शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

हंसराज एक जड़ी बूटी है

हंसराज किसी चिड़िया का नाम नहीं है. हर्ब्स की दुनिया में ये एक जड़ी बूटी है जो गीले  और नमी वाले स्थानों पर उगती है.   इसे छायादार और नमी वाली जगहें पसंद हैं. इसकी पत्तियां बारीक़, छोटी और डंडियां डार्क ब्राउन रंग की होती हैं. पत्तियों का रंग भी गहरा हरा, छोटी दूधी के पत्तों के रंग से मिलता हुआ होता है.
इसको हकीम और आयुर्वेद जानने वाले समान रूप से इस्तेमाल करते हैं. ये नज़ला ज़ुकाम, खांसी के लिए दिए जाने वाले काढ़े या जोशांदे का एक मुख्य अवयव है. पहले इसके स्थान पर गुलबनफ्शा प्रयोग होता था. लेकिन हंसराज के अपने गुण हैं.
इसे हकीम परसियाओशां, शेअर-उल-अर्ज़ या फिर शेअर-उल-जिन्न लिखते हैं. इसे हंसपदी के नाम से भी जाना जाता है.


हंसराज का प्रयोग नज़ला, ज़ुकाम, खांसी में बलगम निकालने के अलावा बुखार को दूर करने में भी किया जाता है. हंसराज एक अच्छा लिवर टॉनिक है. ये लिवर की सेहत को ठीक रखता है. पित्त के प्रवाह को ठीक करता है. पित्ते की पथरी को घुला देता है.
गुर्दे की पथरी में भी हंसराज का काढ़ा अन्य दवाओं के साथ इस्तेमाल करने से गुर्दे की पथरी टूटकर निकल जाती है.
हंसराज बालों को बढ़ाता है. इसका तेल बनाकर लगाने से बाल बढ़ते और मज़बूत होते हैं. ये गंजेपन को ठीक करता है.
हंसराज में सभी वाइटल अंगों को ठीक रखने के गुण हैं. ये चमत्कारी बूटी है. दवा में इसका इस्तेमाल सदियों से किया जा रहा ही. ये दिल की सेहत को भी ठीक रखती है. डायबेटिस से बचाती है. इसके इस्तेमाल से कैंसर नहीं होता.
अजीब बात है की हंसराज जहां सर्दी की बीमारियों में लाभदायक है. कोल्ड और कफ में इसका जोशांदा तुरंत गर्मी देता है. वहीँ दूसरी और यदि गर्मी से सर  में दर्द हो रहा हो तो  इसकी ताज़ी पत्तियों के पेस्ट को माथे पर लेप करने से ठीक हो जाता है.
ये बहुत कमाल  की जड़ी बूटी  है. सही हाथों में चमत्कार दिखाती है.



गुरुवार, 30 जुलाई 2020

बरगद और अमरत्व

 बरगद ऐसा वृक्ष है जो कभी नहीं मरता. ये एक अजर अमर वृक्ष है. इसे अगर प्रकृति की शक्तियां और मानव नष्ट न करे तो ये हज़ारों साल तक बाकी रह सकता है. बरगद और अमरत्व साथ साथ चलते हैं. कहा जा सकता है कि नेचर में अगर किसी वृक्ष ने अमरत्व प्राप्त किया है तो वह बरगद है. बेलों में अमरत्व प्राप्त करने वाली गुर्च की बेल  है. इसीलिए गुर्च का एक नाम अमृता भी है.
इसके अलावा भी ऐसे पौधे और पेड़ हैं जिनमें अमरत्व के के गुण पाए जाते हैं. लेकिन इन दो पौधों को  लोग  आम तौर से जानते और पहचानते हैं. इन पौधों में जीवन दायिनी और पुनरुत्पादन शक्ति अन्य पौधों के मुकाबले तेज़ होती है.
गुर्च और बरगद दोनों में हवाई जड़ें निकलती हैं जो पौधे को नया जीवन और सहारा देती हैं. बरगद लेटेक्स या दूध वाला पेड़ है जबकि गुर्च में दूध नहीं होता. गुर्च में एक चिपचिपा पदार्थ होता  है. यही दूध बरगद को और चिपचिपा पदार्थ गुर्च को सूखने से बचाता है. पानी न मिलने पर भी ये पौधे ज़िन्दा रहते हैं.
बरगद के पेड़ से हवाई जड़ें निकलकर लटकती हैं. इन्हीं जड़ों को बरगद की जटाएं कहते हैं. जैसे बरगद कोई आदमी हो और ये जटाएं उसके बाल हों. इन्हीं जड़ों को बरगद की दाढ़ी भी कहते हैं.
ये जड़ें या जटाएं नीचे की ओर आकर ज़मीन में चली जाती हैं. अजीब बात ये है की जो भाग ज़मीन के अंदर चला जाता है वह जड़ का काम करता है और ऊपरी भाग तना बन जाता है. यही तना मोटा हो जाता है. ये शाखाओं को सहारा भी देता है. बिलकुल इसी तरह जैसे बिल्डिंग में पिलर होते हैं. मूल वृक्ष नष्ट भी हो जाए तो ये बहुत से पिलर पेड़ को बचाए रखते हैं. इस प्रकार ये पेड़ घना और मोटा होकर जड़ों और पिलर के सहारे फैलता  जाता है और एक बड़ा एरिया कवर कर लेता है.


