बुधवार, 28 अक्तूबर 2020

डोडा बंडाल

घुसलाइंद,  घुसलता, और बंडाल एक बेल के नाम हैं. डोडा बंडाल इस बेल के फल को कहते हैं. ये बेल बरसात में बढ़ती है और पास की झाड़ियों पर चढ़ जाती है. लोग इसे कुछ अहमियत नहीं देते. लेकिन ये कमाल की दवा है. इसका जितना भी मूल्य लगाया जाए कम है, क्योंकि इसका कोई जोड़ नहीं. 


जड़ी बूटियों के जानने वाले और इसकी खासियत से वाक़िफ़ लोग इसका इस्तेमाल कर रहे हैं. इसके पत्ते तुरई के पत्तों से मिलते जुलते होते हैं. इसमें सफ़ेद रंग का फूल आता है. इसका फल कांटेदार होता है. इसके पत्तों पर भी कांटे या रुआं सा होता है. लेकिन इसके फल के कांटे हाथ में चुभने वाले नहीं होते. ये कांटे मुलायम होते हैं. इसकी मुख्यत: दो किस्में हैं. एक के फल सूखने पर पोस्टकार्ड कलर के हो जाते हैं. दूसरी के फल सूखकर डार्क ब्राउन या काले से हो जाते हैं.

इसका फल सूखकर जब चटकता है तो इसके सामने से एक ढक्कन सा खुल जाता है. ऊपर फोटो में ऐसा मुंह खुला फल दिखाई दे रहा है. इस ढक्कन के खुल जाने से बीज गिर जाते हैं और इन बीजों से बरसात में नए पौधे उगते हैं 

ये जिगर के लिए बहुत बड़ी दवा है. पीलिया तो इसके सामने टिक नहीं सकता इसके सूखे फल को भिगोकर उसका पानी पिलाने से पीलिया रोग नष्ट हो जाता है. इसके फल का अर्क नाक में टपकाने से पीलिया का पीलापन नाक के रास्ते पीले पानी के रूप में बह जाता है. 

लीवर के अन्य रोगों जैसे लीवर सिरोसिस और लीवर कैंसर में भी ये गुणकारी है. इसका उचित इस्तेमाल किसी काबिल वैद्य की निगरानी में इस रोग से छुटकारा दिला सकता है. 

इसका इस्तेमाल लीवर सेल को पुनर्जीवित करता है. लिकेन इसकी मात्रा बहुत कम होनी चाहिए. ये दवा बहुत कड़वी होती है. कड़वेपन के कारण जी मिचलाना और उल्टी की शिकायत हो सकती है. लीवर के रोगों में उल्टी आने का लक्षण मिलता है. 

इस दवा का सावधानी से प्रयोग जान बचा सकता है.  




सोमवार, 3 अगस्त 2020

अदरक

अदरक मसाले के रूप में प्रयोग की जाती है. ये आखिर बरसात के मौसम से जाड़ों भर मार्केट में मिलती है. यही नयी अदरक की फसल का समय है. इसको कंद से फरवरी मार्च के महीनों में बोया जाता है.
इसका स्वाद तीखा और विशेष गंध होती है. अपनी खुशबु से अदरक पहचानी जाती है. अधिक बढ़ जाने पर इसमें रेशे पड़ जाते हैं. इसलिए सब्ज़ी में कच्ची अदरक जिसमें अभी रेशा न पड़ा हो उपयोग होती है.
अदरक को उबाल कर सुखा लिया जाता है, अब इसका नाम सोंठ या ड्राई जिंजर पड़ जाता है. सोंठ का प्रयोग भी मसालों में किया जाता है. ये खाने की डिश, हलवा, पंजीरी, और बहुत सी दवाओं में इस्तेमाल होती है.
अदरक का स्वाभाव गर्म और खुश्क है. ये खांसी में फायदेमंद है.

रविवार, 2 अगस्त 2020

पपीता Papaya

पपीता ऐसा फल है जिसे सभी जानते हैं. इसका पेड़ सीधा बढ़ता है. ऊपरी भाग पर बड़े बड़े पत्ते लगते हैं. इन्हीं पत्तों के बीच तने पर फल और फूल लगते हैं. पपीते में आम तौर से शाखें नहीं होतीं.  कभी कभी पपीते के पेड़ में शाखें भी निकलती हैं और उनमें फल भी लगते हैं.
पपीते का तना कमज़ोर होता है. लगाने के एक वर्ष के भीतर ही इसमें फल आने लगते हैं. फल तने में चरों ओर लगते हैं. कुछ लोग इसे अरण्ड ख़रबूज़ा भी कहते हैं. क्योंकि इसके पत्ते अरण्ड से मिलते जुलते होते हैं.
अजीब बात है की पपीते के पौधे तीन तरह के होते हैं. एक नर पौधे जिसमें केवल फूल आते हैं और फल नहीं लगते. दुसरे वह जिनमे छोटे फल लगते हैं लेकिन ये मादा पौधे होते हैं. इनको पॉलेन न मिलने से फल बढ़ते नहीं हैं. या तो छोटे ही रहते हैं या सूखकर गिर जाते हैं. पपीते का तीसरे प्रकार का पौधा द्विलिंगी होता है. इनमें फल लगते हैं और बीज बनते हैं. बागों में यही पौधे लगाए जाते हैं.
पपीते के अंदर छोटे काले बीज होते हैं. ये बीज काली मिर्च के आकर के लेकिन कुछ लम्बे, अंडाकार होते हैं. काली मिर्च गोल होती है. काली मिर्च में पपीते के बीजों की मिलावट आसानी से बीजों के आकार से पहचानी जा सकती है. पपीते के गीले बीज चिपचिपे आवरण से ढके रहते हैं.

पपीता दूध वाला पेड़ है. इसका पत्ता तोड़ने पर या फल में खुरचने पर दूध निकलता है. ये दूध या लेटेक्स मीट को मुलायम करने और गलाने में उपयोगी है. इसी गुण के कारण पपीता पाचन करने में मददगार साबित होता है. पपीते और अदरक का चूरन एक प्रसिद्ध दवा है जो खाने के बाद खाने से बदहज़मी, खट्टे डकार, एसिडिटी और गैस बनने की समस्या से छुटकारा दिलाता है.
पपीते को चूरन के रूप में उपयोग करने के लिए कच्चे पपीते को पतले स्लाइस में काटकर सुखा  लिया जाता है. फिर इसका पाउडर बनाकर चूरन में डाला जाता है. इसी प्रकार सुखी अदरक जिसे सोंठ कहते हैं, पाउडर बनाकर चूरन में डालते हैं. इसके साथ चूरन में डाली जाने वाले अन्य मसाले/दवाएं जैसे काला नमक, हरड़, सेंधा नमक, आदि डालकर चूरन बनाया जाता है.

पपीते का लेटेक्स दूध में डालने पर उसे फाड़ देता है.  पनीर बनाने के लिए इसका उपयोग किया जाता है.
कच्चे पपीते की सब्ज़ी भी बनायीं जाती है. पपीता जिगर के लिए लाभकारी है. पका पपीता न सिर्फ पौष्टिक है बल्कि लिवर/जिगर के सेहत के लिए अच्छा है. ये जिगर की सूजन घटाता है. लेकिन पपीता स्वयं देर में पचता है. इसलिए जॉन्डिस के मरीज़ों को पका पपीता थोड़ी मात्रा में ही सेवन करना चाहिए. अधिक सेवन से अपच हो सकता है और मरीज़ को नुकसान पहुंच सकता है.
इसके दूध का प्रयोग सीधा खाने और लगाने में न करें. ये बहुत हानिकारक है. लगाने से स्किन पर एलर्जी हो सकती है. खाने में प्रयोग करने से जी मिचलाना, उलटी, डायरिया आदि की समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं.

शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

हंसराज एक जड़ी बूटी है

हंसराज किसी चिड़िया का नाम नहीं है. हर्ब्स की दुनिया में ये एक जड़ी बूटी है जो गीले  और नमी वाले स्थानों पर उगती है.   इसे छायादार और नमी वाली जगहें पसंद हैं. इसकी पत्तियां बारीक़, छोटी और डंडियां डार्क ब्राउन रंग की होती हैं. पत्तियों का रंग भी गहरा हरा, छोटी दूधी के पत्तों के रंग से मिलता हुआ होता है.
इसको हकीम और आयुर्वेद जानने वाले समान रूप से इस्तेमाल करते हैं. ये नज़ला ज़ुकाम, खांसी के लिए दिए जाने वाले काढ़े या जोशांदे का एक मुख्य अवयव है. पहले इसके स्थान पर गुलबनफ्शा प्रयोग होता था. लेकिन हंसराज के अपने गुण हैं.
इसे हकीम परसियाओशां, शेअर-उल-अर्ज़ या फिर शेअर-उल-जिन्न लिखते हैं. इसे हंसपदी के नाम से भी जाना जाता है.


हंसराज का प्रयोग नज़ला, ज़ुकाम, खांसी में बलगम निकालने के अलावा बुखार को दूर करने में भी किया जाता है. हंसराज एक अच्छा लिवर टॉनिक है. ये लिवर की सेहत को ठीक रखता है. पित्त के प्रवाह को ठीक करता है. पित्ते की पथरी को घुला देता है.
गुर्दे की पथरी में भी हंसराज का काढ़ा अन्य दवाओं के साथ इस्तेमाल करने से गुर्दे की पथरी टूटकर निकल जाती है.
हंसराज बालों को बढ़ाता है. इसका तेल बनाकर लगाने से बाल बढ़ते और मज़बूत होते हैं. ये गंजेपन को ठीक करता है.
हंसराज में सभी वाइटल अंगों को ठीक रखने के गुण हैं. ये चमत्कारी बूटी है. दवा में इसका इस्तेमाल सदियों से किया जा रहा ही. ये दिल की सेहत को भी ठीक रखती है. डायबेटिस से बचाती है. इसके इस्तेमाल से कैंसर नहीं होता.
अजीब बात है की हंसराज जहां सर्दी की बीमारियों में लाभदायक है. कोल्ड और कफ में इसका जोशांदा तुरंत गर्मी देता है. वहीँ दूसरी और यदि गर्मी से सर  में दर्द हो रहा हो तो  इसकी ताज़ी पत्तियों के पेस्ट को माथे पर लेप करने से ठीक हो जाता है.
ये बहुत कमाल  की जड़ी बूटी  है. सही हाथों में चमत्कार दिखाती है.



गुरुवार, 30 जुलाई 2020

बरगद और अमरत्व

 बरगद ऐसा वृक्ष है जो कभी नहीं मरता. ये एक अजर अमर वृक्ष है. इसे अगर प्रकृति की शक्तियां और मानव नष्ट न करे तो ये हज़ारों साल तक बाकी रह सकता है. बरगद और अमरत्व साथ साथ चलते हैं. कहा जा सकता है कि नेचर में अगर किसी वृक्ष ने अमरत्व प्राप्त किया है तो वह बरगद है. बेलों में अमरत्व प्राप्त करने वाली गुर्च की बेल  है. इसीलिए गुर्च का एक नाम अमृता भी है.
इसके अलावा भी ऐसे पौधे और पेड़ हैं जिनमें अमरत्व के के गुण पाए जाते हैं. लेकिन इन दो पौधों को  लोग  आम तौर से जानते और पहचानते हैं. इन पौधों में जीवन दायिनी और पुनरुत्पादन शक्ति अन्य पौधों के मुकाबले तेज़ होती है.
गुर्च और बरगद दोनों में हवाई जड़ें निकलती हैं जो पौधे को नया जीवन और सहारा देती हैं. बरगद लेटेक्स या दूध वाला पेड़ है जबकि गुर्च में दूध नहीं होता. गुर्च में एक चिपचिपा पदार्थ होता  है. यही दूध बरगद को और चिपचिपा पदार्थ गुर्च को सूखने से बचाता है. पानी न मिलने पर भी ये पौधे ज़िन्दा रहते हैं.
बरगद के पेड़ से हवाई जड़ें निकलकर लटकती हैं. इन्हीं जड़ों को बरगद की जटाएं कहते हैं. जैसे बरगद कोई आदमी हो और ये जटाएं उसके बाल हों. इन्हीं जड़ों को बरगद की दाढ़ी भी कहते हैं.
ये जड़ें या जटाएं नीचे की ओर आकर ज़मीन में चली जाती हैं. अजीब बात ये है की जो भाग ज़मीन के अंदर चला जाता है वह जड़ का काम करता है और ऊपरी भाग तना बन जाता है. यही तना मोटा हो जाता है. ये शाखाओं को सहारा भी देता है. बिलकुल इसी तरह जैसे बिल्डिंग में पिलर होते हैं. मूल वृक्ष नष्ट भी हो जाए तो ये बहुत से पिलर पेड़ को बचाए रखते हैं. इस प्रकार ये पेड़ घना और मोटा होकर जड़ों और पिलर के सहारे फैलता  जाता है और एक बड़ा एरिया कवर कर लेता है.


बरगद के पेड़ को बोहड़, और बढ़ या बड़ का पेड़ भी कहते हैं. इसके फल पकने पर लाल हो जाते हैं. इनका आकार गूलर के फलों के आकार से छोटा होता है. ये फल चिड़ियां और बन्दर चाव से खाते हैं. ये परिंदे बरगद के बीजों को दूर तक बिखरने में मदद करते हैं. बरगद के पेड़ इन्हीं बीजों से जमते हैं.
बरगद एक दूध वाला वृक्ष है. इसका दूध, फल, जटा सब दवा के रूप में इस्तेमाल होते हैं. लेकिन इनका प्रयोग आम तौर पर नहीं किया जाता. अजीब बात ये है कि दवाई के रूप में इसका प्रयोग कम ही किया गया है.
कहते हैं की बरगद के पेड़ के नीचे बैठने और सोने से शरीर दुबला हो जाता है. बरगद की सूखी जटा अगर पानी में भिगो दी जाए और इन जटाओं का पानी, जब भी पानी पीना हो, प्रयोग करें तो भी शरीर दुबला हो जाता है. लेकिन किसी भी दवा के प्रयोग से पहले  चिकित्सक की सलाह ज़रूरी है.
बरगद की जटाओं को तेल में पकाकर, छानकर  ये तेल बनाकर सर में लगाने से बाल बढ़ते हैं ऐसा विश्वास प्रचलन में है. लेकिन कुछ लोगों के इसके प्रयोग से गंभीर समस्या उत्पन्न हुई है और सर में जितने बाल थे वह भी झड़ गये. इसलिए किसी भी दवा/ जड़ी बूटी/पेड़ पौधे का बिना किसी हकीम या वैद्य की सलाह के प्रयोग नुकसानदायक साबित हो सकता है. पुरुषों की समस्याओं में बरगद का दूध बताशे में भरकर खाने को बताया जाता है. कई लोगों को इसके इस्तेमाल से पेट में दर्द और डिसेंट्री की शिकायत हो गयी है. एक व्यक्ति ने दांत के दर्द के लिए बरगद का दूध खोखले दांत में भर दिया. मसूढ़े सूज गए और ऑपरेशन कराना पड़ा.
पौधों का दूध अपने गुणों में  सबसे ज़्यादा असरदार होता है. चाहे वह बरगद का दूध हो, आक  का दूध हो या थूहड़ का. इसलिए पौधों के दूध का प्रयोग बहुत सावधानी और जानकारी चाहता है.
ऐसे प्रयोगों से सावधान रहें क्योंकि जीवन अनमोल है.

