बुधवार, 25 दिसंबर 2019

हस्त चिंघाड़ का पौधा

गोखरू एक कांटेदार फल है. इसे हस्त चिंघाड़ भी कहते हैं. ये ज़मीन पर फैलने वाला पौधा है और बरसात के मौसम में खाली पड़े स्थानों और खेतो में उगता है. इसकी पत्तियां भी इमली, बबूल और छुईमुई की तरह होती हैं. इसमें पीले रंग के फूल खिलते हैं और फिर कांटेदार फल लगते हैं. इन फलों को ही गोखरू के नाम से जाना जाता है.
छोटा गोखरू साइंस की भाषा में ट्रिब्यूलस टेरेसट्रिस और बड़ा गोखरू पेडालिअम म्यूरेक्स के नाम से जाना जाता है.
बरसात गुजरने के बाद इसका पौधा सूख जाता है. जंगलो में हाथियों के पैरो में गोखरू चुभ जाते है तो हाथी दर्द से चिल्लाता है इसीलिए इस पौधे को हस्त चिंघाड़ के नाम से जाना  जाता है. गोखरू आम तौर से दो प्रकार का होता है. एक छोटा गोखरू और एक बड़ा गोखरू. दोनों दवाओं में काम आते है.


गोखरू बहुत लम्बे समय से दवाई के रूप में इस्तेमाल हो रहा है. हकीमी और आयुर्वेदिक डावाओ का ये मुख्य अव्यव है. इसे आम तौर से पेशाबआवर या डाइयुरेटिक दवा के रूप में प्रयोग किया जाता है. गोखरू खून को साफ़ करता है और गुर्दे के रोगों में फायदेमंद है.गोखरू जल्दी बुढ़ापा नहीं आने देता. सही अनुपान के साथ इस्तेमाल करने से इसके फायदे मिलते हैं. ये शरीर को बलशाली बनता है. महिलाओ और पुरुषो दोनों के लिए प्रजनन शक्ति को बढ़ाने वाला है. इसका 3 से 5 ग्राम पाउडर दिन में तीन बार तक सादे पानी से या दूध से इस्तेमाल किया जा सकता है.
गोखरू की पत्तियों का साग भी खाया जाता है. इसकी सब्ज़ी बनाकर खाने से गुर्दे के रोगों में विशेषकर यूरिक एसिड घटाने और जोड़ों के दर्दों में आराम मिलता है. बरसात के महीनों में जुलाई से लेकर सितंबर तक इसके पौधे खेतों में मिल जाते हैं. बरसात ख़त्म होने पर इसका पौधा सूखने लगता है और इसके फल जिसे गोखरू कहते हैं बिखर जाते हैं. इन्हीं फलों से आगामी बरसात में गोखरू के पौधे उगते हैं. कहते हैं गोखरू का साग गरीबों का भोजन है और इसका फल गरीबों के लिए मुफ्त में मिलने वाली दवा है. प्रसूता स्त्री के लिए गोखरू के चूर्ण को भुने हुए गेहूं के आटे में मिलकर उसमें भुना हुआ बबूल का गोंद डालकर लड्डू बनाकर खाने से न सिर्फ हड्डियां मज़बूत होती हैं बल्कि ये दशमूल जैसे काढ़े का काम भी करता है.  


शनिवार, 21 दिसंबर 2019

शर्मीला पौधा छुईमुई

 छुईमुई ऐसा पौधा है जो छूने से कुम्ल्हा जाता है. इसकी पत्तियां हाथ लगने, हवा चलने या किसी भी बहरी प्रभाव से बंद होकर सिमट जाती हैं. इसीलिए इसे छुईमुई, लाजवंती, लज्जावती, लजालू, टच मी नाट के नाम से भी जाना जाता है. इसका साइंटिफिक नेम मिमोसा पुडिका है.
ये पौधा खाली पड़े स्थानों, सड़को के किनारे उगता है और  में भी लगाया जाता है. ये ज़मीन पर बेल की तरह फैलता है. इसकी पत्तियां इमली या बबूल से मिलती जुलती होती हैं. लेकिन पत्तियों का आकार छोटा होता है. इसमें प्याज़ी रंग का छोटा सा गोल फूल खिलता है जिसकी पंखुड़ियां बारीक़ धागों जैसी होती हैं. इसमें छोटी फली लगती है जिसमें बारीक़ बीज भरे होते हैं.
ये पौधा लम्बे समय से दवाई के रूप में प्रयोग किया जा रहा है. इसकी पत्तियों का पेस्ट बनाकर गर्म करके फोड़े पर बांधने से पुल्टिस का काम करता है और फोड़े जल्दी पककर फूट जाता है. इसकी पत्तियों का यही पेस्ट घाव को भरने का काम भी करता है.
छुईमुई में खून के बहाव को रोकने का गुण  है. इसे पाइल्स के खून को रोकने और सूजन घटाने में प्रयोग किया जाता है. इसके लिए इसकी जड़ का चूर्ण 3 से 6 ग्राम की मात्रा में घी के साथ सुबह शाम लेने से आराम मिलता है. स्थानीय तौर पर इसकी पत्तियों को पीसकर लगाने से भी पाइल्स के दर्द और खून आने में फ़ायदा होता है.
अजीब बात है कि छुईमुई की सूखी पत्तियों को अगर तकिये में भर दिया जाए तो उस तकिये के इस्तेमाल से अच्छी नींद आती है और उन लोगों  के लिए अच्छा है जो नींद न आने की बीमारी से ग्रसित है या वो बच्चे जो रातों में ठीक से सो नहीं पाते.
इसकी जड़ को पानी में उबालकर कुल्ला करने से दांतो के दर्द और मसूढ़ों की सूजन में लाभ मिलता है.
कहते है कि छुईमुई में सांप के ज़हर को दूर करने का गुण है. जंगल में अगर सांप काट ले तो इसकी पत्तियों को खाने से और पत्तियों को चबाकर घाव पर लगाने से ज़हर का प्रभाव दूर हो जाता है.