बरगद के पेड़ को बोहड़, और बढ़ या बड़ का पेड़ भी कहते हैं. इसके फल पकने पर लाल हो जाते हैं. इनका आकार गूलर के फलों के आकार से छोटा होता है. ये फल चिड़ियां और बन्दर चाव से खाते हैं. ये परिंदे बरगद के बीजों को दूर तक बिखरने में मदद करते हैं. बरगद के पेड़ इन्हीं बीजों से जमते हैं.
बरगद एक दूध वाला वृक्ष है. इसका दूध, फल, जटा सब दवा के रूप में इस्तेमाल होते हैं. लेकिन इनका प्रयोग आम तौर पर नहीं किया जाता. अजीब बात ये है कि दवाई के रूप में इसका प्रयोग कम ही किया गया है.
कहते हैं की बरगद के पेड़ के नीचे बैठने और सोने से शरीर दुबला हो जाता है. बरगद की सूखी जटा अगर पानी में भिगो दी जाए और इन जटाओं का पानी, जब भी पानी पीना हो, प्रयोग करें तो भी शरीर दुबला हो जाता है. लेकिन किसी भी दवा के प्रयोग से पहले  चिकित्सक की सलाह ज़रूरी है.
बरगद की जटाओं को तेल में पकाकर, छानकर  ये तेल बनाकर सर में लगाने से बाल बढ़ते हैं ऐसा विश्वास प्रचलन में है. लेकिन कुछ लोगों के इसके प्रयोग से गंभीर समस्या उत्पन्न हुई है और सर में जितने बाल थे वह भी झड़ गये. इसलिए किसी भी दवा/ जड़ी बूटी/पेड़ पौधे का बिना किसी हकीम या वैद्य की सलाह के प्रयोग नुकसानदायक साबित हो सकता है. पुरुषों की समस्याओं में बरगद का दूध बताशे में भरकर खाने को बताया जाता है. कई लोगों को इसके इस्तेमाल से पेट में दर्द और डिसेंट्री की शिकायत हो गयी है. एक व्यक्ति ने दांत के दर्द के लिए बरगद का दूध खोखले दांत में भर दिया. मसूढ़े सूज गए और ऑपरेशन कराना पड़ा.
पौधों का दूध अपने गुणों में  सबसे ज़्यादा असरदार होता है. चाहे वह बरगद का दूध हो, आक  का दूध हो या थूहड़ का. इसलिए पौधों के दूध का प्रयोग बहुत सावधानी और जानकारी चाहता है.
ऐसे प्रयोगों से सावधान रहें क्योंकि जीवन अनमोल है.

शीशम लगाएं और भूल जाएं

 शीशम को अधिकतर लकड़ी प्राप्त करने के लिए लगाया जाता है. इसकी लकड़ी का प्रयोग फर्नीचर और इमारती लकड़ी के रूप में होता है. इसकी बढ़वार धीरे धीरे होती है. लगाने के लगभग 20 वर्ष के बाद शीशम का पेड़ लकड़ी प्राप्त करने के लिए तैयार होता है. और अधिक पुराने शीशम के वृक्षों से बहुत अच्छी और पक्की लकड़ी प्राप्त होती है.
वृक्ष पुराना होने पर इसकी लकड़ी अंदर से भूरी / डार्क ब्राउन/ काली पड़ जाती है. इसे ही पक्के शीशम की लकड़ी कहते हैं. मार्केट में शीशम की पक्की लकड़ी ऊँचे दामों बिकती है. शीशम की लकड़ी साधारण लकड़ी के रंग की हो या डार्क ब्राउन दोनों में दुसरे पेड़ों की लकड़ियों की मिलावट की जाती है और ग्राहक को नकली लकड़ी शीशम के नाम पर बेच दी जाती है.
ये ऐसा वृक्ष है जिसका बड़ा व्यापारिक महत्त्व है. इसके पत्ते गोल गोल पान के आकर के लम्बी नोक वाले होते हैं. सड़कों के किनारे लगाया जाता है. इसका वृक्ष आसानी से पहचाना जा सकता है. इसमें लम्बी लम्बी फलियां लगती हैं जिनमें बीज होते हैं. इसके पत्तों का आकर भी छोटा, लगभग रूपये के सिक्के के बराबर होता है. फलियां भी ज़्यादा लम्बी नहीं होतीं. ये भी आधा इंच चौड़ी और तीन से चार इंच लम्बी होती हैं. फलियों का रंग लाइट ग्रीन होता है. ये गुच्छों में लगती हैं.
शीशम को टाली और टाहली भी कहते हैं. ये शब्द पंजाब से सम्बंध रखता है. सीसो, सासम, सीसम के नाम भी प्रचलित हैं. शीशम का स्वाभाव ठंडा है. इसलिए ये गर्मी से आयी सूजन घटाने में कारगर है. अपने ठन्डे स्वाभाव के कारण ये पेट की गर्मी और एसिडिटी को शांत करता है. इसके लिए इसके 10 से 20 ग्राम पत्तों को थोड़ा कुचलकर एक गिलास पानी में भिगो दें और 4 घंटे बाद छानकर थोड़ी सी मिश्री या शकर मिलाकर पीने से लाभ होता है.
शीशम लिकोरिया रोग में भी लाभकारी है. इसके लिए इसके पत्तों को ऊपर बताई गयी तरकीब से सुबह, शाम पीने से लाभ होता है.
शीशम अपने ठन्डे स्वाभव के कारण ब्लड की गर्मी को भी शांत करता है. इसलिए चर्म रोगों में भी प्रयोग किया जाता है. शीशम की लकड़ी का बुरादा पानी में भिगोकर शरबत बनाकर पीने से चर्म रोग, खुजली, एक्ज़िमा, यहां तक की कोढ़ रोग भी नष्ट हो जाता है. इसके लिए कम से कम  तीन माह तक इसका इस्तेमाल ज़रूरी है. खाने में केवल बेसन के रोटी और सब्ज़ी के आलावा कुछ न खाया जाए. और इसका प्रयोग किसी काबिल हकीम या वैद्य की निगरानी में किया जाए. स्वयं उपचार नुकसान कर सकता है.
शीशम की दातुन दांतों को मज़बूत करती है. मुंह के दानों और छालों से रक्षा करती है. अगर मुंह में छाले हो जाएं तो शीशम की कच्ची फलियां कत्थे के साथ चबाने से फ़ायदा होता है. इन्हे पान की तरह चबाकर थूक दिया जाए.
अजीब बात है और वृक्षों की तरह शीशम का मौसम के हिसाब से पतझड़ नहीं होता. ये हमेशा हरा भरा रहता है. इसकी छाया भी घनी नहीं होती. ये बीज से आसानी से उग आता है. इसके लिए अधिक पानी के भी आवश्यकता नहीं है. कहते हैं शीशम  लगाएं और भूल जाएं. 