शीशम लगाएं और भूल जाएं

 शीशम को अधिकतर लकड़ी प्राप्त करने के लिए लगाया जाता है. इसकी लकड़ी का प्रयोग फर्नीचर और इमारती लकड़ी के रूप में होता है. इसकी बढ़वार धीरे धीरे होती है. लगाने के लगभग 20 वर्ष के बाद शीशम का पेड़ लकड़ी प्राप्त करने के लिए तैयार होता है. और अधिक पुराने शीशम के वृक्षों से बहुत अच्छी और पक्की लकड़ी प्राप्त होती है.
वृक्ष पुराना होने पर इसकी लकड़ी अंदर से भूरी / डार्क ब्राउन/ काली पड़ जाती है. इसे ही पक्के शीशम की लकड़ी कहते हैं. मार्केट में शीशम की पक्की लकड़ी ऊँचे दामों बिकती है. शीशम की लकड़ी साधारण लकड़ी के रंग की हो या डार्क ब्राउन दोनों में दुसरे पेड़ों की लकड़ियों की मिलावट की जाती है और ग्राहक को नकली लकड़ी शीशम के नाम पर बेच दी जाती है.
ये ऐसा वृक्ष है जिसका बड़ा व्यापारिक महत्त्व है. इसके पत्ते गोल गोल पान के आकर के लम्बी नोक वाले होते हैं. सड़कों के किनारे लगाया जाता है. इसका वृक्ष आसानी से पहचाना जा सकता है. इसमें लम्बी लम्बी फलियां लगती हैं जिनमें बीज होते हैं. इसके पत्तों का आकर भी छोटा, लगभग रूपये के सिक्के के बराबर होता है. फलियां भी ज़्यादा लम्बी नहीं होतीं. ये भी आधा इंच चौड़ी और तीन से चार इंच लम्बी होती हैं. फलियों का रंग लाइट ग्रीन होता है. ये गुच्छों में लगती हैं.
शीशम को टाली और टाहली भी कहते हैं. ये शब्द पंजाब से सम्बंध रखता है. सीसो, सासम, सीसम के नाम भी प्रचलित हैं. शीशम का स्वाभाव ठंडा है. इसलिए ये गर्मी से आयी सूजन घटाने में कारगर है. अपने ठन्डे स्वाभाव के कारण ये पेट की गर्मी और एसिडिटी को शांत करता है. इसके लिए इसके 10 से 20 ग्राम पत्तों को थोड़ा कुचलकर एक गिलास पानी में भिगो दें और 4 घंटे बाद छानकर थोड़ी सी मिश्री या शकर मिलाकर पीने से लाभ होता है.
शीशम लिकोरिया रोग में भी लाभकारी है. इसके लिए इसके पत्तों को ऊपर बताई गयी तरकीब से सुबह, शाम पीने से लाभ होता है.
शीशम अपने ठन्डे स्वाभव के कारण ब्लड की गर्मी को भी शांत करता है. इसलिए चर्म रोगों में भी प्रयोग किया जाता है. शीशम की लकड़ी का बुरादा पानी में भिगोकर शरबत बनाकर पीने से चर्म रोग, खुजली, एक्ज़िमा, यहां तक की कोढ़ रोग भी नष्ट हो जाता है. इसके लिए कम से कम  तीन माह तक इसका इस्तेमाल ज़रूरी है. खाने में केवल बेसन के रोटी और सब्ज़ी के आलावा कुछ न खाया जाए. और इसका प्रयोग किसी काबिल हकीम या वैद्य की निगरानी में किया जाए. स्वयं उपचार नुकसान कर सकता है.
शीशम की दातुन दांतों को मज़बूत करती है. मुंह के दानों और छालों से रक्षा करती है. अगर मुंह में छाले हो जाएं तो शीशम की कच्ची फलियां कत्थे के साथ चबाने से फ़ायदा होता है. इन्हे पान की तरह चबाकर थूक दिया जाए.
अजीब बात है और वृक्षों की तरह शीशम का मौसम के हिसाब से पतझड़ नहीं होता. ये हमेशा हरा भरा रहता है. इसकी छाया भी घनी नहीं होती. ये बीज से आसानी से उग आता है. इसके लिए अधिक पानी के भी आवश्यकता नहीं है. कहते हैं शीशम  लगाएं और भूल जाएं. 

रविवार, 26 जुलाई 2020

अमरुद

अमरुद मीडियम ऊंचाई का वृक्ष है. इसे घरों में भी लगाया जाता है. लगाने के 3 वर्ष के बाद इसमें फल आने लगते हैं. सामान्य अमरुद के पेड़ों में दो मौसम में फल आते हैं. एक बरसात के मौसम में और दुसरे जाड़े के मौसम में. जाड़े का मौसम का अमरुद अधिक स्वादिष्ट और मीठा होता है. बरसात का अमरुद थोड़ा कच्चा जिसे गद्दर या अधपका कहते हैं, खाना ठीक रहता है. ज़्यादा पकने और पीला पड़ने पर इसमें कीड़े पड़ जाते हैं.
अमरुद कब्ज़ की बड़ी दवा है. पक्का अमरुद खाने से कब्ज़ दूर होता है. इसके लिए बेहतर ये है की अमरुद पर काली मिर्च का पाउडर और थोड़ा सा नमक छिड़क कर खाया जाए.
कच्चे और अधपके अमरुद को खाने से बलगम बनता है और खांसी भी हो सकती है. लेकिन अजीब बात ये है की पक्का अमरुद अगर भूनकर खाया जाए तो खांसी में आराम मिलता है और बलगम आसानी से निकल जाता है.
अमरुद का नियमित इस्तेमाल पेट को साफ़ करता है. इसमें रक्त को डिटॉक्स करने के गुण हैं.
अमरुद के पत्ते भी दवा में इस्तेमाल होते हैं. अमरुद के पुराने, पक्के पत्ते 3 - 4 की मात्रा में, थोड़ी सी गेहूं के आटे की भूसी, 3 -4 काली मिर्च जिन्हें टुकड़ों में तोड़ लिया गया हो और एक चुटकी नमक, ये सब एक से डेढ़ ग्लास पानी में डालकर पकने रख दें. जब पानी आधा रह जाए तो छानकर गुनगुना पीने से ज़ुकाम में राहत मिलती है. ये बिना पैसे का जोशांदा / काढ़ा है.
अमरुद की कोंपल भी बड़े काम की चीज़ है. इसके नए छोटे पत्ते और कोंपल चबाने से दांत मज़बूत होते हैं. मुंह के अल्सर, मुंह में दाने/छाले  इससे ठीक हो जाते हैं. इसके पत्तों को कुचलकर काढ़ा बनाकर ठंडा करके कुल्ला / गार्गल करने से भी लाभ मिलता है.
एक बड़े हकीम ने मुंह के छालों का इलाज फ्री में बिना किसी दवा के किया था. मरीज़ मुंह के छालों से बहुत परेशान था और दवा खा खाकर तंग आ चूका था. हकीम ने कहा अमरुद के पत्ते, गुलाब की पत्ती, हरा धनिया मरीज़ के सरहाने रख दो. मरीज़ इन तीन चीज़ों में से किसी न किसी पत्ती को अपने मुंह में रखे, किसी समय भी मुंह खाली  नहीं रहना चाहिए.
मरीज़ ने ऐसा ही किया और बगैर दवा के ठीक हो गया.