शुक्रवार, 22 नवंबर 2019

उदास पौधा हारसिंघार

हरसिंघार, हारसिंघार, शेफाली, परिजात रात को खिलने वाला पौधा है. इसके फूलों की एक विशेष गंध होती है. फूल का रंग सफ़ेद और फूल की डंडी का रंग पीला, नारंगी होता है. रात में खिलने के बाद सुबह को इसके फूल पेड़ से गिर जाते हैं. दिन में इस पौधे में फूल खिले हुए दिखाई नहीं देते. कुछ लोग इसके इस गुण के कारण इसे नाइट जैस्मिन, रात की चमेली या रात की रानी भी कहते हैं. लेकिन रात की रानी के नाम से एक और पौधा होता है जिसके फूल भी सफ़ेद होते हैं उनमें भी सुगंध होते है लेकिन उनकी सुगंध हरसिंगार से अलग है.
कहते हैं हारसिंघार उदास पौधा है. लोग इसे घरों में लगाना पसंद नहीं करते. ये एक मध्य आकार का पेड़ है. बरसात के बाद सितम्बर अक्टूबर में इसके फूल खिलना शुरू हो जाते है. सुबह को इसके पेड़ के नीचे पड़े हुए सफ़ेद फूलों से इस पौधे की पहचान आसानी से की जा सकती है. फूलों की डंडी से केसर जैसा रंग प्राप्त होता है. ये रंग सुगन्धित भी होता है और दवाई के रूप में भी प्रयोग किया जाता है.

तीन बोतल मिटटी का तेल और दर्द का इलाज 

किसी आफिस के एक क्लर्क तीन बोतल मिट्टी का तेल और 50 ग्राम काली मिर्च लेकर जोड़ो के दर्द, विशेषकर श्याटिका पेन या अरकुन्निसा के दर्द का काढ़ा बनाकर देते थे. ये सामान वे शनिवार को लेते थे और रविवार को दवा बनाते थे. तीन बोतल मिट्टी  के तेल के बदले तीन बोतल काढ़ा देते थे और उस काढ़े को आधा आधा कप दिन में दो बार पीने को कहते थे. एक से डेढ़ महीने में श्याटिका पेन से पीड़ित मरीज़ हिरण हो जाता था.
उनके स्वर्गवासी होने के बाद उनकी पत्नी भी तीन बोतल मिट्टी का तेल लेकर ये दवा बनाकर लोगों का इलाज करती रहीं. फार्मूला ये था की तीन बोतल मिट्टी का तेल वह स्टोव में जलाते थे. लगभग एक किलो हरसिंगार के पत्ते लेकर छोटे टुकडे  कर लेते थे और 50 ग्राम काली मिर्च मोटी मोटी कुचलकर दोनों चीज़ों को लगभग पांच लीटर पानी में डालकर स्टोव पर चढ़ा देते थे. हलकी आंच पर इतना पकाते थे की पानी जलकर आधा रह जाए. बस दवा का काढ़ा तैयार हो गया. इस काढ़े को ठंडा करके छानकर बोतलों में भर देते थे. यही श्याटिका पेन के बढ़िया दवा थी. लोग दूर दूर से उनका नाम सुनकर काढ़ा बनवाने आते थे.
पहले लोग अपना समय लगाकर बिना किसी लालच के लोगों की भलाई और दुखी इंसानियत की सेवा किया करते थे अब मरीज़ो को लूटने और अधिक से अधिक पैसा कमाने का धंदा बना रखा है. श्याटिका पेन ऐसा मर्ज़ है जो आसानी से काबू में नहीं आता. लोग दवा खाते खाते तंग आ जाते हैं. कुछ लोगों के मैंने बिस्तर पर पड़े देखा है. दर्द इतना बढ़ जाता है की उठना बैठना मुश्किल हो जाता है. हरसिंगार का केवल एक गुण ही ऐसा अजीब है जो लाख दवाओं पर भारी है.
हरसिंगार केवल श्याटिका पेन के लिए ही लाभकारी नहीं है. ये गठिया की भी बढ़िया दवा है. यही काढ़ा गठिया के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है.  लेकिन तब इसकी मात्रा 1 /4  कप काढ़ा दिन में दो से तीन बार पीना चाहिए. हरसिंगार बुखारों और बुखारों के बाद के जोड़ों के दर्दो के लिए भी फायदेमंद है.
दवा के रूप में आम तौर से इसके पत्ते ही प्रयोग किये जाते हैं. छाल और बीज का प्रयोग आम लोग न करें इसे काबिल हकीम और वैद्य की सलाह पलर छोड़ दें. इनका इस्तेमाल नुकसान कर सकता है.
हरसिंगार एक सुन्दर और सुगन्धित पौधा ही नहीं दर्द से कराहते हुए लोगों का इलाज भी है.




मंगलवार, 19 नवंबर 2019

दुर्लभ बूटी नाग छतरी

नाग छतरी एक बूटी है जो पहाड़ो की ऊंचाइयों पर पैदा होती है. ये बूटी अब विलुप्त होने के कगार पर है क्योंकि इसे बहुत अधिक मात्रा में पहाड़ी चट्टानों से निकाला गया है. इसका साइंटिफिक नाम  trillium govanianum है. ये तीन पत्ती की बूटी है जिस पर गहरे लाल ब्राउन रंग का फूल खिलता है. अपनी अजीब शक्ल के कारण ये आसानी से पहचानी जा सकती है.
हिमालय में ये बूटी पायी जाती है और इसका भी जंगलों से अत्यधिक मात्रा में अवैध रूप से दोहन हुआ है. ये कैंसर रोधी है इसकी जड़ दवा के रूप में काम आती है. इस जड़ी बूटी में सूजन को घटाने के गुण हैं. ये जर्म्स  को नष्ट करती है. इसमें फफूंदीनाशक गुण भी है. कुल मिलकर ये ऐसे सभी रोगों में असरकारक है जिनमे सूजन, घाव, जर्म्स या फंगस का प्रकोप हो.
इसके अतिरिक्त इस जड़ी बूटी को पुरुषत्व की दवाई बनाने में भी प्रयोग किया जा रहा है. इसलिए इसकी मांग बढ़ती जा रही है.