रविवार, 26 जुलाई 2020

अमरुद

अमरुद मीडियम ऊंचाई का वृक्ष है. इसे घरों में भी लगाया जाता है. लगाने के 3 वर्ष के बाद इसमें फल आने लगते हैं. सामान्य अमरुद के पेड़ों में दो मौसम में फल आते हैं. एक बरसात के मौसम में और दुसरे जाड़े के मौसम में. जाड़े का मौसम का अमरुद अधिक स्वादिष्ट और मीठा होता है. बरसात का अमरुद थोड़ा कच्चा जिसे गद्दर या अधपका कहते हैं, खाना ठीक रहता है. ज़्यादा पकने और पीला पड़ने पर इसमें कीड़े पड़ जाते हैं.
अमरुद कब्ज़ की बड़ी दवा है. पक्का अमरुद खाने से कब्ज़ दूर होता है. इसके लिए बेहतर ये है की अमरुद पर काली मिर्च का पाउडर और थोड़ा सा नमक छिड़क कर खाया जाए.
कच्चे और अधपके अमरुद को खाने से बलगम बनता है और खांसी भी हो सकती है. लेकिन अजीब बात ये है की पक्का अमरुद अगर भूनकर खाया जाए तो खांसी में आराम मिलता है और बलगम आसानी से निकल जाता है.
अमरुद का नियमित इस्तेमाल पेट को साफ़ करता है. इसमें रक्त को डिटॉक्स करने के गुण हैं.
अमरुद के पत्ते भी दवा में इस्तेमाल होते हैं. अमरुद के पुराने, पक्के पत्ते 3 - 4 की मात्रा में, थोड़ी सी गेहूं के आटे की भूसी, 3 -4 काली मिर्च जिन्हें टुकड़ों में तोड़ लिया गया हो और एक चुटकी नमक, ये सब एक से डेढ़ ग्लास पानी में डालकर पकने रख दें. जब पानी आधा रह जाए तो छानकर गुनगुना पीने से ज़ुकाम में राहत मिलती है. ये बिना पैसे का जोशांदा / काढ़ा है.
अमरुद की कोंपल भी बड़े काम की चीज़ है. इसके नए छोटे पत्ते और कोंपल चबाने से दांत मज़बूत होते हैं. मुंह के अल्सर, मुंह में दाने/छाले  इससे ठीक हो जाते हैं. इसके पत्तों को कुचलकर काढ़ा बनाकर ठंडा करके कुल्ला / गार्गल करने से भी लाभ मिलता है.
एक बड़े हकीम ने मुंह के छालों का इलाज फ्री में बिना किसी दवा के किया था. मरीज़ मुंह के छालों से बहुत परेशान था और दवा खा खाकर तंग आ चूका था. हकीम ने कहा अमरुद के पत्ते, गुलाब की पत्ती, हरा धनिया मरीज़ के सरहाने रख दो. मरीज़ इन तीन चीज़ों में से किसी न किसी पत्ती को अपने मुंह में रखे, किसी समय भी मुंह खाली  नहीं रहना चाहिए.
मरीज़ ने ऐसा ही किया और बगैर दवा के ठीक हो गया.


