न नाम नहीं मालूम होते इसलिए दवाएं नहीं मिलती या फिर एक के स्थान पर दूसरी दवा मिलती है. नतीजा ये होता है की नुस्खा सही नहीं बनता और दोष नुस्खे के सर मढ़ा जाता है.

सिल्क कॉटन ट्री का वर्णन इसी ब्लॉग में पहले हो चूका है. ये इस पेड़ का गोंद है जो मोचरस के नाम से भी जाना जाता है. मोचरस एक गोंद है और जंगल में रहने वालों से सस्ता मिल जाता है ये गोंद के रूप में चिपचिपा और एडहेसिव होने के कारण बुक बाइंडिंग और चीजों को चिपकने के भी काम आता है. पेड़ से निकलने पर ताज़ा गोंद भूरे रंग का होता है. सूखने पर ये काला पड़ जाता है. बाजार में इस काले काले गोंद के बड़े और छोटे टुकड़े मिलते हैं.
इस गोंद में दूसरे पेड़ों  के गोंद की मिलावट की जाती  है. अक्सर इसमें सहजन का गोंद मिला होता है. कुछ लोग सहजन के गोंद  को ही मोचरस  बताकर बेच रहे हैं.
आइस क्रीम को गाढ़ा  बनाने के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है. कभी कभी गोंद ट्रैगाकंथ या गोंद कतीरा की जगह भी प्रयोग होता है.

मोचरस पुष्टकारी और शक्ति वर्धक के रूप में अन्य दवाओं के साथ मिलकर प्रयोग किया जाता है. ये ल्यूकोरिया और स्पर्मेटोरया की लिए लाभकारी है.
मोचरस को घी में भूनकर खाने से जोड़ों के दर्द में लाभ होता है. 

हरड़

हरड़ एक जानी मानी दवा है. ये तिरफला का अव्यव है. हरीतकी यानि हरड़, विभीतकी यानि बहेड़ा और  अमालकी यानि अमला ये मिलकर तिरफला बनाते हैं.
अरबी हकीमो ने हलीलज, बलीलज और आमलज का नाम दिया तो बाद में यही नाम हलीला, बालीला और आमला हो गया. बाजार में हरड़ की तीन वैराइटी मिलती हैं. काली हरड़ वो हरड़ है जो छोटी और काले रंग की
होती है. ये हरड़ के अविकसित और छोटे फल हैं जो खुद हरड़ के पेड़ों से गिर जाते हैं या तोड़कर सूखा लिए जाते हैं. हरड़ की दूसरी और बहुत आम वैराइटी छोटी हरड़ है. यही आम तौर से दवा में प्रयोग होती  है. इसी का मुरब्बा बनाया जाता है और तिरफले के अव्यव में प्रयोग होती है.
हरड़ का तीसरा प्रकार हलीला काबुली या बड़ी हरड़ कहलाता है. ये हरड़ के फल का पूर्ण विकसित रूप है. ये हरड़ उस समय पेड़ों से तोड़ी जाती है जब हरड़ पकने लगती है और पीली पड़  जाती है.
सूखने पर हरड़ के फलों पर झुर्रियां पड़ जाती हैं. ऐसे सूखे फल तीनो रूपों में बाजार में मिलते हैं. हरड़ का प्रयोग करने से पहले इसकी गुठली निकल दी जाती है और पीसकर पाउडर बना लिया जाता है.
हरड़ का स्वभाव कब्ज़ को दूर करने वाला है. तिरफला के रूप में कब्ज़ दूर करने के लिए ही इसका प्रयोग किया जाता है. टैनिक एसिड और गैलिक एसिड होने के कारण हरड़ का प्रयोग दांतों को मज़बूत करता है. हलीला स्याह या काली हरड़ को मुंह में रखकर चूसने से दांतो और मसूढ़ों के रोगों में लाभ होता है. मुंह की दुर्गन्ध जाती रहती है और मसूढ़ों से खून आना बंद हो जाता है. हरड़ का नियमित इस्तेमाल आंतो के बहुत से रोगों और कैंसर से बचाता है.
तिरफला के रूप में हरड़ का इस्तेमाल आयु को बढ़ता है. जवानी को कायम रखता है. और सबसे बढ़कर यह कि रोगों से लड़ने की शक्ति प्रदान करता है.
कब्ज़ के लिए रात को सोते समय एक या दो हरड़ का मुरब्बा खाना चाहिए. हरड़ का मुरब्बा बाजार में आसानी से मिल जाता है. घर पर भी सुखी हरड़ों को पानी में भिगोकर मुलायम होने पर शकर का पाग बनाकर मुरब्बा बनाया जाता है.
अजीब बात ये है की  हरड़ कब्ज़ दूर करने वाली दवा है लेकिन दस्त बंद करने में भी इसका  का प्रयोग किया जा सकता है. काली हरड़ को घी में भूनकर पाउडर बना लें और ठन्डे पानी के साथ इसका प्रयोग करे तो दस्त बंद हो जाते हैं.  

बुधवार, 27 दिसंबर 2017

पोई की बेल

पोई की बेल बरसात में उगने वाली बेल है. इसका तना लाल रंग का होता है. पत्तियां गहरे हरे रंग की किनारों पर लाली लिए होते हैं. इसके पत्ते पालक के तरह मोटे लेकिन आकर में पालक के पत्तों से कहीं छोटे दिल के आकर के होते हैं. इसे मालाबार रेड स्पिनॉच यानि मालाबार का लाल पालक भी कहते हैं. आम भाषा में इसे पोई के बेल  के नाम से जानते हैं.