चट्टानी बूटी ज़ख्म-ए-हयात

ज़ख्म-ए-हयात चट्टानों पर उगने वाली जड़ी बूटी है. हिमालय बहुत से दुर्लभ पौधों का घर है. पहाड़ो के दामन में चमत्कारी जड़ी बूटियां उगती हैं.  ज़ख्म-ए-हयात उनमें से एक है.
इसका साइंटिफिक नाम bergenia ciliata है. ये पौधा चट्टानों की दरारों में उगता है. इसमें गुलाबी और सफ़ेद फूल खिलते हैं. पहले दुर्लभ जड़ी बूटियां भी आसानी से मिल जाती थीं. लेकिन जबसे पैसे के लालच में जंगलो का दोहन शुरू हुआ जड़ी बूटियों और दुर्लभ पौधों पर संकट गहरा गया. इन पौधों के चोरी छुपे उखाड़ने से न सिर्फ पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है बल्कि इनके लुप्त होने का खतरा भी पैदा हो गया है.
ज़ख्म-ए-हयात में फरवरी से अप्रैल तक फूल खिलते है. अपने गुलाबी सफ़ेद फूलों से ये पौधा आसानी से पहचाना जा सकता है. पत्ते गहरे हरे रंग के होते हैं. इसकी जड़ चट्टानों में गहरी जाती है. जड़ भी दवाई के काम में आती है. ज़ख्म-ए-हयात घावों को ठीक करती है इसका नाम ही घावों से जुड़ा है. इसके अलावा ये ठण्ड के असर, नज़ला ज़ुकाम और खांसी में भी फैयदेमन्द है. इसका स्वभाव गर्म है. पेट के रोगों में लाभ करती है.
ज़ख्म-ए-हयात एक गुणकारी बूटी है। 

शनिवार, 16 नवंबर 2019

सोने की चिड़िया और काली मिर्च

 कहा जाता है कि भारत कभी सोने की चिड़िया कहलाता था. यहाँ इतनी दौलत थी कि दूर दूर के देशों की निगाह भारत पर लगी रहती थी. भारत को सोने की चिड़िया बनाने में भारत के दक्षिण में उगने वाले मसालों का बड़ा योगदान था और इसमें काली मिर्च प्रमुख थी.


भारत काली मिर्च का घर था. काली मिर्च राज घरानो में प्रयोग की जाती थी. इसका मिलना आसान नहीं था. अरब व्यापारियों ने सबसे पहले समुद्र के रस्ते से भारत से मसालों का व्यापर करना शुरू किया.  योरुप के व्यापारी भारत के  समुद्री रास्ते से वाकिफ नहीं थे. भारत की खोज करते करते कोलम्बस ने 1492 में नयी दुनिया की खोज की जिसे आज अमरीका के नाम से जाना जाता है.
काली मिर्च और मसालों के वयापार ने योरुप को भारत की ओर आकर्षित किया क्योंकि इनके व्यापर में बहुत पैसा था. इतिहास में कभी काली मिर्च सोने के भाव भी बिकी है.


काली मिर्च का स्वाद तीखा होता है. इसका स्वाभाव गर्म और खुश्क है. ये सर्दी ज़ुकाम को दूर करती है. पेट के लिए फायदेमंद है और मेमोरी को बढाती है.
काली मिर्च कई प्रकार के पेट के कैंसर जैसे आंतो का कैंसर, कोलोन और रेक्टम के कैंसर से बचाती है. प्रोस्टेट कैंसर की लिए भी ये बचाव करती है.
जिन्हे कब्ज़ की शिकायत हो, जोड़ो में दर्द हो, वज़न बढ़ गया हो उनके लिए अमरुद  पर पिसी हुई काली मिर्च छिड़ककर खाने से लाभ होता है. ये प्रयोग नियमित 3 माह तक करना चाहिए.
काली मिर्च को केवल मसालों में ही नहीं बल्कि दवाओं के दुष्प्रभाव दूर करने के लिए भी प्रयोग किया जाता है. ब्राह्मी का सुरक्षित प्रयोग काली मिर्च के साथ किया जाता है. ब्राह्मी का चूर्ण एक ग्राम सामान मात्रा में काली मिर्च और बादाम की गिरी का चूर्ण मिलाकर दूध के साथ प्रयोग करने से मेमोरी बहुत बढ़ जाती है. इस तरह इस्तेमाल करने से ब्राह्मी का ठंडापन निकल जाता है और उसका पूरा लाभ मिलता है. 
इसी प्रकार बुखार की आयुर्वेदिक दवा में भी तुलसी के पत्ते काली मिर्च के साथ पीसकर सेवन करने से लाभ मिलता है. 


शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

ब्रेन टॉनिक ब्रह्मी

ब्रह्मी एक प्रसिद्ध बूटी है. इसे ब्रेन टॉनिक कहा जाता है. वेदों और संस्कृत की किताबों को याद करने वाले ब्रह्मी का प्रयोग करते थे. ये मेमोरी को बढाती है. दिमाग को एक्टिव बनाती है. इससे सोचने, समझने और याद रखने की शक्ति बढ़ जाती है.
ब्रह्मी और दिमाग की दूसरी जड़ी बूटी शंखपुष्पी दोनों ठंडी हैं. कूल माइंड या ठन्डे दिमाग से ही ठीक प्रकार से सोचा समझा जा सकता है. इसलिए नेचर ने ये दवाएं ठंडी बनायी हैं.
ब्रह्मी को नीर ब्रह्मी और जल ब्रह्मी भी कहते हैं. इसका पौधा पानी के किनारे या उथले पानी वाली जगहों पर उगता है. ब्रह्मी को गीला यानि नम और गर्म वातावरण पसंद है. ये पानी में भी उग आती है. गंगा के किनारे पहाड़ों के दामन की ब्रह्मी उत्तम मानी जाती है. इसका स्वाद कड़वा होता है. इसके पत्ते कुल्फे के पत्तों से मिलते जुलते मोटे दल वाले होते हैं. ध्यान रहे कि ब्रह्मी के पत्ते कंगूरेदार या लहरदार नहीं होते. एक और बूटी है जिसे मण्डूकपर्णी  कहते हैं. लोग इसे ही आम तौर से ब्रह्मी समझते हैं. इसके पत्ते गोलाईदार और कंगूरेदार या लहर वाले किनारों वाले होते हैं. इसके गुन ब्रह्मी से मिलते जुलते होते हैं. इसलिए असली आयुर्वेद वाली ब्रह्मी को नीर ब्रह्मी कहा गया है जिससे मण्डूकपर्णी न समझा जाए.
 मण्डूकपर्णी का साइंटिफिक नाम Centella asiatica  है जबकि ब्रह्मी का साइंटिफिक नाम Bacopa munnieri  है. दोनों अलग अलग पौधे हैं.

ब्रह्मी को काली मिर्च के साथ प्रयोग किया जाता है. थोड़ी मात्रा में ब्रह्मी को  दूध के साथ नियमित सेवन करने से मेमोरी बहुत बढ़ जाती है. भूली हुई बातें याद आने लगती हैं और पढ़ा हुआ याद करना आसान हो जाता है. ये याददाश्त की खराबी, अल्ज़ाइमर बीमारी और मिर्गी से बचाती है. घबराहट और एंग्जाइटी को ठीक करती है. दिमाग के साथ साथ शरीर को ठंडा रखने और ब्लड प्रेशर घटाने में इसका अहम् रोल है.

ब्रह्मी सभी को सूट नहीं करती. अजीब बात है कि ब्रह्मी का अधिक इस्तेमाल ज़बरदस्त उलटी लाता है, पेट के सिस्टम को बिगाड़ देता है और सर में चक्कर आने लगते हैं. कुछ लोगों में इसके थोड़े से इस्तेमाल से ही उलटी जैसी तकलीफे पैदा हो जाती हैं.
ब्रह्मी का तेल बनाकर बालों में लगाने से बाल बढ़ते हैं और बालों का गिरना बंद हो जाता है.
आयुर्वेद में ब्रह्मी  का सुरक्षित इस्तेमाल ब्रह्मी घृत या ब्रह्मी  घी के रूप में किया जाता है. गाय के घी में ब्रह्मी  का रस डालकर पका लिया जाता है और फिर इस घी को इस्तेमाल करते हैं. ये ब्रह्मी  प्रयोग करने का सबसे सुरक्षित तरीका है


महुआ

महुआ एक ऐसा वृक्ष है जिसके फूल, फल और बीज का प्रयोग खाने में किया जाता  है.  गांव के लोग  इसके फूलों का प्रयोग करते हैं. इसके फूल अजीब होते हैं. ये अंगूर के आकर के सफ़ेद और मोटे दल वाले होते हैं. रात में खिलते हैं और सुबह को गिर जाते हैं. मार्च अप्रैल में महुए के पेड़ के नीचे सफ़ेद सफ़ेद अंगूर जैसे फूल पड़े होते हैं, इन्हे ही महुआ कहते हैं.

महुए स्वाद में मीठे होते हैं. इनमे मीठी मीठी एक अजीब सी गंध आती है जिसे हीक कहा जाता है. 

यही महुए सुखा  लिए जाते है. सूखने पर ये लाल भूरे रंग के हो जाते हैं. इनकी बाजार में अच्छी कीमत मिल जाती है. बहुत मीठा होने के कारण लोग इन्हे खाते  भी हैं. इनका दवाई गुण ये है कि ये शरीर को पुष्ट बनाते हैं. बल को बढ़ाते है. ये रेप्रोडक्टिव सिस्टम को मज़बूत करते है. वीर्य की मात्रा और गाढ़ापन बढ़ाते हैं. 
महुए का स्वभाव गर्म तर है. जिन्हे नज़ला ज़ुकाम रहता हो, जिनका शरीर दुर्बल हो, जिनके जोड़ों में चिकनाई की कमी हो उनके लिए ताज़े या  सूखे महुए का सेवन कमाल का परिवर्तन लाता है. महुआ खाने वाले से ज़ुकाम और सर्दी दूर भागती है.


महुए ताज़े जो पेड़ों से गिरते हैं चाव से खाये जाते हैं. दूध में मिलकर इसकी खीर भी बनाई जाती है. सूखे महुए भी खाने में प्रयोग होते हैं. गरीब लोग महुए से पेट भरते है. रोटी के साथ खाते हैं. इसे मीठे की तरह प्रयोग करते हैं.
इनके फलो की सब्ज़ी बनाकर खायी जाती है. कहीं इनके फलों को गुलहंदे भी कहते हैं.
महुए के बीज में बहुत तेल होता है. इसके तेल का प्रयोग साबुन बनाने में होता है. ये खाने के काम भी आता है. लेकिन इस तेल में भी मीठी गंध यानि हीक आती है. इसके लिए महुए के तेल को गर्म करके उसमें नीबू का रस डालकर पकाते हैं. उस तेल में फिर हीक नहीं आती और ये तेल पूड़ी पकवान बनाने के काम आता है.
महुआ एक ऐसा वृक्ष है जिससे पेट भी भरता है। बीमारियां भी दूर होती  हैं 