शनिवार, 25 जुलाई 2020

हरा पीला केला

केला ऐसा फल है जो सारे साल मिल सकता है. इसकी बहुत से वैराइटी हैं. छोटे से लेकर बड़ा तक, हरे, पीले से लेकर लाल, नारंगी तक इसके विभिन्न रंग हैं. इसकी अपनी विशेष सुगंध है. कमरे में रखो तो कमरे में इसी की सुगंध आने लगती है.
अजीब बात ये है के केले के पौधे में एक बार ही  फल आता है. ये फल एक लम्बे आकार के गुच्छे में लगते हैं जिसे केले की गहर कहते हैं. एक बार के बाद पौधा समाप्त हो जाता है. इसकी जड़ों से नए केले के पौधे निकलते रहते हैं. एक पौधा समाप्त होने के बाद दूसरा पौधा उसी जगह ले लेलेता है और इस प्रकार केले के पौधे और उसकी फसल मिलती रहती है.
केले का स्वाभाव ठंडा है. अपने ठन्डे स्वाभाव के कारण ये बलगम बनाता है और खांसी के मरीज़ों को नुकसान करता है. केला पचने में भी गरिष्ठ होता है. लेकिन अजीब बात ये है की केले के इस्तेमाल से डिसेंट्री ठीक हो जाती है. इसके लिए केले को सत - इसबगोल (इसबगोल की भूसी) के साथ खाते हैं. केला दस्तों को भी बंद करता है. सफर में बहुत अच्छा भोजन है. न जर्म्स का डर और न खाना ख़राब होने का झंझट.
शाम चार बजे दो केलों का नित्य प्रयोग कब्ज़ नहीं होने देता.
कच्चा केला सब्ज़ी के रूप में भी प्रयोग किया जाता है. इसके चिप्स भी बनाये जाते हैं.

हकीम या वैद्य जिन लोगों को भस्म का प्रयोग कराते थे उनके बुरे प्रभाव से बचने के लिए केले खाने को बताते थे. केला आंतो के लिए फायदेमंद है. इसका फल के रूप में नियमित प्रयोग बहुत से रोगों से बचाता है. ये जोड़ों और हड्डियों को स्वस्थ रखता है. और जोड़ों के दर्दों से बचाता है. ये हड्डियों को लचीला बनाता है. कैल्सियम की कमी दूर करता है. एनीमिया से निजात दिलाता है.
लेकिन ध्यान रहे की वही केला या कोई अन्य फल फ़ायदा करता है जिसमें केमिकल का प्रयोग न हुआ हो. आजकल फलों पर ज़हरीले स्प्रे किये जा रहे हैं. केले को पकाने के लिए भी केमिकल का प्रयोग होता है जो सेहत के लिए घातक है.
केला खाएं लेकिन ध्यान से.

लेडिस फिंगर

 न तो लेडीबर्ड कोई चिड़िया है, न डाबरमैन कोई आदमी है. इसी प्रकार  लेडिस फिंगर भी किसी वास्तविक महिला की उंगलियां नहीं हैं जिनकी सब्ज़ी लोग चाव से खाते हैं. इसे लोग ओकरु के नाम से जानते हैं. इसका साइन्टिफिक नाम अरबी के नाम अबुल-मिस्क के शब्द से बना है. इसे Abelmoschus esculentus कहते हैं. कॉमन भाषा में इसे Ladies Finger और भिन्डी के नाम से जाना जाता है.
इस पौधे की कच्ची फलियां सब्ज़ी के रूप में इस्तेमाल की जाती हैं. इस सब्ज़ी में लेस या चिपचिपापन होता है. इसके चिपचिपे स्वाभाव के कारण  ये आंतों में मौजूद बीमारियों के बैक्टीरिया को नष्ट कर देती है.
 भिन्डी कमाल का हर्ब है. इसमें ऐसे तत्व हैं जो न केवल कोलेस्ट्रॉल को घटाते हैं बल्कि उसके स्तर को नार्मल रखते हैं. लेडिस फिंगर ब्लड शुगर को ठीक स्तर पर लाती है. इसके यही दो  गुण बहुत महत्वपूर्ण हैं.
इसका चिपचिपा पदार्थ आंतो की सेहत के लिए बहुत अच्छा है. भिंडी के इस्तेमाल से आंतों विशेषकर कोलन कैंसर नहीं होता.
अजीब बात है की इसकी जड़ भी इसकी फलियों के तरह जालदार होती है. इसको पानी में भिगोने पर चिपचिपा पदार्थ निकलता है. जड़ का प्रयोग भी दवा के रूप में किया जाता है. जिनको गर्मी के रोग हों, स्त्रियों के श्वेत प्रदर, पुरुषों के धातुरोग में जड़ को रात को पानी में भिगोकर उसका पानी सुबह को शकर मिलाकर पीने से आशातीत लाभ होता है.