ये एक जंगली पौधा है. इसे गरीबों का साग भी कहते हैं. लोग इसके पत्तों की सब्ज़ी बनाकर कहते हैं. ये विटामिन ए, विटामिन बी और विटामिन सी का अच्छा स्रोत है. इसमें लोहा भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है. सब्ज़ी के रूप में इसका प्रयोग बहुत सी बीमारियों से बचाता  है. ये कोलेस्ट्रॉल लेवल को घटाता है और रक्त में थक्का नहीं बनने देता.
पोई डायूरेटिक यानि पेशाब लाने वाली है. इसमें डाइटरी फाइबर के कारण कब्ज़ को दूर करती है. गरीबों के लिए ये भरपूर भोजन है जो विटामिन की कमी दूर करके उन्हें स्वस्थ रखती है. इसकी बेले बरसात में खुद- ब - खुद  उग आती हैं. इसलिए ये फ्री का भोजन है लेकिन बहुत लाभकारी है.
अजीब बात ये है के ये मामूली बेल पोई न केवल हार्ट की बीमारियों से बचाती है, ये आंत के कैंसर विशेषकर कोलन के कैंसर से भी बचाती है. पोई का प्रयोग स्किन और म्यूकस मेम्ब्रेन को स्वस्थ रखता है. 

बहेड़ा

बहेड़ा एक बड़े वृक्ष का फल है. ये तिरफला का एक फल है. हरड़, बहेड़ा और आमला मिलकर तिरफला कहलाते हैं. बहेड़े के फल का छिलका या बाहरी आवरण दवाओं में प्रयोग किया जाता है. इसकी गुठली तिरफला का भाग नहीं है. तिरफला पाउडर बनाने में आमला सूखा हुआ, बहेड़ा गुठली निकला हुआ और हरड़ गुठली नीलकी हुई बराबर मात्रा में पीसकर पाउडर बनाया जाता है. मार्केट में जो तिरफला पाउडर मिलते हैं उनमें गुठली भी मिली होती है.
बहेड़ा दस्तों को बंद करता है. इसमें शामिल टैनिक एसिड और गैलिक एसिड आँतों में सुकड़न पैदा करते हैं. इससे ये आँतों के मज़बूती देता है. बहेड़े के जोशांदे से गारगल करना दांतो और मसूढ़ों से खून आने में फ़ायदा करता है.
बहेड़े का प्रयोग ब्लड प्रेशर को भी घटाता है. ये बलगम निकलने में भी लाभकारी हैं. बहेड़े का प्रयोग चूर्णों में किया जाता है जो पेट के बीमारियों में लाभ करते हैं. बहेड़ा, काली मिर्च, और कला नमक का चूर्ण गैस बनने को रोकता है.
बहेड़े के पाउडर को मेहँदी के साथ मिलकर लगाने से बाल कालो रहते और मज़बूत होते हैं.
बहेड़े में एंटी एजिंग यानि आयु के प्रभाव को कम  करने का गुण है. इसका प्रयोग चेहरे पर झुर्रियां नहीं पड़ने देता और बहुत सी  बीमारियों से बचाता है. बहेड़े की गुठली के अंदर इसका बीज होता है. ये बीज बालों का अच्छा टॉनिक है. बहेड़े के बीजों को पीसकर सरसों या तिलों के तेल में धीमी आंच पर पकाया जाता है. उसके बाद तेल को फ़िल्टर करके बालों में लगाने से बालो का झड़ना और असमय सफ़ेद होना रुक जाता है. ये नए बाल उगने में भी मदद करता है.

अर्जुन

अर्जुन एक बड़ा वृक्ष है. इसकी छाल चिकनी सफेदी लिए हुए होते है. इसकी पत्तियां लम्बी लम्बी अमरुद के पत्त्तों से मिलती जुलती होती हैं. यह अपने फलों के आकर से आसानी से पहचाना जा सकता है. इसके फल गुच्छों में लगते हैं. ये कठोर और कई पहलू वाले मध्यम आकर की हरड़ के बराबर होते हैं. इन फलों के पहलू कमरख की तरह होते हैं.
अर्जुन को दिल की दवा मन जाता हैं. इसकी छाल का काढ़ा बनाकर पीने से दिल के रोगों में लाभ होता हैं. अर्जुन वास्तव में दिल का टॉनिक है. ये दिल की मांसपेशियों को शक्ति देता है. उच्च रक्तचाप को घटाता है और दिल की धमनियों को फैला देता है जिससे उनमें रक्त का प्रवाह आसानी से हो सकता है. इसी गुण के कारण अर्जुन दिल के दर्द में उपयोगी है. इसके छाल के पाउडर का प्रयोग पानी के साथ 3  से 5 ग्राम की मात्रा में किया जाता है. जोशांदे के रूप में भी इसकी छाल 10 से 20 ग्राम के मात्रा में छोटे छोटे टुकड़े करके 2 कप पानी के साथ धीमी आंच पर उबाली जाती है. एक कप पानी रह जाने पर शकर मिलाकर या फिर दूध के साथ, या वैसे ही जोशांदे के रूप में सुबह शाम पीने से दिल के रोगो में लाभ होता है.
अर्जुन की छाल ही अधिकतर दवा के रूप में काम आती है. इसकी छाल का पाउडर दूध के साथ सेवन करने से टूटी हड्डी जल्दी जुड़ जाती है. चोट में इसकी छाल का पाउडर हल्दी और घी के साथ पेस्ट बनाकर हल्का गर्म चोट के स्थान पर लगाने से दर्द और सूजन में लाभ होता है.
अर्जुन का गुण डायूरेटिक यानि पेशाबआवर है. ये कब्ज़ को भी दूर करता है. गर्भवती महिलाओं को इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए.

छाल के स्थान पर इसके फलों के जोशांदे का प्रयोग भी किया जा सकता है. अजीब बात ये है की इसके हरे फल को हाई ब्लडप्रेशर में बाज़ू और कोहनी के जोड़ के समीप बाज़ू में  अंदर की  साइड में धागे के साथ बांधने से लाभ होता है. फल सूख जाने पर दूसरा बदल देना चाहिए. 