बुधवार, 30 अक्तूबर 2019

मुलेठी एक झाड़ीदार पौधा है

मुलेठी एक झाड़ीदार पौधा है. इसे गर्म और तर जलवायु चाहिए. इसे आयुर्वेद में यष्टिमधु और हिंदी उर्दू में मुलेठी कहते हैं. इसका अंग्रेजी नाम लिकोरिस और साइंटिफिक नाम ग्लीसरहिज़ा ग्लाब्रा है. इसकी जड़ दवा के रूप में प्रयोग की जाती है.
 मुलेठी की जड़े पौधा लगाने के दो साल बाद निकालने के लिए तैयार हो जाती हैं. इन्हे खोदकर छोटे टुकड़ो में काटकर सुखा लिया जाता है. मुलेठी की जड़ो  का रंग पीला और स्वाद मीठा होता है.
मुलेठी का सबसे बड़ा फायदा इसकी बलगम निकालने का गुण है जिसे जड़ी बूटी से थोड़ा सा लगाव रखने वाले सभी लोग जानते हैं. इसलिए ये एक्सपेक्टोरेन्ट के रूप में प्रयोग की जाती है. देसी, आयुर्वेद और हकीमी दवाओं में ये खांसी की मुख्य दवा के रूप में इस्तेमाल होती  है. जोशांदे में जो नज़ला, ज़ुकाम और कफ के लिए प्रयोग किया जाता है मुलेठी की जड़ को कूटकर डाला जाता है और अन्य दवाओं के साथ उबालकर पिया जाता है.


बच्चो के दांत निकलने के ज़माने में मुलेठी की जड़ को पानी में भिगोकर कुछ नरम करके बच्चे के हाथ में पकड़ा देते हैं जिससे बच्चा उसे बेबी टीथर की तरह चूसता रहे. इसके न सिर्फ दांत आसानी से निकल आते हैं, बच्चो को खांसी, ज़ुकाम और पेट की तकलीफे भी नहीं होती हैं.
मुलेठी पेट की भी अच्छी दवा है. ये आंतो को शक्ति देती है. दस्तों को बंद करती है, पेचिश में फायदेमंद है. इसका विशेष अजीब गुण ये है की ये कब्ज़ में भी लाभकारी है.
मुलेठी नर्वस सिस्टम की भी बड़ी दवा है. इसके पाउडर को दूध के साथ नियमित प्रयोग करने से नर्वस सिस्टम मज़बूत हो जाता है. डिप्रेशन जाता रहता है. शरीर की मांस पेशियां भी शक्तिशाली बनती हैं. इसके लिए मुलेठी को इमाम दस्ते (हावन दस्ते) में अच्छी तरह कूटकर पाउडर बनाले. और छानकर इसके रेशे निकाल दें. ये पाउडर 3 से 6 ग्राम की मात्रा में दूध के साथ रोज़ 3 से 4 महीने इस्तेमाल करने से निश्चित ही लाभ होता है.
मुलेठी का स्वाभाव गर्म खुश्क है. ये शरीर में खुश्की पैदा करती है. तर या गीली खुजली और स्किन की बीमारियों में भी लाभदायक है.
मुलेठी की जड़ के ऊपरी छिलके  में कुछ ऐसे तत्व है जो सेहत के लिए लाभदायक नहीं हैं. इसलिए हकीम लोग इसकी ऊपरी छाल को हटाकर अंदर की लकड़ी प्रयोग करते हैं.

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2019

पेठा एक जाना माना फल है

पेठा एक जाना माना फल है. इसे कुम्हड़ा और कुम्हड़ा भी कहते हैं. इसका नाम कुष्मांडा भी है लोग पेठे का प्रयोग मिठाई के रूप में करते हैं. इसकी मिठाई बनायीं जाती है जो स्वादिष्ट होती है. इसकी सूखी मिठाई बहुत दिनों तक सुरक्षित रह सकती है.
उड़द दाल के साथ पेठा मिलाकर बड़ियाँ भी बनायीं जाती है. जो सब्ज़ी के रूप में प्रयोग की जाती हैं. और खाने में स्वादिष्ट लगती हैं.
पेठे में पानी के मात्रा अधिक होती है. इसका गूदा मुलायम होता है लेकिन इसके रेशे कड़े होते है. जो खाने में करकर बोलते हैं. इस डाइटरी फाइबर के कारण ही पेठा आंतो में जमी गंदगी निकल देता है. इसका डाइटरी फाइबर ही इसका विशेष गुण है. पेठे का स्वाभाव ठंडा और तर है. गर्मी के दिनों में इसके मिठाई का इस्तेमाल गर्मी के दुष्प्रभाव से बचता है और सर को ठंडा रखता है. पेठा लू लगने से बचाता है. इसमें मिनरल पाये  जाते है जो शरीर को बहुत सी बीमारियों से बचाते हैं. पेठे के सब्ज़ी बनाकर खाने से शरीर को ताकत तो मिलती है लेकिन वज़न कंट्रोल में रहता है.
जिन लोगों का मिज़ाज ठंडा है उनके लिए पेठा फायदेमंद नहीं है. जो लोग डायबेटीस का शिकार हैं वे भी पेठे की मिठाई खाने से बचें क्योंकि इसमें बहुत मात्रा में शकर का प्रयोग किया जाता है.