शनिवार, 25 जुलाई 2020

हरा पीला केला

केला ऐसा फल है जो सारे साल मिल सकता है. इसकी बहुत से वैराइटी हैं. छोटे से लेकर बड़ा तक, हरे, पीले से लेकर लाल, नारंगी तक इसके विभिन्न रंग हैं. इसकी अपनी विशेष सुगंध है. कमरे में रखो तो कमरे में इसी की सुगंध आने लगती है.
अजीब बात ये है के केले के पौधे में एक बार ही  फल आता है. ये फल एक लम्बे आकार के गुच्छे में लगते हैं जिसे केले की गहर कहते हैं. एक बार के बाद पौधा समाप्त हो जाता है. इसकी जड़ों से नए केले के पौधे निकलते रहते हैं. एक पौधा समाप्त होने के बाद दूसरा पौधा उसी जगह ले लेलेता है और इस प्रकार केले के पौधे और उसकी फसल मिलती रहती है.
केले का स्वाभाव ठंडा है. अपने ठन्डे स्वाभाव के कारण ये बलगम बनाता है और खांसी के मरीज़ों को नुकसान करता है. केला पचने में भी गरिष्ठ होता है. लेकिन अजीब बात ये है की केले के इस्तेमाल से डिसेंट्री ठीक हो जाती है. इसके लिए केले को सत - इसबगोल (इसबगोल की भूसी) के साथ खाते हैं. केला दस्तों को भी बंद करता है. सफर में बहुत अच्छा भोजन है. न जर्म्स का डर और न खाना ख़राब होने का झंझट.
शाम चार बजे दो केलों का नित्य प्रयोग कब्ज़ नहीं होने देता.
कच्चा केला सब्ज़ी के रूप में भी प्रयोग किया जाता है. इसके चिप्स भी बनाये जाते हैं.

हकीम या वैद्य जिन लोगों को भस्म का प्रयोग कराते थे उनके बुरे प्रभाव से बचने के लिए केले खाने को बताते थे. केला आंतो के लिए फायदेमंद है. इसका फल के रूप में नियमित प्रयोग बहुत से रोगों से बचाता है. ये जोड़ों और हड्डियों को स्वस्थ रखता है. और जोड़ों के दर्दों से बचाता है. ये हड्डियों को लचीला बनाता है. कैल्सियम की कमी दूर करता है. एनीमिया से निजात दिलाता है.
लेकिन ध्यान रहे की वही केला या कोई अन्य फल फ़ायदा करता है जिसमें केमिकल का प्रयोग न हुआ हो. आजकल फलों पर ज़हरीले स्प्रे किये जा रहे हैं. केले को पकाने के लिए भी केमिकल का प्रयोग होता है जो सेहत के लिए घातक है.
केला खाएं लेकिन ध्यान से.

लेडिस फिंगर

 न तो लेडीबर्ड कोई चिड़िया है, न डाबरमैन कोई आदमी है. इसी प्रकार  लेडिस फिंगर भी किसी वास्तविक महिला की उंगलियां नहीं हैं जिनकी सब्ज़ी लोग चाव से खाते हैं. इसे लोग ओकरु के नाम से जानते हैं. इसका साइन्टिफिक नाम अरबी के नाम अबुल-मिस्क के शब्द से बना है. इसे Abelmoschus esculentus कहते हैं. कॉमन भाषा में इसे Ladies Finger और भिन्डी के नाम से जाना जाता है.
इस पौधे की कच्ची फलियां सब्ज़ी के रूप में इस्तेमाल की जाती हैं. इस सब्ज़ी में लेस या चिपचिपापन होता है. इसके चिपचिपे स्वाभाव के कारण  ये आंतों में मौजूद बीमारियों के बैक्टीरिया को नष्ट कर देती है.
 भिन्डी कमाल का हर्ब है. इसमें ऐसे तत्व हैं जो न केवल कोलेस्ट्रॉल को घटाते हैं बल्कि उसके स्तर को नार्मल रखते हैं. लेडिस फिंगर ब्लड शुगर को ठीक स्तर पर लाती है. इसके यही दो  गुण बहुत महत्वपूर्ण हैं.
इसका चिपचिपा पदार्थ आंतो की सेहत के लिए बहुत अच्छा है. भिंडी के इस्तेमाल से आंतों विशेषकर कोलन कैंसर नहीं होता.
अजीब बात है की इसकी जड़ भी इसकी फलियों के तरह जालदार होती है. इसको पानी में भिगोने पर चिपचिपा पदार्थ निकलता है. जड़ का प्रयोग भी दवा के रूप में किया जाता है. जिनको गर्मी के रोग हों, स्त्रियों के श्वेत प्रदर, पुरुषों के धातुरोग में जड़ को रात को पानी में भिगोकर उसका पानी सुबह को शकर मिलाकर पीने से आशातीत लाभ होता है.

दक्षिण में नारियल

नारियल भारत के दक्षिणी भाग का एक मुख्य वृक्ष है. दक्षिण में नारियल और उत्तर में आम बहुतायत से पाया जाता है. नारियल के फल को ही नारियल कहते हैं. इसे गोला, गोलागरी, खोपरा, कोपरा आदि नामों से भी जाना जाता है. कोपरा अंग्रेजी भाषा का शब्द है जिससे बिगड़कर खोपरा बना है.
कच्चे नारियल में पानी होता है जिसे गर्मी के ड्रिंक के रूप में पिया जाता है. नारियल पर तीन आवरण होते हैं. पहला चिकना छिलका, इसके अंदर नारियल की जटा जो रेशेदार होती है. उसके बाद लकड़ी जैसा सख्त छिलका और उसके अंदर नारियल की गिरी या गूदा होता है. इस गिरी के अंदर पानी भरा होता है जिसका स्वाद मीठा होता है.
सूखे नारियल का प्रयोग मेवे के रूप में किया जाता है. इसमें बहुत अच्छी मात्रा में तेल होता है. नारियल का तेल खाने और लगाने के काम आता है.
दवाई के रूप में नारियल दिमाग को ताकत देता है. पेट के रोगों के लिए फायदेमंद है. जहां आंतों में खुश्की हो वहां नारियल के साथ मिश्री खाना बहुत फायदा करता है. कच्चे नारियल का इस्तेमाल एसिडिटी में फायदा करता है. दक्षिण के लोगों को जो नित्य खाने में किसी न किसी रूप में नारियल इस्तेमाल करते हैं एसिडिटी की प्रॉब्लम नहीं होती.
जिनके दिमाग में खुश्की हो, नींद न आती हो, भूलने की बीमारी हो वे अगर वैसे ही नित्य एक से दो इंच के नारियल का टुकड़ा रोज़ सुबह शाम खाएं, या फिर नारियल का हलवा अन्य मेवों जैसे बादाम, काजू आदि के साथ बनाकर खाएं तो इस बीमारी से छुटकारा मिल जाता है.
चावल से बनी कोई भी डिश खाने के बाद नारियल खाने से चावल आसानी से हज़म हो जाता है.
नारियल और सौंफ का इस्तेमाल खाना खाने के बाद एसिडिटी नहीं होने देता और ये प्रयोग आँखों की जनरल सेहत के लिए भी उपयोगी है.
नारियल के तेल की मालिश करने से शरीर पर झुर्रियां नहीं पड़तीं और बुढ़ापे का असर जल्दी नहीं होता.
खुजली में नारियल के तेल में कपूर मिलाकर लगाने से लाभ होता है.
नारियल का स्वाभाव ठंडा और तर है. जिन लोगों का मिज़ाज ठंडा है उनके लिए नारियल का प्रयोग सावधानी से ही उचित है.
कई लोगों को सर में नारियल का तेल डालने से नज़ला ज़ुकाम हो जाता है. ऐसे लोगों को नारियल के प्रयोग से बचना चाहिए.
दवाओं में नारियल का प्रयोग करने के लिए अन्य गर्म दवाएं मिलाकर नारियल के सवभाव को समरूप कर लिया जाता है.
नारियल बहुआयामी पौधा है. व्यापारिक तौर पर इसका बड़ा महत्त्व है. घर की छत में छप्पपर छाने के लिए नारियल के पत्तों का इस्तेमाल होता है. इसका छिलका जलाने के काम आता है. जटा से रस्सी, आदि बनायीं जाती है. खेती बागबानी के लिए कोकोपीट, नारियल का तेल, उसका बुरादा, नारियल की खली सब बड़े व्यापारिक महत्त्व की चीज़ें हैं.
नारियल ऐसा पौधा है जिसका सामाजिक जीवन और व्यापार में बहुत महत्त्व है. 