शनिवार, 16 दिसंबर 2017

करंजवा

करंजवा, करंज बीज, कंजा, एक पौधा है जिसमें बहुत कांटे होते हैं. यह एक झाड़ीनुमा पौधा है. इसकी शाखाएं लचीली होती हैं. कांटों की वजह से इसे खेतों और बागों के किनारे बाढ़ के रूप में लगाया जाता है. करंजवा का फल भी काँटों भरा, चपटे आकर का थैली की तरह होता है. इस थैली के अंदर ग्रे और ग्रीन कलर के बीज होते हैं. जो देखने में छोटे पत्थरों की तरह लगते हैं. यही करंज बीज, करंजवा, या कंजा के नाम से दवाओं में प्रयोग किये जाते हैं.
करंज बीज का छिलका सख्त होता है. इसे छीलने पर अंदर से गरी या मगज़ निकलता है. ये गिरी पीसकर दवाई के रूप में प्रयोग की जाती है.

करंजवा का स्वाद बहुत कड़वा होता है. इसके बीज को पाउडर या गोली बनाकर इस्तेमाल करते हैं. करंजवा बुखारों के बड़ी दवा है. जो बुखार पुराने हों और किसी दवा से न जाते हों करंजवा के प्रयोग से ठीक हो जाते हैं.
करंजवा बाहरी और अंदरूनी सूजन में भी काम की दवा है. करंजवा के साइड इफ़ेक्ट करजनवा के साथ काली मिर्च के प्रयोग से नहीं होते और ये दवा नुकसान नहीं करती.
करंजवा का प्रयोग हेमरॉइड में भी किया जाता है.
ये एक बहुत तेज़ असरकारी दवा है और इसमें कुछ ऐसे तत्व भी हैं जो शरीर को नुकसान कर सकते हैं. इसका इस्तेमाल हकीम या वैद्य के अनुसार ही करना चाहिए.
अजीब बात है कि करंजवा का बीज भुना हुआ खाने से खांसी और दमे के दौरे को रोक देता है.

सोमवार, 11 दिसंबर 2017

इमली

इमली भारत का जाना माना  वृक्ष है. इसकी पत्तियां छोटी पत्तियों के समूह से बानी होती हैं. इसकी पत्तियां कम्बाइंड लीफ का उदहारण हैं. इमली को अरबी भाषा में तमर - हिन्दी यानि भारत की खजूर कहा जाता है. भारत इमली का बहुत बड़ा एक्सपोर्टर है. भारत के दक्षिणी राज्यों में इमली का प्रयोग खानों में बहुत किया जाता है. भारत के दक्षिण भाग से से एक्सपोर्ट होकर इमली अरब देशों में पहुंची. और अरबी से इसे तमर -हिन्दी, तमर -ए -हिन्द, तमर -इंडस, नाम मिला जो अंग्रेजी में बिगड़कर टैमराइन्ड हो गया. अब ये इसी नाम से दुनिया में जानी जाती है.
इमली अपने खट्टे स्वाद के कारण मशहूर है. इमली का फल पककर खटमिट्ठा हो जाता है. इसका गूदा मुलायम पड़  जाता है. इमली के बीज मजबूत होते हैं और आसानी से नहीं टूटते.
इमली पित्त पर गहरा असर करती है. ये पित्त को पतला रखती है जिससे पित्त में पथरी नहीं बनने पाती. दक्षिण भारत में ये दाल और सब्ज़ी का ज़रूरी भाग है. सांभर का ये विशेष घटक है. इमली का प्रयोग खून को भी पतला रखता है. ये बढे हुए ब्लड प्रेशर को कम करती  है.

इमली को पानी में भिगोकर उसका शरबत बनाया जाता है. जिसे इमली का पन्ना, या इमली का पना भी कहते हैं. इमली का ये शरबत गर्मी में ठंडक देता है और लू लगने से बचाता है.
इमली को उत्तर भारत में खून को ख़राब करने वाली समझा जाता है. इसलिए उत्तर भारत में इमली प्रयोग तो होती है लेकिन इसका वह क्रेज़  नहीं है जितना दक्षिण भारत में है. इमली का अगर ठीक प्रकार से प्रयोग किया जाए तो ये खून की खराबी से  होने वाली स्किन डिसीजेस को भी ठीक करती है.
रानी बीजा बाई  के यहां एक हकीम इलाज करते थे. रानी की एक दासी के हाथ  में बड़े बड़े छाले निकला करते थे  हकीम साहब ने बीमारी की हिस्ट्री पूछी तो उसने बताया की जब से रानी के हाथी जिसका नाम "काला नाग" था, के गोबर से घर लीपा है हाथों में पानी भरे छाले निकलते हैं.
हकीम ने हाथी के महावत से पूछा  कि हाथी को  भिलवां तो नहीं खिलाया है.  महावत ने कहा -  हाथी को दो महीने से भिलवां  खिलाया है. यहाँ यह बताना ज़रूरी है की भिलवां एक हर्बल दवा है जिसका प्रयोग हाथी को मोटा करने के लिए किया जाता है.  भिलवां स्किन में सूजन और एलर्जी भी पैदा करता है. हकीम समझ गये की हाथों में एलर्जी  भिलवां की वजह से है. उन्होंने इमली की अंतर छाल (वह छाल जो इमली की बाहरी छाल के हटाने पर अंदर से निकलती है ) को दही में पेस्ट बनाकर लगाने को कहा. इसके प्रयोग से एलर्जी ठीक हो गयी.
इमली इस प्रकार से एंटी- एलर्जिक दवा का काम भी करती है.
इमली में बहुत से टॉक्सिन की शरीर से बहार निकलने की छमता है. खून की खराबी, दाने फोड़े और फुंसी में विशेषकर ऐसे लोग जिन्हे कब्ज़ रहता हो, 10 ग्राम इमली और 10 ग्राम गुलकंद रात की एक गिलास पानी में भिगो देना चाहिए और सुबह स्मैश करके छानकर पीने से ये विकार ठीक हो जाता है.
जमीकंद को इमली के पत्तों या इमली के साथ उबलने से उसकी चरपराहट निकल जाती है. ऐसा जमींकन्द सब्ज़ी के रूप में खाने से नुकसान नहीं करता. ऐसी सभी सब्ज़ियां या जड़ी बूटियां जिनमें चरपराहट होती है और जो जीभ पर या मुंह में इरिटेशन पैदा करते हैं, जैसे अरवी या घुइयां, जमींकन्द, उन्हें इमली के साथ पकने से उनका दुष्प्रभाव कम हो जाता है.
इमली का बाहरी छिलका पीसकर खाने से दस्त बंद हो जाते हैं.
छिलका उतरे हुए इमली के बीजों का पाउडर बनाकर ३-५ ग्राम के मात्रा में दूध के साथ सेवन करने से पुष्टकारी प्रभाव उत्पन्न करता  है.
इमली का स्वभाव ठंडा है. जो लोग गले के रोगों जैसे गले के खराश, टांसिल, ज़ुकाम, से पीड़ित हैं उन्हें इमली का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.
जो लोग एसिडिटी का शिकार हैं, पित्त विकार से ग्रसित हैं या जिनका लिवर कमज़ोर है वह भी इमली के प्रयोग से बचें.
अजीब बात यह है के आँतों की  खुश्की  से खांसी आती हो तो इमली के इस्तेमाल से ऐसी खांसी दूर  हो जाती है.