रविवार, 8 सितंबर 2019

बेरी और झड़बेरी

 बेर के पेड़ को बेरी कहते हैं. बेर एक बहुत आम पौधा है. ये कांटेदार होता है. आसानी से उग आता है. इसे शुष्क ज़मीन और शुष्क मौसम पसंद है. इसलिए रेगिस्तानी इलाको और चट्टानी जगहों पर हो जाता है. इसको बरसात के अलावा पानी के भी ज़्यादा ज़रुरत नहीं है. बरसात गुजरने के बाद इसमें छोटे छोटे फूल गुच्छो में लगते हैं. जिन्हे बेरी के खिचड़ी कहा जाता है. उसके बाद ये पौधा फलों से भर जाता है. ये फल जाड़े के मौसम में पक जाते है. इन फलों को बेर कहते हैं.
बेरी की बहुत सी किस्में हैं. बेरी के छोटे आकर के झाड़ीनुमा पौधों को झड़बेरी कहते हैं. ये पौधे रेलवे लाइनों और सड़कों के किनारे और खली पड़े शुष्क स्थानों पर उग आते हैं. इनमें छोटे आकर के गोल या अंडाकार फल लगते हैं जो पकने पर गहरे लाल  रंग के हो जाते हैं. यही फल झड़बेरी के बेर कहलाते हैं.
कलमी बेर बड़े आकर के होते हैं. सेब के आकर के बड़े बड़े बेर भी बाजार में मिलते हैं. ये बेर काफी बड़े होते हैं.
बेर के पौधे के कम पानी चाहिए होता है. हे सूखे स्थानों में आसानी से हो जाता है. इसके लिए बरसात का पानी ही काफी है.
बेरी के पत्ते पीसकर सर में लगाने से झड़ते बालों के समस्या से छुटकारा मिलता है. इसके लिए बेरी के पत्तों को पीसकर पानी में मिलाकर शैम्पू के तरह बालों को धोया जाता है. बेर में बहुत से खनिज जैसे लोहा, मैग्नीशियम, कैल्शियम, ज़िंक आदि पाया जाता है. ये दांतो और हड्डियों के लिए फायदेमंद है. रक्त के प्रवाह को बढ़ता है और रक्त में धक्का नहीं बनने देता.
बेर में चिपचिपापन होता है. इस कारन ये आँतों के लिए फायदेमंद है. जिनको कब्ज़ रहता हो वे लोग सीज़न में पक्के बेरों का इस्तेमाल कर सकते हैं.
बेर खाने और बेर के पक्के फलों को पेस्ट बनाकर चेहरे पर लगाने से चेहरा कांतिमान बनता है.


मंगलवार, 30 जुलाई 2019

पुनर्नवा या सांठ

पुनर्नवा का मतलब है फिर से नया करना. ये एक जड़ी बूटी का नाम है जो बरसात में तेज़ी से सड़कों के किनारे और खली पड़े स्थानों पर उगती है. इसकी लम्बी लम्बी शाखें ज़मीन में फैलती चली जाती हैं. ये रेलवे लाइनों के किनारे भी मिल जाती है. ये एक ज़मीन पर फैलने वाला पौधा है. इसके पत्ते कुछ गोल, अंडाकार से होते हैं. इसमें बैगनी रंग के या फिर सफ़ेद फूल खिलते हैं.
इसकी शाखाए भी बैगनी या लाल रंग लिए हुए होती हैं. इसकी पहचान आसानी से की जा सकती है.
इसको अंग्रेजी भाषा में हॉगवीड  और वैज्ञानिक नाम बोर्हाविआ डिफ़युसा है. कहते हैं के शरीर को पुनः जीवन दान करने और नया बनाने के कारन ही इसका नाम पुनर्नवा पड़ा है. या फिर इसलिए की तेज़ गर्मी के दिनों में इसका पौधा सूख जाता है और बरसात आने पर फिर उग आता है. इसलिए भी इसे पुनर्नवा कहते हैं. कहीं कहीं इसे बिसखपड़ा और इटसिट  भी कहते हैं. लेकिन बिसखपड़ा के नाम से एक और पौधा भी जाना जाता है. जो खेतों में बरसात में खर पतवार के रूप में उगता है. इसलिए पुनर्नवा को अन्य पौधों से अलग पहचानना ज़रूरी है. कई बार एक नाम से भिन्न भिन्न जड़ी बूटियां अलग अलग स्थानों पर जानी जाती हैं. उनकी विशेष पहचान के लिए ही जड़ी बूटी का फोटो इस ब्लॉग में दिया जाता है.
पुनर्नवा का एक नाम सांठ भी है.

पुनर्नवा लिवर या जिगर के अच्छी दवा है. शराब पीने से ख़राब होने वाला लिवर इससे ठीक हो जाता है. लेकिन पहले शराब का छोड़ना ज़रूरी है. इसके लिए पुनर्नवा के पत्तों की सब्ज़ी बनाकर खाना चाहिए. पुनर्नवा शरीर सो टॉक्सिन यानि ज़हरीले पदार्थ निकाल देता है. ये पेशाब लाने वाली जड़ी है. गुर्दे के रोगों में फ़ायदा करती है. कहते हैं कि इसके इस्तेमाल से गुर्दे के रोगों में आराम मिलता है.
पुनर्नवा ब्लड प्रेशर घटाता है. शरीर और दिमाग को शांत करता और ठंडा रखता है.
पुनर्नवा दिल की सेहत को बनाये रखता है. इसका इस्तेमाल कोलेस्ट्रॉल का सही स्तर  बनाये रखता है. जो लोग स्वस्थ हैं वे अगर कभी कभी पुनर्नवा को सब्ज़ी के रूप में इस्तेमाल करते रहें तो बहुत से रोगों से बच सकते हैं.
पुनर्नवा ड्रॉप्सी के बीमारी जिसमें जिगर की खराबी के कारण पेट में पानी भर जाता है, के लिए उपयोगी है. इसके अलावा ये सूजन को दूर करता है. जिनका शरीर जिगर की  खराबी से सूज गया हो उन्हें नियमित पुनर्नवा के सब्ज़ी इस्तेमाल करनी चाहिए.
पुनर्नवा का नियमित इस्तेमाल शरीर और पेट के मोटापे को घटाता है. जो लोग मोटापे का शिकार हैं उन्हें इसकी सब्ज़ी खाना  चाहिए।
इसकी जड़ का पाउडर पेट के कीड़े मारकर निकल देता है.
पुनर्नवा एक सुरक्षित दवा है. एक ऐसी जड़ी हैं जिसकी जितनी भी प्रशंसा की  जाए कम  है. 



