मंगलवार, 31 मई 2016

जलजमनी बूटी

जलजमनी

जलजमनी बूटी एक बेल है जो बरसात के मौसम से ठीक पहले अप्रैल, मई के महीनों में उगना शुरू होजाती है. इसका दूसरा नाम शेख फरीद बूटी भी है. कुछ स्थानों पर इसे निर्बिसी भी कहा जाता है. इसकी जड़ ज़मीन में पौधा सूख जाने के बाद  बहुत दिनों तक सुरक्षित  रहती है और उपयुक्त मौसम आने पर जड़ से बेल फूट निकलती है और पास के पौधों पर चढ़ जाती है.
ये बरसात  के मौसम में बहुतायत से पाई जाती है. इसका स्वाद फीका होता है. इसका अजीब गुण  ये है कि  ये पानी को जमा देती है. पानी जमाने का कमाल दिखाने के लिए इसके पत्तों को एक सूती कपडे में बांध कर ढीली सी पोटली बनालें. फिर उसे पानी में डाल कर पत्तों को हाथ से मसलें जिससे पत्तों का हरा रस  निकल कर पानी में मिल जाए. पत्तों को इतना रगड़ा जाए कि पानी का रंग गहरा हरा हो जाए. अब इस पानी को बर्तन में बिना हिलेडुले पंद्रह से बीस मिनट रखा रहने दें. पानी ऐसा जम जाएगा जैसे दही.

मजमा लगाने वाले इसी तरकीब से पानी को जमा देते हैं. इस पानी को टुकड़ों में चाकू से काटा जा सकता है. मजमा लगाकर दवाएं बेचने वाले इस बूटी का यही कमाल दिखाकर शक्तिवर्धक दवाएं बेचते हैं. 
ये बूटी खून को साफ़ करती है और गुण में ठंडी होने के कारण गर्मी से होनो वाले रोगों में लाभकारी है. पानी ज़माने के गुण के कारण ये शक्तिवर्धक के रूप में भी प्रयोग की जाती है. 

सोमवार, 30 मई 2016

गुर्च की बेल Tinospora Cordifolia, Giloy

इसके दुसरे नाम गिलोय, गुर्ज, गुरज, गिलो, गुडूची  आदि हैं. ये एक  बेल है जिसके पत्ते पान से मिलते जुलते होते हैं. ये पास के पेड़ पौधों, दीवारों पर चढ़ जाती है. इसका स्वाद कड़वा होता है. नीम के पेड़ पर चढ़ी हुई गिलो को गिलोय नीम  कहा जाता है और ऐसी गिलो गुणों में उत्तम मानी जाती है. ये बहुत आसानी से जड़ जड़ पकड़ लेती है. इसकी शाखा काटकर कर रख देने से महीनों  सूखती नहीं है. बरसात के मौसम में इसमें हवाई जड़ें फूटती हैं. रखी हुई शाखा  भी हरी हो जाती है और ज़मीन में लगाने पर पौधा परवान चढ़ जाता है.
इसमें बहुत छोटे फूल  भी खिलते हैं. बाद में. मटर के आकर के हरे गोल बीज लगते हैं जो पक कर लाल हो जाते हैं. दवाओं में इसकी  डंडी  या शाखा प्रयोग की जाती है. इसकी शाखा को कुचलने पर इसमें से चिपचिपा लेसदार रस निकलता है. गिलो का ये चिपचिपा लेसदार रास ही औषधीय गुणों से भरपूर होता है. गिलो को अन्य दवाओं के साथ पकाकर या पानी में भिगोकर ऐसे ही बिना पकाये सेवन किया जाता है.
गिलो बुखार की प्रसिद्ध देसी दवा है. ज़ुकाम के लिए दिए जाने वाले जोशांदे या काढ़े  में गिलो की दो से चार इंच की शाखा कुचलकर डाल दी जाती है और जोशांदे के साथ पकाकर गुनगुनी हालत में पीने से बुखार में लाभ होता है. बुखारों के लिए जो पुराने हों गिलो नीम का चार इंच का टुकड़ा शाम को कुचल कर थोड़े पानी में भिगोकर रख दिया जाता है और सुबह को वही पानी पिलाने से बरसों पुराना बुखार जाता रहता है. बुखार के अलावा गिलो जिगर के रोगों में भी लाभकारी है. हकीम युपियावी ने एक  आदमी को जो पुराना हिपैटाईटीस का मरीज़ था  गिलो का घोटा बताया था. गिलो को घोटकर काली मिर्च मिलाकर दिन में तीन बार पीना था. गिलो के रस में शहद मिलाकर सुबह शाम पीने से पेट के रोग ठीक होते हैं. ये रेसिपी खून साफ़ करने में भी मदद करता है. 
बाजार में सत गिलो के नाम से एक सफ़ेद सा पाउडर बिकता है. कहा जाता है की ये सत गिलो असली नहीं होता. इसे इस्तेमाल करने से गिलो का नाम बदनाम होता है क्योंकि ये कोई फायदा नहीं करता. ज़रूरी है कि सत गिलो खुद बनाया जाए जो एक मेहनत का काम है. 