रविवार, 19 जुलाई 2020

धनिया

धनिया मसालों में प्रयोग होता है. शायद ही कोई डिश ऐसी हो जिसमें धनिया पाउडर या हरे धनिये का प्रयोग न होता हो. धनिया को सुगंध के लिए प्रयोग किया जाता है. धनिया जाड़ों की फसल है. इसे बरसात ख़त्म होने के बाद बोया जाता है. अक्टूबर से मार्च तक इसकी हरी पत्ती बहुतायत से मिलती है. फिर धनिये में बीज लग जाता है. इसके पौधे सूख जाते हैं. और धनिया के बीज को इकठ्ठा कर लिया जाता है.
धनिया का स्वभाव ठंडा है. खाने में इस्तेमाल होने वाले दुसरे मसाले जैसे हल्दी, तेजपात, काली मिर्च, लाल मिर्च  आदि गर्म स्वभाव के हैं. इसका खाने में इस्तेमाल मिर्च से होने वाले नुकसान को बचाता है. धनिया पेट में होने वाले अल्सर से सुरक्षा प्रदान करता है.
गर्मी से होने वाले सर दर्द में धनिये की हरी पत्ती का लेप माथे पर करना बहुत लाभकारी है. जिन लोगो का मिज़ाज गर्म हो और गर्मी के कारन वे परेशान रहते हों, उनके लिए धनिये की पत्ती पानी में घोटकर पिलाने से गर्मी से जनित रोगों से निजात दिलाती है.
जब धनिये की पत्ती उपलब्ध न हो तो सूखा धनिया पाउडर भी यही लाभ करता है. 

नीबू को कौन नहीं जानता

नीबू को कौन नहीं जानता और कौन ऐसा है जिसने नीबू कभी इस्तेमाल नहीं किया. नीबू एक जाना माना  फल है. ये ऐसा पौधा है जिसकी बहुत सी किस्में हैं.
आम तौर पर जो नीबू बाजार में मिलता है उसे देसी नीबू या कागज़ी नीबू कहते हैं. कागज़ी इस लिए की इसका छिलका कागज़ के समान पतला होता है. इसका रंग हल्का पीला होता है जो खुद में नीबू के रंग के नाम से प्रसिद्ध है.
नीबू की दूसरी किस्में - जम्भीरी नीबू जो बड़े आकार के होते हैं. बारामासी नीबू जिसमें साल के हर मौसम में फल आते हैं. अण्डाकार नीबू के अलावा भी बहुत सी किस्में हैं. नीबू की पत्तियों में भी नीबू की सी खुशबु आती है. नीबू की सुगंध किसी को भी ख़राब नहीं लगती.
नीबू का प्रयोग मीट मछली की डिश में मीट की विशेष गंध समाप्त करने के लिए किया जाता है. नीबू दुर्गन्ध को दूर करता है. मीट मछली की डिश बनाने में मॅरिनेट करने के लिए इस्तेमाल होता है. इसके टुकड़े काटकर कमरे में रखने से हवा शुद्ध हो जाती है और कमरे में अच्छी सुगंध आती है.
नीबू का गुण अम्लीय है. ये हल्का एसिड है. इसे सलाद, शिकंजी, शरबत, में इस्तेमाल किया जाता है.
नीबू जी मिचलाने में लाभकारी है. इसको नमक लगाकर या बिना नमक के चाटने से जी मिचलाना और उल्टी रुक जाती है. नीबू निर्जलीकरण या डिहाइड्रेशन से बचाता है. पानी में नीबू निचोड़कर उसमें थोड़ा नमक मिलाकर थोड़ा थोड़ा पिलाने से फ़ायदा होता है.
जब इमरजेंसी में कोई दवा पास न हो और डाक्टर भी आसानी से न मिल सकता हो तो ये साधारण प्रयोग उल्टी दस्त के मरीज़ की जान बचा सकता है.
नीबू का बीज पत्थर पर घिसकर पिलाने से भी उल्टी रुक जाती है. ये अचूक  प्रयोग है.
 नीबू में ब्लड को डिटॉक्स करने या खून साफ़ करने के गुण हैं. विशेषकर खून में से ये अत्यधिक पित्त को घटाता है. इसलिए ये लिवर के रोगों में जहां ब्लड में पित्त की मात्रा बढ़ गयी हो अचूक दवा है.
सुबह खाली ली पेट नीबू का गर्म पानी के साथ इस्तेमाल चुस्ती फुर्ती लता है. वज़न कम  करने में सहायक है.
नीबू का छिलका अंदर की तरफ से दांतों और मसूढ़ों पर मलने से गंदगी को साफ़ करता है और मसूढ़ों की सूजन घटाता है. ये शुरू के पायरिया और दांतों से खून आने में मुफीद है.
अजीब बात है की नीबू एसिड होते हुए भी एसिडिटी के लिए अचूक दवा है. एसिडिटी के मरीज़ों के लिए ज़रूरी है की वह खाना खाने से ठीक आधा घंटा पहले आधा कप पानी में आधा नीबू निचोड़कर पी लें. ऐसा करने से एसिडिटी से निजात मिल जाती है.
ये प्रयोग उन लोगों पर आज़माया जा चुका है जो एसिडिटी के पुराने मरीज़ थे और एन्टासिड जेल और टैबलेट खाकर तंग आ चुके थे.  