शनिवार, 9 दिसंबर 2017

अतिबला

अतिबला मैलो जाति का पौधा है.  इस प्रकार के चार पौधों का प्रयोग दवाओं में किया जाता है. ये जड़ी बूटियां हैं - (एक) बला, (दूसरी) अतिबला, (तीसरी ) महाबला और (चौथी) नागबला। इनका  प्रयोग आयुर्वेद और सिद्ध मेडिसिन में किया जाता है. देश की विभिन्न भागों में देहाती लोग जो जड़ी बूटियों के जानकारी रखते हैं इस प्रकार की दवाओं का इस्तेमाल करते है.  अतिबला  खर-पतवार के रूप में सड़कों और रेलवे लाइनों के किनारे उगी हुई मिल जाएगी. अतिबला को शक्ति और बल बढ़ाने वाली जड़ी बूटी के रूप माना  जाता है. अतिबला के अन्य नाम खरैंटी, कंघी, आदि हैं.
इसमें पीले फूल खिलते हैं. इसका पॉड या फल गोलाकार और दन्दानेदार होता है. इसी पॉड के मदद से अतिबला की पहचान आसानी से की जा सकती है.
अतिबला एक झाड़ीदार पौधा है. इसके फूल जून - जुलाई माह से खिलना शुरू हो जाते हैं. लेकिन मालवेसी  कुल के अन्य पौधों के तरह ये सर्दियों के दिनों में फूलों और फलों से लद जाता है. फरवरी - मार्च तक इसके पॉड सूख जाते हैं और उनके बीजों से नए पौधे निकलते हैं.
अतिबला डायूरेटिक यानि पेशाब-आवर है. ये मूत्र संसथान के रोगों में डायूरेटिक होने के कारण लाभ करती है. अतिबला का तेल जोड़ों के दर्दों के लिए प्रयोग किया जाता है. इसके लिए अतिबला की जड़  को कुचलकर टिल या सरसों के तेल में धीमी आंच पर पकाया जाता है. पानी जल जाने पर जब केवल तेल रह जाता है तो तेल को छान कर ठंडा करके रख लेते हैं. जोड़ो के दर्द में इस तेल को गर्म करके मालिश की जाती है. फालिज से प्रभावित शरीर के भाग पर इसकी मालिश से लाभ होता है.
अतिबला के जड़ को सुखाकर पाउडर के रूप में सेवन करने से बुखार में लाभ होता है. बुखार दूर करने के गुण के कारण अतिबला को फेफड़ों की टीबी में भी प्रयोग किया जाता था.


  

गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

आमला

आमला एक जाना मन फल है. इसका वृक्ष मीडियम साइज़ का होता है. इसकी पत्तियां इमली से मिलती जुलती होती हैं. आमले का मौसम सितम्बर से मार्च तक रहता है. इसके फल चमकदार हलके हरे रंग के होते हैं. फल पर छः धारियां पड़ी होती हैं. इसका फल उबलने या धुप में सूखने पर छः फांकों में बंट जाता है. इसकी गुठली भी पहलदार होती है और इसके अंदर बीज होते हैं.
आमला आयुर्वेद की तीन मुख्य दवाओं जिन्हे तिरफला कहते हैं के एक अहम् घटक है. तिरफला में तीन दवाएं - हरड़ बहेड़ा और आमला शामिल होती हैं.