रविवार, 26 मई 2019

जंगल जलेबी

जंगल जलेबी एक बड़ा और कांटेदार वृक्ष है. सड़कों के किनारे लगाया जाता है. इस पौधे के इनवेसिव पौधों की श्रेणी में रखा गया है. ये खुद-ब - खुद बीजो की सहायता से उग आता है और दूर दूर तक जंगल जलेबी का जंगल फैल जाता है.
इसकी लकड़ी का रेशा ऐंठा हुआ होता है. इसलिए इसके पेड़ सीधे नहीं होते. टेढ़े, तिरछे होते हैं. इसका तना भी ऊबड़ खाबड़ होता है. ये सूखी जलवायु को आराम से झेल लेता है. रेगिस्तानों और कम पानी वाली ज़मीनो में आराम से लग जाता है.
इसकी फलियां लम्बी लेकिन चक्रदार होती हैं. इसी लिए इसे जंगल जलेबी कहते हैं. जलेबी का आकार और मीठी होने की वजह से इसे ये नाम मिला हैं. कुछ लोग इसे मीठी इमली भी कहते हैं. इसकी फलियां पककर लाल हो जाती हैं  अंदर का गूदा फलियां फट जाने से बाहर दिखने लगता है. इस गूदे में काले काले बीज होते है. इन बीजों का आवरण चिकना और मज़बूत होता है. शुष्क ज़मीनो में ये कई साल तक पड़े रह सकते हैं. और आवश्यक नमी मिलने पर नए पौधे उग आते हैं.
जंगल जलेबी का स्वाभाव ठंडा और तर है. ये पेट के ढीलेपन को दूर करती है. पेचिश और दस्तों के मरीज़ों के लिए फायदेमंद है.
जंगल जलेबी के पेड़ की छल का काढ़ा बनाकर कुल्ला करने से मुंह के छालों में आराम मिलता है. इसकी छल का पाउडर सुबह शाम तीन से पांच ग्राम की मात्रा में पानी के साथ इस्तेमाल करने से पुराने दस्त रुक जाते हैं.
जंगल जलेबी की दातुन करने से दांत मज़बूत होते हैं और उनसे खून आना बंद हो जाता है. 

शनिवार, 4 मई 2019

बोया पेड़ बबूल का

बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खाओगे. ये एक कहावत है जिसका मतलब है कि बुराई करोगे तो बुराई ही मिलेगी. लेकिन जड़ी बूटी विज्ञानं में बबूल का अपना बड़ा महत्त्व है. ये एक कांटेदार पेड़ है. इसकी कई जातियां है. बबूल का पेड़ बारीक पत्तियों वाला और कांटे दर होता है. इसमें बहुत कांटे होते हैं. इसलिए  खेतो और बागो की बाढ़ों पर लगाया जाता है.
ये शुष्क और रेगिस्तानी इलाकों का पेड़ हैं. इसे आम तौर से गोंद के लिए जाना जाता है. जंगलों से इसका गोंद इकठ्ठा किया जाता है. जो टेढ़ी मेढ़ी डलियो / टुकड़ो में होता है. इसका रंग सफ़ेद, हल्का पीला और डार्क ब्राउन भी होता है. ये गोंद चिपकाने के काम में आता हैं. अब स्टेशनरी के लिए बहुत से एडहेसिव का चलन होने की वजह से बबूल का गोंद चिपकाने के काम में काम इस्तेमाल होता है.
बबूल के  गोंद का दूसरा बड़ा प्रयोग दवाई के रूप में और घरेलू डिश में खाने के काम में होता है. ये स्वाभाव से शुष्क और गर्म होता है. इसलिए  इसका प्रयोग सर्दी के दिनों में घी में भूनकर किया जाता है. घी में भूनने से ये फूल जाता है. तब इसे पीस लिया जाता है और दवाओं या फिर घरेलू डिश जैसे हलवे आदि में मिलाया जाता है. ये जोड़ो के दर्दो को दूर करता है. जोड़ो को शक्ति देता है. प्रसव के बाद बबूल के  गोंद का हलवा खिलने से प्रसूता को बहुत सी बीमारियों से लाभ मिलता है.
बबूल की कच्ची फली जिसमे अभी बीज पका  न हो सुखाकर पाउडर बना लिया जाता है. इन फलियों का पाउडर 2 से 3 ग्राम की मात्रा में सामान मात्रा में कच्ची शकर से साथ सुबह शाम इस्तेमाल करने से स्त्रियों के श्वेत प्रदर में विशेष लाभकारी है. पुरुषों के लिए स्तम्भनकारी है.
बबूल की कच्ची फलियां जिनका बीज अभी पका न हो, सुखाकर रख ली जाती हैं. यही फलियां दवा में काम आती हैं. ये दवा की दुकान और पंसारी की दुकान से भी मिल सकती हैं (जिन दुकानों पर देसी दवाएं बिकती हैं. ) सूखी फलियों का पाउडर बनाकर शकर या मिश्री के साथ सुबह शाम तीन से पांच ग्राम की मात्रा में पानी या दूध के साथ इस्तेमाल करने से जोड़ों के दर्द में बहुत लाभ मिलता हैं. ये न केवल सूजन घटती हैं, कैल्सियम बढाती हैं, हड्डियों में लचक पैदा करती है और जोड़ मज़बूत होते हैं.
किसी भी देसी जड़ी बूटी  के इस्तेमाल में जो रहस्य है उसका जानना ज़रूरी है. दवा के रूप में बबूल की वही फली प्रयोग होगी जिसका बीज कच्चा हो. बीज पड़ने के बाद पहली का छिलका मोटा हो जाता है. और बीज पक्का होकर फली फट जाती है और बीज बिखर जाते हैं. ये पके बीज और पका छिलका दवाई के काम का नहीं है.
बबूल की दातून करने से दांतो की बीमारियां दूर होती हैं. दांतो से खून आना बंद हो जाता है. यही काम बबूल की पत्तियां और छाल भी करती हैं. बबूल की छाल का नित्य प्रयोग करने से दांत मज़बूत हो जाते हैं.
कांटो को शूल कहा जाता है. बबूल के शूल पेट शूल के लिए लाभदायक हैं. जो लोग पेट शूल यानि पेट दर्द की समस्या से ग्रस्त हैं. वे बीस ग्राम बबूल के कांटे और बीस ग्राम काला  नमक एक लीटर पानी में भिगो दें फिर उस पानी को हलकी आंच पर इतना पकाएं की पानी आधा रह जाए. इस पानी को ठंडा करके बोतल में रख लें. खाने के बाद दोनों समय इस पानी को दो चमच की मात्रा में इस्तेमाल करने से पेट शूल के पुराने मर्ज़ से निजात मिल जाती है. 