शनिवार, 18 जुलाई 2020

देसी दवाओं की नाकामी

जिन जड़ी बूटियों के चमत्कार के बारे में हम पढ़ते, सुनते हैं उनका वैसा फ़ायदा नहीं मिलता. क्या देसी जड़ी बूटियों में अब वह गुण नहीं रह गए हैं जो चमत्कार करते थे. या वह हकीम/वैद्य नहीं रहे जिन्होंने घास फूस से बड़े बड़े मर्ज़ ठीक किये थे.
देसी दवा क्यों फ़ायदा नहीं करती ये प्रश्न अक्सर पूछा जाता है और इसका संतोषजनक उत्तर न मिलने से जड़ी बूटियों और देसी चिकत्सा विज्ञान से लोगों का भरोसा उठ जाता है.
प्रत्येक चिकत्सा विज्ञान की तकनीक और उसके विशेष रहस्य होते हैं. दवाओं का पढ़ना, समझना और जानना एक अलग कार्य है उनके प्रयोग की तकनीक एक अलग विषय है.
जड़ी बूटी का सही प्रयोग और प्रयोग का सही समय समझना बहुत ज़रूरी है. एक व्यक्ति जो रीढ़ की हड्डी के दर्द और जोड़ों की कड़कड़ाहट (जोड़ों से आवाज़ निकलना) से परेशान था शहर के मशहूर हकीम के पास गया. अक्टूबर का महीना था, सर्दी की शुरुआत हो चुकी थी. हकीम ने कहा तुम होली के बाद आना तब तुम्हारा इलाज करेंगे. ये हकीम ऐसे थे जो फलों और रोज़ इस्तेमाल में आने वाली चीज़ों जैसे धनिया, पुदीना, इमली आदि से इलाज करते थे. दवा से इलाज उनके पास नाम मात्र का था. मरीज़ों को इतना लाभ होता था की उनकी दुकान पर सुबह 4 बजे से लाइन लग जाती थी. सस्ता ज़माना था, उनकी फीस मात्र 5 रूपये थी और वह भी गरीबों से नहीं लेते थे. पहले के हकीम वास्तव में इंसानियत की सच्ची सेवा करते थे.
होली की बाद जब वह मरीज़ हकीम  के पास गया और हाल बताया  तो हकीम साहब ने उसे एक फल पर काली मिर्च का पाउडर, थोड़ी सी शकर, थोड़ा सा नमक छिड़ककर खाने को बता दिया. इस दवा ने चमत्कारी लाभ किया. वही मरीज़ पहले इंजेक्शन भी लगवा चुका था और बहुत सी दवाएं खा चुका था.
अब सवाल पैदा होता है क्या वह फल जो हकीम ने बताया अक्टूबर के महीने में नहीं मिलता था. फल ऐसा था जो लगभग साल भर बाजार में मिलता था. अक्टूबर में भी इस्तेमाल किया जा सकता था. लोग उसे खाते थे. उसके दवाई गुण लोगों और हकीमों को भी पता नहीं थे. लेकिन दवा के  सही समय के प्रयोग ने चमत्कार किया था.
यही हकीम साहब जिस फल वाले से फल खरीदते थे एक दिन वह अपनी दुकान जल्दी बढ़ा रहा था. उन्होंने पूछा आज दूकान जल्दी क्यों बंद कर रहे हो. फल वाले ने कहा सर में दर्द है, बुखार सा लग रहा है. जाकर डाक्टर को दिखाऊंगा. हकीम साहब बोले दवा तुम्हारे पास है तो  डाक्टर को दिखने की क्या ज़रुरत है. अभी दवा इस्तेमाल करो और ठीक हो जाओ.
हकीम साहब ने एक फल का रस निचोड़कर उसमें काली मिर्च का पाउडर डालकर पीने को बता दिया. हकीम साहब अपने घर चले गये. मरीज़ ने फल का जूस पिया और उसका दर्द और बुखार ठीक हो गया.
लगभग दो हफ्ते बाद हकीम साहब फिर उसकी दुकान पर पहुंचे. वह दुकान पर बैठा बुरी तरह खांस रहा था.
उनहोंने पूछा क्या हाल है. दुकानदार बोला हकीम जी उस दिन आपके बताये फल के जूस से बहुत फ़ायदा हुआ. दर्द और बुखार ठीक हो गया. दो तीन दिन पहले फिर वैसे ही सर में दर्द हुआ और बुखार सा लगने लगा. मैंने वही आपका बताया जूस इस्तेमाल किया. उससे बुखार और बढ़ गया. सीना जकड गया. डाक्टर को दिखाया. बुखार तो चला गया लेकिन खांसी बहुत आ रही है.
हकीम साहब ने कहा - एक ही दवा क्या हर मौसम में फ़ायदा करेगी?
जिस तरह दवा की प्रयोग में समय या मौसम का संयोग ज़रूरी है उसी तरह दवा की हार्वेस्टिंग, उसे तोड़ने, उखाड़ने, सुखाने में भी उचित समय का ध्यान रखा जाना चाहिए.
कुछ दवाएं जैसे बबूल की फली कच्ची प्रयोग की जाती हैं. दवा के लिए ऐसी बबूल के फली चाहिए जिसमें बीज न पड़ा हो, यदि पड़ गया हो तो कच्ची अवस्था में हो. पक्की फली जिसमें बीज पक चुका हो काम की नहीं है.
इसके उलट सिरिस की फली जब उसका बीज पक जाए तब काम की होती है. लेकिन सिरिस के फली पकते ही चटक कर खुल जाती है और बीज बिखर जाते हैं. अब दो तरीके हैं. पहला सिरिस के पेड़ों के नीचे से बीज बीने जाएं. या फिर फली जब पकने के करीब हो लेकिन पूरी पकी न हो तोड़ ली जाए और धूप में सुखाकर बीज इकठ्ठा किये जाएं.
इन सबके लिए मौसम की जानकारी ज़रूरी है. बबूल की कच्ची फली इकठ्ठा करने के लिए पता लगाएं बबूल के पेड़ कहां हैं. कच्ची फलियां अप्रैल से मई तक मिल सकती हैं. ये भी देखा जाए वह पेड़ देसी बबूल का है, या विदेशी बबूल है जिसकी फली तलवार की तरह मुड़ी हुई होती है. दवा में जिस  बबूल की ज़रुरत है उसकी फली की शक्ल आप इसी ब्लॉग   बोया पेड़ बबूल का   में देख सकते हैं.
सिरिस के पक्के बीज फरवरी से मार्च तक मिल सकते हैं. अप्रैल में भी ये बीज इकठ्ठा किये जा सकते हैं.
इसी तरह पेड़ो की जड़ों को उखाड़ने में भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि जड़ें कब ली जाएं. सेमर के दो वर्ष के पेड़ की जड़ दवा में प्रयोग की जाती है. एक वर्ष के पेड़ की जड़ में वह गुण नहीं होता जिसकी ज़रुरत है. अधिक पुरानी जड़ों के गुण भी छीण हो जाते हैं. मुलेठी के भी दो वर्ष के पौधों के जड़ उपयोगी है.
फूल, पत्ती और छाल के पेड़ों से लेने का समय और पेड़ की आयु की जानकारी ज़रूरी है.
अब आता है दवाओं में मिलावट और गलत पहचान का सवाल. दवाओं में जान बूझ कर मिलावट की जाती है. कुछ दवाओं में खर पतवार मिल जाती है. कुछ दवाएं गलत पहचान के कारण प्रयोग करने से फ़ायदा नहीं करतीं. गलत पहचान कभी कभी गंभीर नुकसान कर सकती है.
एक मोहतरमा ने अपने रिश्तेदार को जो पेचिश के मरीज़ थे, चुनिया गोंद दही में मिलकर खाने को कहा. उनहोंने चुनिया गोंद पंसारी की दुकान से मांगकर दही के साथ खाया. पेचिश बहुत बिगड़ गयी. अस्पताल में भर्ती होना पड़ा और मसूढ़ों के इंफेक्शन से दांत भी गिर गये.
ऐसे बहुत से कारण हैं जिसकी वजह से दवाएं फायदा नहीं करतीं. और लोग देसी चिकित्सा पद्धति को बदनाम करते हैं.
इसके आलावा दवाओं के बनाने में भी कुछ रहस्य हैं. किसी महोदय ने एक हकीम से नुस्खा लिखवा लिया कि दवा वह खुद बना लेंगे. नुस्खा कुछ इस प्रकार था:
(1) बादयान नीम-ब्रशत  (2)सातर फ़ारसी,  (3) शाजन्ज हिंदी, (4) मस्तगी रूमी, सबका सफूफ बना लें.
सुबह शाम 3 माशा खाएं.
मरीज़ ने बाजार से दवा मंगवाई. बादयान नीम-ब्रशत के नाम पर सौंफ मिली. बादयान हकीम लोग सौंफ को लिखते हैं. अब रह गया नीम-ब्रशत, ये दवा का एक प्रकार का ट्रीटमेंट था जो मरीज़ को पता नहीं था. सातर फ़ारसी एक प्रकार का पहाड़ी पोदीना था, शाजन्ज हिंदी वही तेजपात था जिसे खाने की डिश में प्रयोग किया जाता है. मस्तगी रूमी एक प्रकार का सुगन्धित गोंद था.
मरीज़ ने बिना नीम-ब्रशत किये सौंफ और बाकी तीन दवाएं कूटना शुरू कर दीं. मस्तगी रूमी ने चिपककर सारी दवाओं का एक गोला सा बना दिया. अब ये चिपचिपा पदार्थ न तो कूट सकता था न पीसा जा सकता था. उसे दवा बनाने की  तरकीब मालूम नहीं थी. इसलिए सब दवाएं आखिर में फेंकना पड़ीं.
दवाओं के नाम में भी भ्रम हो जाता है. तालमखाना और फूल मखाना के नाम से सभी वाकिफ हैं. ये गोल गोल भुने हुए बीज जिन्हे फॉक्स नट कहते हैं, मेवे के रूप में घरों में इस्तेमाल किये जाते हैं. दवाओं में भी पड़ते हैं. लेकिन इसी  कॉमन नाम तालमखाना से एक दूसरी दवा भी है जो एक छोटे आकार का बीज है. ये बीज एस्टरकेंथा लांगीफोलिया एक अलग चीज़ है. जिसे दवाओं के बारे में ज्ञान नहीं है वह तालमखाना पढ़कर जब दवा खरीदेगा तो दुकानदार का नौकर उसे वही कॉमन मखाना दे देगा.
कुछ लोग फूल मखाना को कमल के भुने हुए बीज समझते हैं. लेकिन कमल का बीज एक अलग चीज़ है. ये बीज भी दवाओं में इस्तेमाल होते हैं. तब इसे कमलगट्टा कहते हैं. कमल के बीजों का आवरण बहुत सख्त होता है.
कुछ दवाएं महंगी होने की वजह से उनका बदल प्रयोग किया जा रहा है. गुलबनफ्शा, जिसे गुलबनक्शा भी कहते हैं, एक महंगा फूल है. ये ठन्डे और पहाड़ी स्थानों का पौधा है. गुलबनफ्शा के स्थान पर बर्ग बनफ्शा, या बनफ्शा की सूखी पत्तियां इस्तेमाल की जा रही हैं.  इन पत्तियों में भी घास फूस की मिलावट होती है. पुरानी होने की वजह से भी इनका लाभ नहीं मिलता. देसी चिकित्सा पद्धति बदनाम होती है.
हकीमों और वैद्यो ने इसका भी तोड़ निकाला, उन्होंने इसकी जगह जोशांदे में हंसराज इस्तेमाल करना शुरू किया. हंसराज सस्ती दवा है. लेकिन ये बूटी भी मिलावट से बची नहीं है. दूसरी बात वही पत्तियों का पुराना होना है जिससे असर कम हो जाता है.