आमला विटामिन और मिनरल का खजाना है. इसका स्वाभाव ठंडा होता है. इसका स्वाद बकठा होता है. हरे कच्चे आमले में पानी के मात्रा बहुत होती है. इसे दवाओं के अलावा मुरब्बा और अचार के रूप में प्रयोग किया जाता है. आमले को सुखाकर आमला, रीठा, और शिकाकाई मिलकर बालों को धोने के लिए देसी चूर्ण बनाया जाता है. इस चूर्ण को पानी में भिगोकर पीस लिया जाता है और इसे शैम्पू के तरह प्रयोग किया जाता है.
आमला चयवनप्राश का मुख्य घटक है. कहा जाता है के महर्षि चयवन बहुत बूढ़े और कमजोर हो गए थे. तब उन्होंने इस दवा का प्रयोग किया. चयवनप्राश अवलेह के नाम से बाजार में बहुत ब्रांड बिक रहे हैं.
आमले का स्वाद बकठा और कसैला  होने के कारण इसका मुरब्बा बनाते वक्त इसका बकठापन निकलने के लिए आमलो को इस्टेनलेस स्टील या लकड़ी के बने कांटे से अच्छी तरह छेद कर चूने के पानी में भिगो देते हैं. छः से बारह घंटे भीगने के बाद इसका कसैलापन कम हो जाता है. तब इसे उबालकर शकर के पाग में दाल देते हैं. अगले दिन पाग से निकलकर फिर से पाग को धीमी आंच पर पका कर गाढ़ा कर लेते हैं. निकले हुए आमले दुबारा पाग में दाल देते हैं. अगर आमलो से निकला पानी पाग में मिल जाता है तो उसमें फफूंदी लग जाती है. इसलिए आमले का मुरब्बा बनाते वक्त आमले को पाग से निकलकर कई बार गाढ़ा करना पड़ता है की उसमें पानी की मात्रा न रहे.
आमले का मुरब्बा मेमोरी को बढ़ाता है. ये शरीर की झुर्रियां मिटाता है. इसके लगातार इस्तेमाल से बुढ़ापा देर से आता है.
हरड़ की गुठली निकलकर उसका छिलका, बहेड़े की गुठली निकलकर उसका छिलका और सूखे हुए आमले सामान मात्रा में मिलकर पाउडर बनाले. यही तिरफला पाउडर है. रात को सोते समय पानी से एक चमच पाउडर खाने से शरीर को रोग नहीं लगते.
तिरफला पाउडर में अजीब बात ये है की अगर कब्ज़ दूर करना हो तो एक चमच से तीन चमच तिरफला पाउडर गरम पानी से रात को खाए. अगर दस्त बंद करना हों तो ठन्डे पानी से इस्तेमाल करें.
आमला बालों  बढ़ाता और चमकदार बनाता है. आमले के नाम से कई तेल बाजार में मिल रहे है. आमले का तेल बनाने के लिए कच्चे आमले की जगह सूखे आमले का प्रयोग किया जाता है. कच्चे या हरे आमले का तेल देखने में सुन्दर नहीं होता. कढ़ाई आदि में तेल के साथ आमले के रस को पकाने से उसमें कालापन आ जाता है.



बड़ी दुधी

बड़ी दुधी बरसात के मौसम में खर पतवार के साथ खाली पड़े स्थानों पर उगती है. इसकी दो पत्तियों के  जोड़ पर इसके बारीक़ फूलों और बीजों का गुच्छा लगा होता है. इस कारन ही इस बूटी की पहचान आसानी से के जा सकती है. इसकी शाखाये ज़मीन पर फैलने वाली गुच्छेदार और लचकदार होती हैं. शाखा तोड़ने पर इसमें से दूध निकलता है. इस दूध या  लेटेक्स  के कारण  ही इसका नाम दूधी पड़ा है.

एक और बूटी भी है  जिसे छोटी दूधी कहते हैं. इसके पत्ते  छोटे गहरे हरे रंग के शाखाएं बारीक़ होती हैं. इसको तोड़ने पर भी दूध निकलता है.
छोटी दूधी को पहले ही इसी बलाग अजीब हर्ब में वर्णित किया जा चुका है.
 दूधी को छाया में सुखाकर और पाउडर बनाकर पानी के साथ सेवन करने से डिसेंट्री में लाभ होता है. अपने तर स्वाभाव के कारण ये सूखी खांसी में भी लाभकारी है. खांसी में इसका प्रयोग काढ़े के रूप में करना चाहिए.


  

शनिवार, 2 दिसंबर 2017

कद्दू

कद्दू एक जानी मानी सब्ज़ी है. ये हर मौसम में मिलता है. लेकिन इसका मुख्य सीज़न बरसात का मौसम है. इसकी बेल होती है. इसमें पीले रंग के सुन्दर फूल खिलते हैं. कद्दू को इंग्लिश में पम्पकिन  कहते हैं. ये दो आकर में मिलता है. गोल और अंडाकार. अंडाकार कद्दू बहुत बड़े बड़े  हो जाते जाते हैं.
कद्दू का  स्वाभाव ठंडा है. इसके बीजों का प्रयोग तरबूज़, ख़रबूज़े, खीरा, ककड़ी के बीजों के साथ मिलकर मेवे के रूप में किया जाता है. कद्दू के बीज मेमोरी को बढ़ाते हैं. इनके प्रयोग से नींद न आने की समस्या से छुटकारा मिलता है. इसके बीजों  का तेल कद्दू रोगन के नाम से मिलता है. सर में इसकी मालिश नींद लाने में सहायता करती है.
इसके तेल और बादाम के तेल को सामान मात्रा में मिलाकर सर में लगाने से न केवल याददाश्त और मीठी नींद आने में फ़ायदा होता है बल्कि बाल भी काले रहते हैं. इसके तेल को रात को चेहरे पर लगाने से झुर्रियां नहीं पड़ती.

कद्दू का तेल और इसके बीन पौष्टिक, याददाश्त को बढ़ाने वाले, नींद लाने वाले हैं. ये दिमाग को ताकत देते हैं. इसके तेल से कोलेस्ट्रॉल नहीं बढ़ता. सब्ज़ी का प्रयोग उच्च रक्तचाप वालों के लिए लाभकारी है.
कद्दू का फल पककर मीठा हो जाता है. डायबेटीस वालों को कच्चा या हरा कद्दू खाना चाहिए. मीठा कद्दू शुगर लेवल बढ़ा सकता है.
 जिन लोगों का स्वाभाव ठंडा है और जो सर्दीजनित रोगों जैसे खांसी, ठण्ड, बुखार आदि से पीड़ित हों उन्हें कद्दू नुकसान कर सकता है. जो वायुविकारों से पीड़ित हों उनके लिए भी फायदेमंद नहीं है. 

बनकचरा

बनकचरा बरसात  दिनों में खेतों  और अन्य स्थानों में उगने वाला पौधा है. बनकचरे की बेल होती है. इसके पत्ते ख़रबूज़े के पत्तों से मिलते हुए होते  हैं. इसमें छोटे छोटे पीले रंग के फूल खिलते हैं. बनकचरे के फल दो से तीन इंच लम्बे बेलनाकार होते हैं. इनपर लम्बाई में धारियां पड़ी होती हैं.

कच्चा बनकचरा स्वाद में फीका होता है. पककर ये मीठा हो जाता है. कुछ बनकचरे खट्टे और कुछ कड़वे भी होते हैं. इसमें ख़रबूज़े से मिलती जुलती सुगंध आती है.