सत गिलो बनाने के  लिए गिलो के टुकड़े काट लें और उन्हें अच्छी तरह कुचलकर पानी में कई दिन भिगो दें. रोज़ पानी को अच्छी तरह हिला दिया करें. उसके बाद पानी को छानकर अलग करलें और खोजड फ़ेंक दें. फिर इस पानी को हलकी आंच पर धीरे धीरे सुखाएं जब पानी सूखते सूखते बहुत काम रह जाए तो आग से उतार लें और हवा या  धुप में धूल से बचाकर किसी फैले बर्तन जैसे थाली आदि में रखदे. ये धीरे धीरे सूख जाएगा.  बर्तन की तली में एक पदार्थ सा जमा हुआ होगा उसे खुरचकर निकाल लें यही सत  गिलो है जो बाजार के सत  गिलो जैसा सफ़ेद नहीं होगा लेकिन असली होगा. इसे आप बुखारों और जिगर / लीवर के रोगों में समझदारी से इस्तेमाल कर सकते हैं. 
बुखार के लिए सत गिलो, बंसलोचन, समान भाग मिलाकर रखलें. ये दवा 2 से 3 ग्राम की मात्रा में शहद के साथ मिलकर दिन में 3 से 4 बार इस्तेमाल करने से पुराने बुखारों में भी लाभ होता है. 
कहते हैं की गिलो का थोड़ी मात्रा में नियमित सेवन करने से बुढ़ापा जल्दी नहीं आता और चेहरे पर झुर्रियां नहीं पड़तीं हैं. 
गिलो अपने गुणों के कारण अमृत के सामान है इसलिए इसका एक नाम अमृता भी है. या फिर क्योंकि ये बेल बिना सूखे बहुत दिनों तक हरी रहती है और बहुत आसानी से जड़ पकड़ लेती है इसलिए इसके अमृत्व गुण के कारण  ही इसका नाम अमृता पड़ा है. 


बुधवार, 25 मई 2016

सहजन Moringa Tree, Drum stick tree

सहजन एक बहुत ही गुणकारी और लाभकारी वृक्ष है। इसे सहजन, सहजना, शोभनजन, और अंग्रेजी में मोरिंगा moringa, कहते हैं. ये बहुतायत से पाया जाने वाला पेड है. जनवरी, फरवरी में ये सफेद रंग के गुच्छेदार फूलो से लद जाता है. फिर इसमें लम्बी लम्बी फलिया लगती हैं. इन फलियो को drum stick भी कहते हैं. सहजन का वृक्ष बीज से बहुत आसानी से उग आता है। बरसात में इसके बीज जमीन या गमले में लगा दीजिए ये बीज बहुत जल्दी, थोड़ी नमी निलते ही फूट निकलते हैं। अगर इसके पौधे से जल्दी फायदा लेना हो तो इसे कलम से लगाएं। 