दक्षिण में नारियल

नारियल भारत के दक्षिणी भाग का एक मुख्य वृक्ष है. दक्षिण में नारियल और उत्तर में आम बहुतायत से पाया जाता है. नारियल के फल को ही नारियल कहते हैं. इसे गोला, गोलागरी, खोपरा, कोपरा आदि नामों से भी जाना जाता है. कोपरा अंग्रेजी भाषा का शब्द है जिससे बिगड़कर खोपरा बना है.
कच्चे नारियल में पानी होता है जिसे गर्मी के ड्रिंक के रूप में पिया जाता है. नारियल पर तीन आवरण होते हैं. पहला चिकना छिलका, इसके अंदर नारियल की जटा जो रेशेदार होती है. उसके बाद लकड़ी जैसा सख्त छिलका और उसके अंदर नारियल की गिरी या गूदा होता है. इस गिरी के अंदर पानी भरा होता है जिसका स्वाद मीठा होता है.
सूखे नारियल का प्रयोग मेवे के रूप में किया जाता है. इसमें बहुत अच्छी मात्रा में तेल होता है. नारियल का तेल खाने और लगाने के काम आता है.
दवाई के रूप में नारियल दिमाग को ताकत देता है. पेट के रोगों के लिए फायदेमंद है. जहां आंतों में खुश्की हो वहां नारियल के साथ मिश्री खाना बहुत फायदा करता है. कच्चे नारियल का इस्तेमाल एसिडिटी में फायदा करता है. दक्षिण के लोगों को जो नित्य खाने में किसी न किसी रूप में नारियल इस्तेमाल करते हैं एसिडिटी की प्रॉब्लम नहीं होती.
जिनके दिमाग में खुश्की हो, नींद न आती हो, भूलने की बीमारी हो वे अगर वैसे ही नित्य एक से दो इंच के नारियल का टुकड़ा रोज़ सुबह शाम खाएं, या फिर नारियल का हलवा अन्य मेवों जैसे बादाम, काजू आदि के साथ बनाकर खाएं तो इस बीमारी से छुटकारा मिल जाता है.
चावल से बनी कोई भी डिश खाने के बाद नारियल खाने से चावल आसानी से हज़म हो जाता है.
नारियल और सौंफ का इस्तेमाल खाना खाने के बाद एसिडिटी नहीं होने देता और ये प्रयोग आँखों की जनरल सेहत के लिए भी उपयोगी है.
नारियल के तेल की मालिश करने से शरीर पर झुर्रियां नहीं पड़तीं और बुढ़ापे का असर जल्दी नहीं होता.
खुजली में नारियल के तेल में कपूर मिलाकर लगाने से लाभ होता है.
नारियल का स्वाभाव ठंडा और तर है. जिन लोगों का मिज़ाज ठंडा है उनके लिए नारियल का प्रयोग सावधानी से ही उचित है.
कई लोगों को सर में नारियल का तेल डालने से नज़ला ज़ुकाम हो जाता है. ऐसे लोगों को नारियल के प्रयोग से बचना चाहिए.
दवाओं में नारियल का प्रयोग करने के लिए अन्य गर्म दवाएं मिलाकर नारियल के सवभाव को समरूप कर लिया जाता है.
नारियल बहुआयामी पौधा है. व्यापारिक तौर पर इसका बड़ा महत्त्व है. घर की छत में छप्पपर छाने के लिए नारियल के पत्तों का इस्तेमाल होता है. इसका छिलका जलाने के काम आता है. जटा से रस्सी, आदि बनायीं जाती है. खेती बागबानी के लिए कोकोपीट, नारियल का तेल, उसका बुरादा, नारियल की खली सब बड़े व्यापारिक महत्त्व की चीज़ें हैं.
नारियल ऐसा पौधा है जिसका सामाजिक जीवन और व्यापार में बहुत महत्त्व है. 

रविवार, 19 जुलाई 2020

धनिया

धनिया मसालों में प्रयोग होता है. शायद ही कोई डिश ऐसी हो जिसमें धनिया पाउडर या हरे धनिये का प्रयोग न होता हो. धनिया को सुगंध के लिए प्रयोग किया जाता है. धनिया जाड़ों की फसल है. इसे बरसात ख़त्म होने के बाद बोया जाता है. अक्टूबर से मार्च तक इसकी हरी पत्ती बहुतायत से मिलती है. फिर धनिये में बीज लग जाता है. इसके पौधे सूख जाते हैं. और धनिया के बीज को इकठ्ठा कर लिया जाता है.
धनिया का स्वभाव ठंडा है. खाने में इस्तेमाल होने वाले दुसरे मसाले जैसे हल्दी, तेजपात, काली मिर्च, लाल मिर्च  आदि गर्म स्वभाव के हैं. इसका खाने में इस्तेमाल मिर्च से होने वाले नुकसान को बचाता है. धनिया पेट में होने वाले अल्सर से सुरक्षा प्रदान करता है.
गर्मी से होने वाले सर दर्द में धनिये की हरी पत्ती का लेप माथे पर करना बहुत लाभकारी है. जिन लोगो का मिज़ाज गर्म हो और गर्मी के कारन वे परेशान रहते हों, उनके लिए धनिये की पत्ती पानी में घोटकर पिलाने से गर्मी से जनित रोगों से निजात दिलाती है.
जब धनिये की पत्ती उपलब्ध न हो तो सूखा धनिया पाउडर भी यही लाभ करता है. 