बनकचरा पेशाब-आवर यानि डाययुरेटिक है. इसके खाने से पेशाब खुलकर आता है और गुर्दों की सफाई हो जाती है. इसके बीज भी ख़रबूज़े के बीजों के समान लेकिन आकर में छोटे होते हैं. बीजों को थोड़ा कुचलकर काढ़ा बनाकर पीने से मूत्र रोगों में लाभ होता है.
बनकचरा खेतों में अतिरिक्त या फालतू पौधे के रूप में उगता है इसलिए इसे या तो जानवरों के चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है या फालतू जंगली फल समझ कर खाया जाता है इसके मेडिसिनल प्रभाव की तरफ कोई तवज्जो नहीं दी गयी.

रविवार, 7 मई 2017

बेल

बेल या बलागुंड, बिल्व फल एक सख्त छिलके वाला पहल है. इसका पौधा बड़ा होता है. इसके पौधे में बड़े बड़े कांटे होते हैं. अप्रैल मई में इसमें पतझड़ होकर नए पत्ते आते हैं और उसके साथ ही फूल भी आते हैं. इसका फल फरवरी मार्च में पकने लगता है.
इसके पत्तों का स्वाद कड़वा होता है. पत्तियों को थोड़ी मात्रा में पीसकर पानी में मिलकर पीने से डायबेटिस में लाभ होता है. शुगर को घटाने में ये प्रयोग मददगार साबित हुआ है.
बेल का फल पेट के लिए फायदेमंद है. ये डिसेंट्री को दूर करता है. इसका गूदा खाने में चिपचिपा होता है. इसका यही चिपचिपापन आँतों में जर्मस को लपेटकर शरीर के बाहर निकल देता है. बेल का मुरब्बा भी बनाया जाता है. इसे सुखाकर भी दवाओं में प्रयोग किया जाता है.
अपने रेचक स्वाभाव के कारण ये आंतो में जमे मल की निकलने और कब्ज़ को दूर करने में सहायक होता है. इसमें नेचुरल फाइबर पाया जाता है. ये नेचुरल फाइबर आँतों के सफाई करता है. गर्मी के मौसम में इसका प्रयोग बहुत सी पेट के बीमारियों से बचाता  है.
इसके स्वाद में कुदरती कड़वापन होता है. बीज एक गाढ़े चिपचिपे पदार्थ से लिपटे होते हैं. फल बेचने वाले कच्चे बेल को केमिकल के सहायता से पकाते हैं जिससे इसका कड़वापन और बढ़ जाता है और स्वाद अच्छा नहीं लगता.
इसका इस्तेमाल शरीर के अंदरूनी भागों से होने वाले खून के रिसाव को भी बंद करता है.

चौलाई

चौलाई  दो प्रकार की होती है. एक बिना काँटों की और दूसरी कांटेदार चौलाई. जंगली या खुद बी खुद उगने वाली चौलाई सब्ज़ी के रूप में प्रयोग की जाती है. खेतों में बोई जाने वाली चौलाई के पत्ते और पौधे जंगली चौलाई से बड़े होते हैं. इनके पत्तों का रंग ऊपर से हरा और नीचे लाल होता है. एक प्रकार की चौलाई जो बगीचों में सजावटी पौधों के रूप में लगाई जाती है, गहरे लाल या बैगनी रंग की होती है.
चौलाई के सभी वैराइटी खाई जा सकती हैं. लेकिन दो प्रकार की चौलाई ही आम तौर से खाई जाती है. बाजार में मिलने वाली खेतों में उगाई चौलाई और खुद उगने वाली जंगली चौलाई.

चौलाई के पत्तियों का शाक खाया जाता है. इसका मज़ा सीठा फीका होता है. कुछ लोगों को इसका स्वाद अच्छा नहीं लगता. चौलाई खून साफ़ करती है. शरीर से विभिन्न प्रकार के विष और हानिकारक पदार्थों को निकल देती है. ये गुर्दों की सेल को री - जनरेट करती है. जिगर को विषैले पदार्थों से साफ़ करती है.
चौलाई डायूरेटिक या पेशाबआवर है. इसका इस्तेमाल स्किन को कांतिमय बनाता  है.
चौलाई खली पड़ी स्थानों और घास फूस के साथ अप्रैल- मई से लेकर अगस्त-सितम्बर तक पायी जाती है. बरसात में ये खूब फूलती फलती  है. बरसात के दिनों में ये गरीब लोगों का भोजन है. इसमें मिनरल्स और विटामिन की सूक्ष्म मात्रा है. ये किसी भी व्यक्ति या मरीज़ को नुकसान नहीं करती. इसका प्रयोग बिना किसी हिचकिचाहट के किया जा सकता है.  

मंगलवार, 2 मई 2017

सदाबहार

सदाबहार, सदाफूल और सदाफूली एक बहुतायत से पाए जाने वाले पौधे के नाम हैं. ये पौधा बाग़ बगीचों और घरों में सुन्दर फूलों के लिए लगाया जाता है. इसमें हर मौसम में फूल आते हैं. इसलिए इसका नाम सदाबहार पड़ा. इस पौधे को जानवर नहीं खाते इसलिए भी ये बगीचों के किनारे की कियारिओं में लगाया जाता है. इसके फूल आम तौर से दो रंगों के पाए जाते हैं. बैगनी रंग के फूलों वाला सदाबहार और सफ़ेद रंग के फूलों वाला सदाबहार. अंग्रेजी में इस पौधे को पेरीविंकल कहते हैं. ये पौधा एक या बहु वर्षीय होता है. इसको बीज या कटिंग से उगाया जाता है.