शनिवार, 30 मार्च 2019

गूलर एक चमत्कारी वृक्ष है




 गूलर या गूलड़ एक बड़ा वृक्ष है. इसके पत्तों पर गुमड़ियां या गोल गोल से उभार होते हैं. इसके फल पककर लाल रंग के होजाते हैं. इन फलों में विशेष प्रकार के उड़ने वाले भुनगे पाए जाते हैं. इसका साइंटिफिक नेम फिक्स रेसिमोसा है. और इसकी एक वैराइटी फिक्स ग्लोमेराटा है. इसे उदम्बर भी  कहते हैं.
गूलर के फल उसके तने और मोटी शाखाओं में लगते हैं. इनकी शकल अंजीर से मिलती जुलती होती है. इसलिए इसे क्लस्टर फिग या गुच्छे वाला अंजीर भी कहते हैं.
इसकी पत्तियां जानवरों विशेषकर बकरियों के लिए चारे का काम देती हैं. गूलर का धार्मिक महत्त्व भी है.
गूलर के पक्के फलों की विशेष महक होती है. स्वाभाव से ये एक ठंडा वृक्ष है. इसकी छाल, फल और पत्तियां सभी में ठंडा और तर गुण है. गर्मी में जिनकी नकसीर फूटती हो, नाक से खून बहता हो उनके लिए इसके पक्के फलो का इस्तेमाल बहुत फायदेमंद है.
इसकी पत्तियां दस्तों में लाभ करती हैं. इनको पीसकर थोड़े पानी में मिलकर पीने से दस्तों की  बीमारी में लाभ मिलता हैं.
गूलर के पक्के फलों का शरबत पीने से हाई ब्लड प्रेशर कम हो जाता है. मीठा होने के वजह से ये डाईबेटिस के मरीज़ों को नुकसान करता है. ऐसे मरीज़ कच्चे गूलर की  सब्ज़ी बनाकर खा सकते हैं. 

गूलर के पत्तों को पीसकर पानी में मिलाकर पिलाने से दस्त बंद हो जाते हैं. 

गुरुवार, 17 जनवरी 2019

स्वर्णक्षीरी

स्वर्णक्षीरी, सत्यानाशी, सत्यानासी, पीला कटीला एक कांटेदार पौधा है जो बरसात में उगता है. ये खाली पड़े स्थानों, बंजर ज़मीनो और सड़क के किनारे बहुतायत से पाया जाता है. कहते हैं की रोगों को जड़ से मिटाने और उनका सत्यानाश करने के कारण ही इसका नाम सत्यानाशी रखा गया है. जिन लोगों के खेतों को इस पौधे ने बहुतायत से उगकर सत्यानाश किया है उन्होने भी इसका नाम सत्यानासी रख दिया था.
इसमें पीले रंग के कटोरी नुमा फूल खिलते हैं. कुछ पौधों के फूल क्रीम रंग के या सफेदी लिए भी होते हैं. इसके तने को तोड़ने पर पीले रंग का दूध निकलता है. इसलिए इसे स्वर्णक्षीरी या सोने जैसे दूध वाली बूटी भी कहते हैं. इसका दूध बड़ी काम की चीज़ है. ये लगाने पर एंटीसेप्टिक का कार्य करता है. इसकी जड़ की भस्म शहद के साथ इस्तेमाल करने से मिर्गी का रोग जाता रहता है.
लेकिन इस पौधे की गिनती ज़हरीले पौधों में होती है. इसका प्रयोग केवल काबिल हकीम और वैध ही कर सकते हैं. यदि इसे समझदारी से इस्तेमाल किया जाए तो बहुत से रोगों के लिए ये लाभकारी है. लापरवाई और जानकारी के आभाव में इसके इस्तेमाल से गंभीर नुकसान हो सकते हैं.
इसकी फलियां मोटी और छोटी होती हैं. इनमें काले रंग के बहुत से बीज निकलते हैं. इन बीजों में बहुत तेल होता है. कुछ लोगों ने इसके बीजों के मिलावट सरसों के तेल में की है जिससे लोगों को जोड़ों के सूजन, गुर्दे फेल होना और आँखों की  गंभीर बीमारियां हुई हैं.


Popular Posts

महल कंघी Actiniopteris Radiata

महल कंघी एक ऐसा पौधा है जो ऊंची दीवारों, चट्टानों की दरारों में उगता है.  ये छोटा सा गुच्छेदार पौधा एक प्रकार का फर्न है. इसकी ऊंचाई 5 से 10...