नीबू को कौन नहीं जानता

नीबू को कौन नहीं जानता और कौन ऐसा है जिसने नीबू कभी इस्तेमाल नहीं किया. नीबू एक जाना माना  फल है. ये ऐसा पौधा है जिसकी बहुत सी किस्में हैं.
आम तौर पर जो नीबू बाजार में मिलता है उसे देसी नीबू या कागज़ी नीबू कहते हैं. कागज़ी इस लिए की इसका छिलका कागज़ के समान पतला होता है. इसका रंग हल्का पीला होता है जो खुद में नीबू के रंग के नाम से प्रसिद्ध है.
नीबू की दूसरी किस्में - जम्भीरी नीबू जो बड़े आकार के होते हैं. बारामासी नीबू जिसमें साल के हर मौसम में फल आते हैं. अण्डाकार नीबू के अलावा भी बहुत सी किस्में हैं. नीबू की पत्तियों में भी नीबू की सी खुशबु आती है. नीबू की सुगंध किसी को भी ख़राब नहीं लगती.
नीबू का प्रयोग मीट मछली की डिश में मीट की विशेष गंध समाप्त करने के लिए किया जाता है. नीबू दुर्गन्ध को दूर करता है. मीट मछली की डिश बनाने में मॅरिनेट करने के लिए इस्तेमाल होता है. इसके टुकड़े काटकर कमरे में रखने से हवा शुद्ध हो जाती है और कमरे में अच्छी सुगंध आती है.
नीबू का गुण अम्लीय है. ये हल्का एसिड है. इसे सलाद, शिकंजी, शरबत, में इस्तेमाल किया जाता है.
नीबू जी मिचलाने में लाभकारी है. इसको नमक लगाकर या बिना नमक के चाटने से जी मिचलाना और उल्टी रुक जाती है. नीबू निर्जलीकरण या डिहाइड्रेशन से बचाता है. पानी में नीबू निचोड़कर उसमें थोड़ा नमक मिलाकर थोड़ा थोड़ा पिलाने से फ़ायदा होता है.
जब इमरजेंसी में कोई दवा पास न हो और डाक्टर भी आसानी से न मिल सकता हो तो ये साधारण प्रयोग उल्टी दस्त के मरीज़ की जान बचा सकता है.
नीबू का बीज पत्थर पर घिसकर पिलाने से भी उल्टी रुक जाती है. ये अचूक  प्रयोग है.
 नीबू में ब्लड को डिटॉक्स करने या खून साफ़ करने के गुण हैं. विशेषकर खून में से ये अत्यधिक पित्त को घटाता है. इसलिए ये लिवर के रोगों में जहां ब्लड में पित्त की मात्रा बढ़ गयी हो अचूक दवा है.
सुबह खाली ली पेट नीबू का गर्म पानी के साथ इस्तेमाल चुस्ती फुर्ती लता है. वज़न कम  करने में सहायक है.
नीबू का छिलका अंदर की तरफ से दांतों और मसूढ़ों पर मलने से गंदगी को साफ़ करता है और मसूढ़ों की सूजन घटाता है. ये शुरू के पायरिया और दांतों से खून आने में मुफीद है.
अजीब बात है की नीबू एसिड होते हुए भी एसिडिटी के लिए अचूक दवा है. एसिडिटी के मरीज़ों के लिए ज़रूरी है की वह खाना खाने से ठीक आधा घंटा पहले आधा कप पानी में आधा नीबू निचोड़कर पी लें. ऐसा करने से एसिडिटी से निजात मिल जाती है.
ये प्रयोग उन लोगों पर आज़माया जा चुका है जो एसिडिटी के पुराने मरीज़ थे और एन्टासिड जेल और टैबलेट खाकर तंग आ चुके थे.  