डायबेटीस की ये अचूक दवा है. इसमें पाए जाने वाले अल्कलॉइड शुगर को घटाने में मददगार साबित होते है. सदाबहार की सूखी पत्तियां, सूखा करेला, सूखी जामुन की गुठली, मेथी और गुड़मार को बराबर मात्रा में पाउडर बनाकर मिलाकर एक छूटा चमच दिन में तीन बार पानी के साथ लेने से शुगर का लेवल घट  जाता है. साथ में उचित परहेज़ करने से बहुत लाभ होता है.  सदाबहार ब्लड प्रेशर को कम करने में भी लाभकारी है. इस मामले में इसके गुण छोटी चन्दन या राउलफिआ सर्पेन्टीना से मिलते हैं. बेचैनी और ह्यपरटेन्शन को काम करने और ऐसे मरीज़ों में नींद लाने के लिए राउलफिआ सर्पेन्टीना का प्रयोग किया जाता है. राउलफिआ सर्पेन्टीना को पागलों के इलाज के लिए देसी दवा के
रूप में वर्षों से प्रयोग किया जा रहा है. सदाबहार भी ब्लड प्रेशर काम करने और बेचैनी दूर करने में सहायक है.
सदाबहार कैंसर-रोधी भी माना जाता है. इसका काढ़ा कैंसर में लाभकारी होता है. कुछ मरीज़ों में इसके लाभकारी गुण देखे गए हैं.
ज़्यादा मात्रा में इसका इस्तेमाल मिचली, जी घबराना, ब्लड प्रेशर लो होना के लक्षण उत्पन्न कर सकता है. क्योंकि इसमें ब्लड प्रेशर घटाने के गुण  हैं इसलिए कभी कभी इसका अधिक इस्तेमाल ब्लड प्रेशर को बहुत काम कर देता है. जड़ी बूटी होते हुए भी ये ऐसी दवा नहीं है जिसका प्रयोग बिना सोचे समझे  किया जा सके. इसलिए इसका इस्तेमाल किसी जानकार हकीम या वैद्य की निगरानी में होना चाहिए. 

गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

गेंदा

गेंदा एक जाना माना  पौधा है. ये आम तौर से पीले फूलों वाला होता है. लेकिन इसके बहुत सी वैराइटी हैं. ये इकहरे फूल का, दोहरे फूल का और घनी पंखुड़ियों वाले फूल का होता है. रंग भी पीले के अलावा, एग योक यलो, सनसेट येलो और मिक्स कलर में भी पाया जाता है. इसकी ऊंचाई भी भिन्न भिन्न प्रकार की होती है. हाइब्रिड गेंदा सफ़ेद और अन्य कई रंगों में पाया जाता है.

गेंदे के फूल सजावट और फूल मालाओं में काम आते हैं. घरों और बागीचों में भी शोभा के लिए लगाया जाता है. ये वार्षिक पौधा है. देसी वैराइटी के पौधे गर्मी और बरसात में उगाये जाते हैं. जाड़ों के मौसम में इसमें फूल आने लगते हैं. फूल सूख जाने पर इसकी पंखुड़ियों के निचले भाग में पतला और बारीक काले रंग के बीज होते हैं. इन बीजों को ही बरसात में बोया जाता है.
ये एक गंध वाला पौधा है. इसकी गंध बहुत से लोगों को अच्छी नहीं लगती. लेकिन इसमें भी दवाई के गुण  हैं. लेकिन दवाई के रूप में गेंदे को अधिक प्रसिद्धि नहीं मिल सकी.
इसकी गंध के वजह से जानवर इसे नहीं खाते इसलिए ये बागीचों के किनारे लगाया जाता है.
गेंदा कटिंग या कलम से भी हो जाता है. बरसात के मौसम में इसके तने से अनेक जड़ें निकल आती हैं. इसके टुकड़े लगाने से नए पौधे बन जाते हैं. इन पौधों में अच्छे फूल आते हैं.
गेंदा पेशाब की जलन में उपयोगी है. इसके पत्तियों को पीसकर पानी में घोलकर पीने से लाभ होता है.

हैमरॉइड के लिए इसके फूल के पंखुड़ियों को काली मिर्च के साथ सेवन करने से रोग जाता रहता है. एक अन्य फार्मूले के अनुसार गेंदे के फूल की पंखुड़ियां, कुकरौंदे के पत्ते, रसौत और काली मिर्च के साथ गोली बनाकर प्रयोग करने से भी हैमरॉइड में शीघ्र लाभ होता है. गेंदे की पत्तियां पीसकर लगाने से चोट से खून का बहना बंद हो जाता है. इसकी गंघ से मच्छर पास नहीं आते हैं.

शंखपुष्पी

शंखपुष्पी, संखाहोली, सनखुलिया, कौडियाला एक घास की तरह का पौधा है. ये ज़मीन पर बिछी हुई एक छोटी छोटी शाखाओं वाली बूटी है. इसकी पत्तियां बहुत बारीक और पतली पतली होती हैं. जब इसके फूल न खिले हों तो इसके घास में से पहचानकर अलग करना मुश्किल है.

गर्मी के शुरू में अप्रैल, मई में इसके फूल खिलते हैं. ये फूल सफ़ेद रंग के कटोरीनुमा होते हैं. इस समय ही इस जड़ी बूटी के पहचान बड़ी आसानी से की जा सकती है.
सफ़ेद फूलों के कारण इसे शंखपुष्पी कहा जाता है. यही नाम बिगड़ कर सांखुलया और संखाहोली यानी शंख के समान  सफ़ेद फूलों वाली बूटी हो जाता है.
कौड़ी भी एक समुंद्री जीव है. कौड़ी के सफ़ेद रंग के कारण भी इसका नाम कौडियाला भी है. ये बूटी अपने सफ़ेद फूलों से ही पहचानी जाती है और यही इसकी खूबी है.
शंखपुष्पी की प्रकृति ठंडी है. जिनको गर्मी जनित विकार हों. गर्मी के कारण शरीर और सर में जलन हो उनको ये बूटी फ़ायदा करती है. याददाश्त यानि मेमोरी को बढाने में इसका बहुत बड़ा नाम है. इसका प्रयोग मेमोरी को कायम रखने के लिए बरसों से हो रहा है. बाजार में शंखपुष्पी के नाम से सीरप आदि मिलते  हैं. गर्मी के मौसम में शंखपुष्पी के ताज़ी शाखायें बादाम और सौंफ के साथ पीसकर ठंडाई के रूप में पीने से मन शांत रहता है और गर्मी के विकार दूर होते हैं.
शखपुष्पी को सुखाकर पाउडर बना लिया जाता है. एक भाग शंखपुष्पी का पाउडर, एक भाग ब्राह्मी का पाउडर, एक भाग काली मिर्च का पाउडर और तीन भाग बादाम का पाउडर मिलाकर, एक चम्मच ये पाउडर सुबह शाम दूध के साथ लेने से मेमोरी बढ़ती है और हाइपर टेंशन में आराम मिलता है और नींद भी अच्छी आती है.