अजीब बात है की इसका पौधा मोटी शाखा को बरसात में जमीन में लगा देने से जड़ पकड़ लेता है और बहुत जल्दी इसमें फूल और फल आते हैं। इसकी लकड़ी में पानी की मात्र बहुत होती है। ये आसानी से सूखती नहीं। इसलिए ये जलाने के काम नहीं आती। 
ये एक कमजोर लकड़ी वाला वृक्ष है लेकिन इसे गुण बहुत हैं। ये एक सम्पूर्ण दवा है और आजकल के रोगों जैसे ब्लड प्रेशर और अवसाद में बहुत अच्छा काम करता है। अगर जगह हो तो हर किसी को इसका पौधा जरूर लगाना चाहिए। 
सहजन का मतलब पड़ोसी होता है। ये एक अच्छे पड़ोसी का काम करता है। सब्जी न हो तो इसकी पत्तियों की सब्जी बनाकर खाओ। इसमें प्रोटीन भी है और गुणकारी तत्व भी। 



फलियो का स्वाद कडवा होता है. हरी फलिया सब्ज़ी के रूप में पकाकर खाई जाती हैं. इनका अचार भी डाला जाता है. सिरके/ vinegar में डालकर भी रखी जाती है जिससे साल भर खाने के काम आ सके.


कहा जाता है कि इसकी तीन फलिया एक अण्डे के बराबर ताकत रखती हैं. सब्ज़ी के रूप में इसके पत्ते, फूल और फलिया प्रयोग की जाती हैं.

ये कुपोषण को दूर करता है. जोडो के दर्द और आंख के विकारो में फायदेमंद है. सहजन ब्लड प्रेशर को घटाता है. इसके लिए इसकी पत्तियां छाया में सुखा लें इन पत्तियों को दस ग्राम की मात्रा में एक कप पानी के साथ उबालकर काढ़ा बनाकर सुबह खाली पेट और शाम को खाली  पेट पिने से ब्लड प्रेशर ठीक रहता है. 

सहजन जोड़ों के दर्द और सूजन को दूर करता है. इसकी कच्ची फलियों को सब्ज़ी के रूप में खाने से जोड़ो के दर्द में रहत मिलती है. 
इसकी फलियों को सुखाकर पाउडर बनाकर तीन ग्राम सहजन पाउडर तीन ग्राम अश्वगंधा पाउडर और एक ग्राम काली मिर्च पाउडर को मिलकर सुबह और शाम पानी के साथ इस्तेमाल करने से जोड़ों के दर्द और सूजन से छुटकारा मिल जाता है. 


मंगलवार, 24 मई 2016

अमलतास

अमलतास

अमलतास के फूल मार्च से लेकर मई तक खूब खिलते हैं. ये अपने पीले रंग के फूलों से ये दूर से हे पहचाना जता है. फूल लम्बे गुच्छों के आकार में लटकते हैं. 
गर्मी के मौसम में सड़कों की किनारे कोई ऐसा पौधा नज़र आये जो पीले फूलों से भरा हो तो आप समझ सकते हैं की ये अमलतास का पौधा होगा. इसकी पहचान फोटो से मिलकर कर सकते हैं. गर्मी की धूप  से फूलों का रंग उड़ जाता है. 
ये एक ऐसा पौधा  है जो हकीम और वैद्य दवाओं में प्रयोग करते हैं. हकीम लोग इसे ख्यारशम्बर कहते हैं.
अमलतास का दूसरा नाम Cassia fistula या golden shower tree भी है. दवाओं में आम तौर से इसकी फलियों के अंदर से निकलने वाला काला गूदा प्रयोग किया जाता हैं. ये गूदा चिपचिपा, कोलतार जैसा होता है. 
इसमें एक फुट से लेकर दो फुट तक लम्बी फलिया  लगती हैं. जो पहले हरी बाद में सूख कर भूरी या काली  पड जाती  हैं.