गुरुवार, 12 मार्च 2020

पेड़ पौधों का दवा में इस्तेमाल

 पेड़ पौधे दवा में इस्तेमाल करने से पहले उनके बारे में जानना बहुत ज़रूरी है. आम तौर से पेड़ पौधों की  पांच चीज़ें  दवा के रूप में इस्तेमाल होती  हैं.  ये भाग  हैं - पत्तियां, फूल/कलियां , फल/बीज, छाल और जड़. इन्हें ही पंचांग कहा जाता है.
कुछ जड़ी बूटियां फूल, पत्ते और शाखों के साथ पूरी इस्तेमाल की जाती हैं. जड़ हटा कर पूरा पौधा दवा के काम में लाया जाता है. जड़ी बूटी के उखाड़ने, पेड़ों से दवा के अवयव इकठ्ठा करने का एक उपयुक्त समय होता है. इस उपयुक्त समय में लिया गया पौधा या जड़ी बूटी अच्छी तरह से काम करता है.
कुछ जड़ी बूटियां पूरी तरह से परिपक्व हो जाने पर या सूखने पर उखाड़ी जाती हैं, कुछ फूल निकलने पर जब उनमें बीज न बना हो. कुछ फल और बीज आने पर उखड़ी जाती हैं. जिन पौधों की जड़ काम में आती है वे लगभग एक साल पुराने हों. कुछ पौधों की जेड दो साल के पौधे से ली जाती हैं.
फूल और पत्तियां एक साल तक ठीक फायदा देती हैं. मजबूरी में इन्हे दो साल तक इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन ये ख़राब न हुई हों, इनमे. फफूंदी न लगी हो और कीड़ों ने न खाया हो. बीज भी एक वर्ष से दो वर्ष तक ठीक रहते हैं उसके बाद उनकी शक्ति कमज़ोर पड़ जाती है.
पेड़ों की छाल ज़्यादा दिनों तक रखने से काम की नहीं रहती.
जड़ें बहुत दिनों तक ठीक रहती है. लेकिन ये देख लेना चाहिए की कीड़ा लगकर ये ख़राब न हो गयी हों.
जड़ी बूटियों के इस्तेमाल में एक और समस्या आती है. इन्हें हरे/कच्चे रूप में इस्तेमाल किया जाए या सूखे रूप में. कुछ जड़ी बूटियां हरी इस्तेमाल की जाती हैं. जैसे लिवर की सूजन के लिए कासनी, कसौंदी और मकोय, हरी अवस्था में इनके पत्ते इस्तेमाल किये जाते हैं. सांठ भी हरे रूप में इस्तेमाल होती हैं. गुलाब के फूल सूखी अवस्था में इस्तेमाल किये जाते हैं. लेकिन गुलकंद बनाते समय गुलाब के ताज़े फूल ही प्रयोग किये जाते हैं. सूखे फूलों का गुलकंद उतना फायदा नहीं करता.
इस्तेमाल से पहले कुछ जड़ी बूटियों को शुद्ध किया जाता है जिससे उनके विषैले प्रभाव से बचा जाए. मुलेठी जो एक जड़ है, को इस्तेमाल करने से पहले उसकी छाल को उतार दिया जाता है और अंदर की लकड़ी प्रयोग की जाती है. सना की पत्तियों में से सना की फलियां, उनके तिनके अलग कर दिए जाते हैं क्योंकि ये पेट में दर्द पैदा करते हैं. कौंच के बीजों के इस्तेमाल से पहले दूध में उबाल कर उनका विषैलापन दूर किया जाता है और उनका छिलका भी उतार दिया जाता है.


कुछ दवाएं भूनकर प्रयोग को जाती हैं. कुछ पानी में भिगोकर प्रयोग की जाती हैं.
ज़हरीली दवाओं का प्रयोग सावधानी से किया जाता है. पहले इनके ज़हरीले प्रभाव को कम करने के उपाय किये जाते हैं जिससे केवल दवा की शक्ति का ही उपयोग किया जाए. ऐसा न हो कि दवा बजाय फायदे के नुकसान करे. भिलावां एक ऐसी दवा है जिसके इस्तेमाल से, या शरीर पर उसका रस लग जाने से सूजन आ जाती है. ऐसी दवा का प्रयोग करने से पहले भिलावां के फल से उसका चिपचिपा, काला पदार्थ जिसे भिलावां का शहद भी कहते हैं निकाल दिया जाता है. बाद में इस दवा को अन्य दवाओं के साथ मिलाकर जिससे इसके ख़राब गुण समाप्त हो जाएं, इस्तेमाल किया जाता है.
मुलेठी का ऊपर का छिलका उतार कर ही प्रयोग किया जाता है. कहा जाता है की ऊपर की छाल में कुछ ऐसे तत्व होते हैं जो नुकसान कर सकते हैं. मुलेठी को जोशांदे  में डालने से पहले उसे कुचल लिया जाता है जिससे उसका असर जोशांदे में ठीक प्रकार से आ जाए. 
इसी प्रकार गुर्च को भी प्रयोग से पहले कुचल लिया जाता है जिससे अगर काढ़ा बना रहे हैं तो उसका पूरा असर मिल सके. 





बुधवार, 11 मार्च 2020

लभेड़ा

लभेड़ा एक आम माध्यम ऊंचाई का वृक्ष है. इसकी आम तौर से दो किस्में पायी जाती हैं. एक पेड़ जिसके फल पूरी तरह गोलाई लिए हुए नहीं होते, ये कुछ चपटे से, आगे से नुकीले होते हैं. इसके फल बरसात के मौसम में पक जाते हैं. इनका रंग पकने पर प्याज़ी हो जाता है. खाने में ये मीठे और चिपचिपे होते हैं. इसके अंदर चिपचिपा गूदा भरा होता है. इसे ही लभेड़ा कहते हैं.