शनिवार, 18 जुलाई 2020

देसी दवाओं की नाकामी

जिन जड़ी बूटियों के चमत्कार के बारे में हम पढ़ते, सुनते हैं उनका वैसा फ़ायदा नहीं मिलता. क्या देसी जड़ी बूटियों में अब वह गुण नहीं रह गए हैं जो चमत्कार करते थे. या वह हकीम/वैद्य नहीं रहे जिन्होंने घास फूस से बड़े बड़े मर्ज़ ठीक किये थे.
देसी दवा क्यों फ़ायदा नहीं करती ये प्रश्न अक्सर पूछा जाता है और इसका संतोषजनक उत्तर न मिलने से जड़ी बूटियों और देसी चिकत्सा विज्ञान से लोगों का भरोसा उठ जाता है.
प्रत्येक चिकत्सा विज्ञान की तकनीक और उसके विशेष रहस्य होते हैं. दवाओं का पढ़ना, समझना और जानना एक अलग कार्य है उनके प्रयोग की तकनीक एक अलग विषय है.
जड़ी बूटी का सही प्रयोग और प्रयोग का सही समय समझना बहुत ज़रूरी है. एक व्यक्ति जो रीढ़ की हड्डी के दर्द और जोड़ों की कड़कड़ाहट (जोड़ों से आवाज़ निकलना) से परेशान था शहर के मशहूर हकीम के पास गया. अक्टूबर का महीना था, सर्दी की शुरुआत हो चुकी थी. हकीम ने कहा तुम होली के बाद आना तब तुम्हारा इलाज करेंगे. ये हकीम ऐसे थे जो फलों और रोज़ इस्तेमाल में आने वाली चीज़ों जैसे धनिया, पुदीना, इमली आदि से इलाज करते थे. दवा से इलाज उनके पास नाम मात्र का था. मरीज़ों को इतना लाभ होता था की उनकी दुकान पर सुबह 4 बजे से लाइन लग जाती थी. सस्ता ज़माना था, उनकी फीस मात्र 5 रूपये थी और वह भी गरीबों से नहीं लेते थे. पहले के हकीम वास्तव में इंसानियत की सच्ची सेवा करते थे.
होली की बाद जब वह मरीज़ हकीम  के पास गया और हाल बताया  तो हकीम साहब ने उसे एक फल पर काली मिर्च का पाउडर, थोड़ी सी शकर, थोड़ा सा नमक छिड़ककर खाने को बता दिया. इस दवा ने चमत्कारी लाभ किया. वही मरीज़ पहले इंजेक्शन भी लगवा चुका था और बहुत सी दवाएं खा चुका था.
अब सवाल पैदा होता है क्या वह फल जो हकीम ने बताया अक्टूबर के महीने में नहीं मिलता था. फल ऐसा था जो लगभग साल भर बाजार में मिलता था. अक्टूबर में भी इस्तेमाल किया जा सकता था. लोग उसे खाते थे. उसके दवाई गुण लोगों और हकीमों को भी पता नहीं थे. लेकिन दवा के  सही समय के प्रयोग ने चमत्कार किया था.
यही हकीम साहब जिस फल वाले से फल खरीदते थे एक दिन वह अपनी दुकान जल्दी बढ़ा रहा था. उन्होंने पूछा आज दूकान जल्दी क्यों बंद कर रहे हो. फल वाले ने कहा सर में दर्द है, बुखार सा लग रहा है. जाकर डाक्टर को दिखाऊंगा. हकीम साहब बोले दवा तुम्हारे पास है तो  डाक्टर को दिखने की क्या ज़रुरत है. अभी दवा इस्तेमाल करो और ठीक हो जाओ.
हकीम साहब ने एक फल का रस निचोड़कर उसमें काली मिर्च का पाउडर डालकर पीने को बता दिया. हकीम साहब अपने घर चले गये. मरीज़ ने फल का जूस पिया और उसका दर्द और बुखार ठीक हो गया.
लगभग दो हफ्ते बाद हकीम साहब फिर उसकी दुकान पर पहुंचे. वह दुकान पर बैठा बुरी तरह खांस रहा था.
उनहोंने पूछा क्या हाल है. दुकानदार बोला हकीम जी उस दिन आपके बताये फल के जूस से बहुत फ़ायदा हुआ. दर्द और बुखार ठीक हो गया. दो तीन दिन पहले फिर वैसे ही सर में दर्द हुआ और बुखार सा लगने लगा. मैंने वही आपका बताया जूस इस्तेमाल किया. उससे बुखार और बढ़ गया. सीना जकड गया. डाक्टर को दिखाया. बुखार तो चला गया लेकिन खांसी बहुत आ रही है.
हकीम साहब ने कहा - एक ही दवा क्या हर मौसम में फ़ायदा करेगी?
जिस तरह दवा की प्रयोग में समय या मौसम का संयोग ज़रूरी है उसी तरह दवा की हार्वेस्टिंग, उसे तोड़ने, उखाड़ने, सुखाने में भी उचित समय का ध्यान रखा जाना चाहिए.
कुछ दवाएं जैसे बबूल की फली कच्ची प्रयोग की जाती हैं. दवा के लिए ऐसी बबूल के फली चाहिए जिसमें बीज न पड़ा हो, यदि पड़ गया हो तो कच्ची अवस्था में हो. पक्की फली जिसमें बीज पक चुका हो काम की नहीं है.
इसके उलट सिरिस की फली जब उसका बीज पक जाए तब काम की होती है. लेकिन सिरिस के फली पकते ही चटक कर खुल जाती है और बीज बिखर जाते हैं. अब दो तरीके हैं. पहला सिरिस के पेड़ों के नीचे से बीज बीने जाएं. या फिर फली जब पकने के करीब हो लेकिन पूरी पकी न हो तोड़ ली जाए और धूप में सुखाकर बीज इकठ्ठा किये जाएं.