इसकी फली सख्त होती है. ये अंदर से खानो में विभाजित होती है. हर खाना एक गोल पर्दे से अलग होता है. इन गोल पर्दो के दोनो तरफ गूदा चिपका होता है. ये गूदा काले रंग का होता है. जो कोलतार जैसा लगता है लेकिन खाने में मीठा होता है और इसमें से एक विषेश प्रकार की गंध आती है. 

हर दो पर्दो के बीच में जो जगह बचती है उस खाली जगह में बीज भरे होते हैं. इन्हीं बीजो को बोन से अमलतास के पौधे उगते हैं. लेकिन अजीब बात ये है की अमलतास की बीज जो दो वर्ष पुराने होते हैं वही जमते हैं. 

अमलतास का यही काला गूदा दवा के रूप में काम आता है. इसमें खांसी और कब्ज़ दूर करने की शक्ति होती है. 

हकीम यूपियावी कहते हैं कि अमलतास का गूदा पानी में शहद या शकर के साथ पकाकर रोज़ाना इस्तेमाल करने से खासी ठीक होती है और कब्ज़ दूर होता है.

अमलतास के फूलों का गुलकंद भी बनाया जाता है. इसके लिए अमलतास के फूलों की पंखुड़ियां अलग कल ली जाती हैं. फिर उन्हें हाथों से शकर के साथ मलकर किसी खुले बर्तन में धूप में रख दिया जाता है. तीन-चार दिन तक धुप दिखाने से शकर पिघल जाती है और पंखुड़ियां उसमें गल जाती हैं. ये गुलकंद रात को सोते समय तीन से पांच ग्राम की मात्रा में गर्म पानी के साथ खाने से कब्ज़ की शिकायत नहीं रहती. अमलतास एक खूबसूरत पौधा है. इसके गुण इसकी खूबसूरती से भी ज़्यादा हैं. ये किसी को भी नुक्सान नहीं करता. इसीलिए छोटे बच्चों की जन्म घुट्टी का ये मुख्य अव्यव है. जो बच्चो को खांसी, सीने के रोगों और कब्ज़ से बचता है. 

आक

आक या मदार
सारे भारत में बहुतायत से पाया जाने वाला पौधा है. इसके बहुत से नाम हैं. इसे आक, आख, अकौआ, मदार, सूर्य नेत्र, अरबी भाषा में उश्र, उशार भी कहते है. अंग्रेजी भाषा में इसका नाम कैलोट्रोपिस है. इसे ज़हरीला होने की वजह से कोई जानवर नहीं खाता. फरवरी से लेकर जून तक ये  शबाब पर रहता है. इसमें गुच्छों में फूल खिलते हैं. फिर छोटे आम के बराबर आम जैसे फल लगते हैं. ये फल पाक कर चटक जाते  हैं. उनमें से आक के बीज निकलते हैं जिनके चारों तरफ रूई की तरह रेशे होते हैं. हर बीज उन रेशों के वजह से रूई के एक गोल गाले की तरह हो कर हवा में उड़ने लगता है और दूर दूर पहुँच जाता है. इस तरह इस पौधे का फैलाव  दूर दूर तक हो जाता है.
वैसे ये झाडी नुमा पौधा है लेकिन कुछ किस्में ऐसी भी है जो बहुत बड़ी हो कर एक मीडियम साइज़ के पौधे का रूप ले लेते हैं. इनके फूल भी अलग होते  हैं. ये सफ़ेद रंग के और सितारे के आकर के होते हैं. आम तौर से उत्तर भारत में इसके वे पौधे पाए  जाते हैं जिनके फूलों का रंग बाहर  से सफ़ेद और अंदर से बैंगनी रंग का होता है. उनका आकर भी सितारे की तरह नहीं होता . दवाओं में यही वैरायटी इस्तेमाल होती  है कियोंकि यह दूसरी वैरायटी  से काम ज़हरीली होती है.