शनिवार, 7 जनवरी 2017

कसूरी मेथी

मेथी और कसूरी मेथी. दोनों अलग अलग पौधे हैं. आम तौर से मेथी के बीजों को मेथी और मेथी की सूखी हुई पत्तियों को कसूरी मेथी समझ जाता है.

मेथी की हरी पत्तियों को सब्ज़ी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. सर्दी के मौसम में अकटूबर से फरवरी तक बाजार में मेथी के पत्तियां मेथी के साग के नाम से मिल जाती हैं. सोया, मेथी और पालक की पत्तियों को साग के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. यही पत्तियां सुखाकर सर्दी के सीज़न के अलावा विभिन्न प्रकार की डिश में प्रयोग की जाती हैं. ये न सिर्फ खाने को सुगन्धित बनाती हैं बल्कि इनके बहुत से फायदे भी हैं.
मेथी का बीज जिसे आम तौर से मेथी ही कहते हैं बाजार में मिल जाता है. इसे भी मसाले के रूप में खाने में प्रयोग किया जाता है. इसकी अपनी विशेष सुगंध होती है. मेथी का बीज दावा के रूप में भी इस्तेमाल होता है. और ये एक बहुत कारगर दावा है.

कसूरी मेथी का नाम अविभाजित पंजाब में कसूर नाम के स्थान से  जुड़ा हुआ है. कसूर पहले लाहौर में था अब ये पाकिस्तान का एक डिस्ट्रिक्ट है. कसूरी मेथी की पत्तियां मेथी  की पत्तियों से कुछ भिन्न होती है. सूख जाने पर इनमें से अच्छी खुश्बू आती है. कसूरी मेथी का बीज आम मेथी से छोटा होता है. दोनों तरह की मेथी को खाने में इस्तेमाल किया जाता है.
मेथी डायबेटिज़ के मरीजों के लिये फायदेमंद है. इसका साग या मेथी के बीजों का पाउडर नियमित इस्तेमाल में रखने से डायबेटिज़ को कंट्रोल में रखता है.
मेथी में विभिन्न प्रकार के पॉइज़न को सोख कर शरीर के बहार निकलने की शक्ति है. इसके साग के रोशे आँतों के कैंसर से बचाते हैं.
ये जोड़ों के दर्द की बेजोड़ दावा है. बढे हुए पेट को कम करती है. चर्बी को घटाती है. स्लिम होने के लिए यहाँ एक बेजोड़ फार्मूला दिया जाता है.
मेथी का बीज 50 ग्राम, ओरिजिनल ग्रीन टी की पत्ती 50 ग्राम, इसबगोल की भूसी जिसे सात इसबगोल या इसबगोल हस्क भी कहते है 100 ग्राम और कलौंजी 20 ग्राम. इन सबको ग्राइंडर में डालकर पाउडर बनालें. गर्म पानी के साथ एक छोटा चमच सुबह और एक शाम. 3 माह के लगातार इस्तेमाल से मोटापा जाता रहता है. जोड़ो का दर्द, कब्ज़, ब्लड प्रेशर की भी अचूक दवा  है.

सोमवार, 2 जनवरी 2017

खट्टी बूटी

ये बूटी आम भाषा में खट्टा स्वाद होने के कारण खट्टी बूटी और खटकल के नाम से जानी जाती है. तीन पत्तियों के कारण तिपतिया, और अंग्रेजी भाषा में  वुड सोरेल, या ऑक्ज़ेलिस के नाम से प्रसिद्ध है. ये गीली और नम जगहों पर उगती है. इसे छायादार स्थान और नमी पसंद है. क्यारियों और खली पड़ी जगहों पर बहुतायत से उग आती है.
इसकी बहुत से प्रजातियां हैं. आम तौर  से छोटे छोटे पीले फूल वाली बूटी पायी जाती है. लाल रंग के फूल और सफ़ेद की वैराइटी भी पायी जाती हैं. इसमें छोटी फलियां लगती हैं. जिनमें बारीक बीज होते हैं. फलियां चटककर बीज बिखर जाते हैं और नए पौधे जमते हैं.

इसका खट्टापन ऑक्ज़ेलिक एसिड के कारण होता है. इसका अजीब प्रयोग मधु मक्खी और कीड़े मकौड़ों के काटने में होता है और बड़ा कारगर है. यहाँ तक की बिच्छू के काटने पर भी असरदार पाया गया है. काटी  हुई जगह पर इसकी पत्तियों को रगड़ने से दर्द और जलन जाती रहती है. ये प्रयोग बहुत लोगों पर कारगर सिद्ध हुआ है.


इसका स्वाभाव ठंडा है. प्यास को शांत करती है. इसे खाने से बार बार प्यास नहीं लगती. लू लगजाने पर इसकी चटनी बनाकर खाने से आराम मिलता है.
गठिया के रोगियों, वे लोग जिनके गुर्दे या पित्ते में पथरी हो, को ये बूटी इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. ऐसे मरीजों को ये बूटी नुकसान करती है.
इसका इस्तेमाल काम मात्रा में फ़ायदा पहुंचता है. ऑक्ज़ेलिक एसिड की वजह से ज़्यादा इस्तेमाल नुकसानदेह होता है. पेशाब जलन के साथ आने लगता है. एसिडिटी के रोगी भी इसे इस्तेमाल न करें.


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