इन सबके लिए मौसम की जानकारी ज़रूरी है. बबूल की कच्ची फली इकठ्ठा करने के लिए पता लगाएं बबूल के पेड़ कहां हैं. कच्ची फलियां अप्रैल से मई तक मिल सकती हैं. ये भी देखा जाए वह पेड़ देसी बबूल का है, या विदेशी बबूल है जिसकी फली तलवार की तरह मुड़ी हुई होती है. दवा में जिस  बबूल की ज़रुरत है उसकी फली की शक्ल आप इसी ब्लॉग   बोया पेड़ बबूल का   में देख सकते हैं.
सिरिस के पक्के बीज फरवरी से मार्च तक मिल सकते हैं. अप्रैल में भी ये बीज इकठ्ठा किये जा सकते हैं.
इसी तरह पेड़ो की जड़ों को उखाड़ने में भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि जड़ें कब ली जाएं. सेमर के दो वर्ष के पेड़ की जड़ दवा में प्रयोग की जाती है. एक वर्ष के पेड़ की जड़ में वह गुण नहीं होता जिसकी ज़रुरत है. अधिक पुरानी जड़ों के गुण भी छीण हो जाते हैं. मुलेठी के भी दो वर्ष के पौधों के जड़ उपयोगी है.
फूल, पत्ती और छाल के पेड़ों से लेने का समय और पेड़ की आयु की जानकारी ज़रूरी है.
अब आता है दवाओं में मिलावट और गलत पहचान का सवाल. दवाओं में जान बूझ कर मिलावट की जाती है. कुछ दवाओं में खर पतवार मिल जाती है. कुछ दवाएं गलत पहचान के कारण प्रयोग करने से फ़ायदा नहीं करतीं. गलत पहचान कभी कभी गंभीर नुकसान कर सकती है.
एक मोहतरमा ने अपने रिश्तेदार को जो पेचिश के मरीज़ थे, चुनिया गोंद दही में मिलकर खाने को कहा. उनहोंने चुनिया गोंद पंसारी की दुकान से मांगकर दही के साथ खाया. पेचिश बहुत बिगड़ गयी. अस्पताल में भर्ती होना पड़ा और मसूढ़ों के इंफेक्शन से दांत भी गिर गये.
ऐसे बहुत से कारण हैं जिसकी वजह से दवाएं फायदा नहीं करतीं. और लोग देसी चिकित्सा पद्धति को बदनाम करते हैं.
इसके आलावा दवाओं के बनाने में भी कुछ रहस्य हैं. किसी महोदय ने एक हकीम से नुस्खा लिखवा लिया कि दवा वह खुद बना लेंगे. नुस्खा कुछ इस प्रकार था:
(1) बादयान नीम-ब्रशत  (2)सातर फ़ारसी,  (3) शाजन्ज हिंदी, (4) मस्तगी रूमी, सबका सफूफ बना लें.
सुबह शाम 3 माशा खाएं.
मरीज़ ने बाजार से दवा मंगवाई. बादयान नीम-ब्रशत के नाम पर सौंफ मिली. बादयान हकीम लोग सौंफ को लिखते हैं. अब रह गया नीम-ब्रशत, ये दवा का एक प्रकार का ट्रीटमेंट था जो मरीज़ को पता नहीं था. सातर फ़ारसी एक प्रकार का पहाड़ी पोदीना था, शाजन्ज हिंदी वही तेजपात था जिसे खाने की डिश में प्रयोग किया जाता है. मस्तगी रूमी एक प्रकार का सुगन्धित गोंद था.
मरीज़ ने बिना नीम-ब्रशत किये सौंफ और बाकी तीन दवाएं कूटना शुरू कर दीं. मस्तगी रूमी ने चिपककर सारी दवाओं का एक गोला सा बना दिया. अब ये चिपचिपा पदार्थ न तो कूट सकता था न पीसा जा सकता था. उसे दवा बनाने की  तरकीब मालूम नहीं थी. इसलिए सब दवाएं आखिर में फेंकना पड़ीं.
दवाओं के नाम में भी भ्रम हो जाता है. तालमखाना और फूल मखाना के नाम से सभी वाकिफ हैं. ये गोल गोल भुने हुए बीज जिन्हे फॉक्स नट कहते हैं, मेवे के रूप में घरों में इस्तेमाल किये जाते हैं. दवाओं में भी पड़ते हैं. लेकिन इसी  कॉमन नाम तालमखाना से एक दूसरी दवा भी है जो एक छोटे आकार का बीज है. ये बीज एस्टरकेंथा लांगीफोलिया एक अलग चीज़ है. जिसे दवाओं के बारे में ज्ञान नहीं है वह तालमखाना पढ़कर जब दवा खरीदेगा तो दुकानदार का नौकर उसे वही कॉमन मखाना दे देगा.
कुछ लोग फूल मखाना को कमल के भुने हुए बीज समझते हैं. लेकिन कमल का बीज एक अलग चीज़ है. ये बीज भी दवाओं में इस्तेमाल होते हैं. तब इसे कमलगट्टा कहते हैं. कमल के बीजों का आवरण बहुत सख्त होता है.
कुछ दवाएं महंगी होने की वजह से उनका बदल प्रयोग किया जा रहा है. गुलबनफ्शा, जिसे गुलबनक्शा भी कहते हैं, एक महंगा फूल है. ये ठन्डे और पहाड़ी स्थानों का पौधा है. गुलबनफ्शा के स्थान पर बर्ग बनफ्शा, या बनफ्शा की सूखी पत्तियां इस्तेमाल की जा रही हैं.  इन पत्तियों में भी घास फूस की मिलावट होती है. पुरानी होने की वजह से भी इनका लाभ नहीं मिलता. देसी चिकित्सा पद्धति बदनाम होती है.
हकीमों और वैद्यो ने इसका भी तोड़ निकाला, उन्होंने इसकी जगह जोशांदे में हंसराज इस्तेमाल करना शुरू किया. हंसराज सस्ती दवा है. लेकिन ये बूटी भी मिलावट से बची नहीं है. दूसरी बात वही पत्तियों का पुराना होना है जिससे असर कम हो जाता है.



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