आक के  रेशों को आक की रूई भी कहते हैं. यह एक ऐसा पौधा  है जिसमें दूध होता है. दूध वाले पौधे ख़राब वातावरण और पानी के कमी में भी ज़िंदा रहते हैं. इसका दूध शरीर पर  लगने से   घाव कर देता है. वह जगह जहाँ दूध लगता है लाल पड़ जाती है. दाने निकल आते हैं और सूजन हो जाती है. कबाइली लोग इसके दूध का इस्तेमाल दाद पर करते हैं जिससे घाव हो कर दाद ठीक हो जाता है. लेकिन ये कोई कारगर तरीका नहीं है. कभी कभी इससे बहुत गम्भीर त्वचा की समस्याएं पैदा होती हैं. दूध का इस्तेमाल खोखले दांतों को निकलने के लिए भी जंगल के निवासियों के द्वारा किया जाता है. रूई भिगोकर खोखले दांत में रख दी जाती है घाव होकर दांत निकल जाता है.  अनचाहे गर्भ से छुटकारे के लिए भी जंगल के निवासियों द्वारा इसके दूध का इस्तेमाल किया जाता है  जिससे अत्यधिक रक्तस्राव  होकर गर्भपात हो जाता है. लेकिन इससे शरीर में घाव पड़ जाते हैं और गम्भीर समस्याएं उत्पन्न होती हैं. कान के दर्द में भी इसके पत्तों को आग पर  गर्म करके पानी निचोड़ कर कान में  डाला जाता है.


आक के किसी भी भाग को तोड़ने से पहले सावधानी ज़रूरी है की  इसका दूध शरीर पर न लगने पाए और आँख को तो इससे विशेष तौर पर बचाना चाहिए नहीं तो आंख  में घाव हो कर आंख खराब भी हो सकती है. बच्चों को  इससे दूर रखना चाहिए.
जहाँ कहीं दवाओं में इसके फूल इस्तेमाल करने  के ज़रुरत पड़ती है वहां केवल इसके सर बंद फूल यानि कलियाँ जो अभी खिली न हों, इस्तेमाल की  जाती हैं. उनमें ज़हर काम होता है. खिले हुए फूल बहुत ज़हरीले होते हैं. ताज़े फूलों की  जगह इसके सर बंद फूल ही सुखाकर दवाओं में सावधानी से इस्तेमाल किये जाते हैं.
इसके पत्तों को धोकर और इमली के पत्तों के साथ उबाल कर पानी  सुखकर अचार भी बनाया जाता है जो बहुत काम मात्र में इस्तेमाल करने पर पेट के गैस विकार को लाभ करता है.
हकीम यूपियावी कहते हैं की  दवाओं के अन्य पौधों की तरह इसके भी पांचों अंग यानि पंचांग प्रयोग किया जाता  है. पंचांग का मतलब जड़, फूल, पत्ते, छाल और बीज से है.  एक मरीज़ अरकुन्निसा  या श्याटिका पेन से बहुत परेशान था. उसे बताया गया की आक  की जड़ की छाल  निकाल कर उसे धोकर पानी डाल कर उबालो और उसमें थोड़े से चने डाल दो की चने भी उस जड़ के साथ उबल जाएँ. बाद में चनो को निकाल कर सुख लो और पीस कर रख लो. सुबह एक छोटा चमच पानी के साथ सेवन करने से पुराना  श्याटिका पेन ठीक हो गया.
हकीम यूपियावी शरीर के दर्द में इसके पत्तों को सरसों के तेल में जलाकर मालिश करने की सलाह देते हैं.

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