इसकी दूसरी किस्म वह है जिसके फल बड़े और गोलाई लिए होते हैं. इसे लाशोरा, लहसोड़ा, लसोड़ा, कहते हैं. इसके फल गर्मी, बरसात के मौसम में कच्चे, हरे सब्ज़ी बाजार में भी मिल जाते हैं. इन्हें सिरके में डाला जाता है और अचार के रूप में प्रयोग किया जाता है.


लभेड़ा और लहसोड़ा दोनों के गुण सामान हैं. लेकिन हकीमी दवाओं में लभेड़ा बहुतायत से प्रयोग होता है. नज़ले जुकाम के जोशांदे का ये मुख्य अव्यव है. खांसी के लिए विशेष दवा है. हकीमी दवाओं में सूखा लभेड़ा प्रयोग किया जाता है - इसे सपिस्तां कहा जाता है. सूखे लभेड़े का प्रयोग जोशांदे के आलावा, खांसी के नुस्खों, एसिडिटी कम करने की दवाओं और दवाओं की खुश्की  कम करने में भी होता है. जैसा की ऊपर लिखा जा चूका है इसकी एक बड़ी वैराइटी भी होती है जिसे लहसोड़ा, लाशोरा, लसोड़ा कहते हैं. इसलिए कुछ लोग इस छोटी वैराइटी को लसोड़ियां भी कहते हैं. लेकिन इसका मुख्य नाम लभेड़ा है. 
लभेड़े के पक्के फल खाने से एसिडिटी की समस्या दूर हो जाती है. 


लभेड़े का स्वभाव गर्म-तर है. ये बलगम को निकालता है. बार बार खांसी आने और सुखी खांसी में विशेष रूप से लाभ करता है. कब्ज़ में भी फायदा करता है.
लभेड़े  के पत्ते, अमरुद के पत्ते, गेहूं के आटे की भूसी (जो आटा  छानने से निकलती है) और थोड़ा सा नमक डालकर दो कप पानी में पकाएं. जब पानी आधा रह जाए तो छानकर पीने से नज़ला ज़ुकाम में बहुत लाभ होता है.
स्पर्मेटोरिया में लभेड़े के पक्के फल रोज़ाना सुबह शाम खाने से बहुत लाभ मिलता है. इसके लिए लहसोड़े के पक्के फल लभेड़े के फलों ज़्यादा लाभकारी हैं. 

मंगलवार, 10 मार्च 2020

जड़ी बूटियां और खर-पतवार

जड़ी बूटियों के बीजों का बिखराव और उनकी देख-भाल नेचर के द्वारा की जाती है. कुछ जड़ी बूटियां खेतों में फसलों के साथ उगती हैं. उनके बीज फसलों के साथ मिक्स हो जाते हैं. इसके आलावा बहुत से बीज खेतों में गिर जाते हैं. जिन्हें नेचर अगले सीज़न तक संभाल कर रखती है. और सीज़न में ये फिर से फूट निकलते हैं.
खेतों में खर-पतवार के साथ जड़ी बूटियां भी जमती हैं. ये पौधे खेतों के आलावा भी खाली पड़े स्थानों पर उगते हैं. लेकिन खेतों में उगने से इन्हे समय पर खाद-पानी मिलता रहता है जिससे इनकी बढ़वार अच्छी होती है.
लेकिन किसानों के लिए खर-पतवार एक बड़ी समस्या है. पहले खेती के अच्छे साधन न होने से फसलों की निराई की जाती थी जिसमें अन्य पौधे निकाल दिए जाते थे. खर-पतवार नाशक दवाओं के इस्तेमाल से  किसानों को जहां ये फायदा हुआ है की फसलों से फालतू पौधों को नष्ट करना आसान हो गया है वहीँ दवाई के काम के पौधे / जड़ी बूटियां ख़त्म हो गयी हैं. इससे नेचर में पौधों की विविधता समाप्त हो गयी है. इको सिस्टम बिगड़ रहा है.
खेतों के आलावा खाली पड़े स्थानों और गांव के किनारे जहां थोड़ा बहुत जंगल था, वहां के पेड़ पौधे भी इंसानी दखल से समाप्त हो चुके हैं. कमर्शियलाइजेशन ने किसी भी खाली पड़ी ज़मीन और जंगल को नहीं छोड़ा है. इससे जड़ी बूटियां, पेड़, पौधे और जीव - जंतु भी नष्ट हुए हैं.
गुज़रे ज़माने में खुदरौ (बिना बोये खुद उगने वाली) जड़ी बूटियां बिना पैसा खर्च किये मिल जाती थीं. गोरखमुंडी, बाबूना (कैमोमिला ), सरफोंका, ऊंटकटारा आदि ऐसी ही जड़ी बूटियां थीं, जिन्हें जानकार किसान हकीमो और वैद्यों को थोड़े से पैसों में बेच आते थे. इससे हकीम भी मरीज़ों से काम पैसे लेते थे और किसानो को भी कुछ आमदनी हो जाती थी. सीज़न पर ताज़ी जड़ी बूटियां मिल जाने से से वह अच्छा काम भी करती थीं.
बेकार समझे जाने वाले पौधों की सफाई, खर-पतवार नाशक स्प्रे का प्रयोग जड़ी बूटियों को ख़त्म कर रहा है. इस स्प्रे से शरीर में अनचाहे ज़हर पहुंच रहे हैं और भूमिगत जल भी ज़हरीला हो रहा है. इको सिस्टम में ये दखल- अंदाज़ी इंसान की सेहत के लिए बहुत घातक साबित हो रही है.
अब जड़ी बूटियों की खेती की जा रही है. हर्बल के नाम पर बड़ा बिज़नेस खड़ा हो गया है. हर्बल दवाएं अब सस्ती नहीं रहीं हैं. वास्तविक हर्बल इलाज फेल हो चुका है और उस पर उपभोक्तावाद का रंग चढ़ गया है. जड़ी बोटियों से इलाज करने और कराने वालों के लिए ये समस्याएं हैं:
1. जड़ी बूटियों का आसानी से नहीं मिलतीं.
2. जड़ी बूटियां महंगे दामों मिलती हैं.
3. वे असली हैं या नकली - उनकी पहचान मुश्किल है.
4. पुरानी रखी हुई बूटियां मिलती हैं जिनका असर कम होता है.
5. महंगी जड़ी बूटियां मिलावट वाली या नकली मिलती हैं.
केसर (ज़ाफ़रान) जो दवा के अलावा धार्मिक कामो और खाने में काम आती थी, महंगी होने की वजह से नकली भी बेचीं जा रही है. पानी में डालते ही रंग छोड़ती है और वैसी ही ज़ाफ़रानी सुगंध आती है. अब जिस दवा में असली ज़ाफ़रान पड़ना हो, नकली ज़ाफ़रान उसमें क्या काम करेगी. बाद में यही कहा जाएगा कि देसी दवा अब काम नहीं. करती.
बड़ी कंपनियां जड़ी बूटियों के खेती करवा रही हैं. या फिर खेती करने वालों से खरीद रही हैं. यहां भी वही मामला है. खाद पानी लगाकर ज़्यादा से ज़्यादा जड़ी बूटियां उगाई जा रही है. जो जड़ी बूटियां विशेष तापमान चाह्ती हैं उनके लिए वैसा तापमान सुनिश्चित किया जा रहा है. यही जड़ी बूटियां अब दवाओं में इस्तेमाल की जा रही हैं.
इसके साथ साथ बिज़नेस बढ़ाने के लिए बिना ज़रुरत भी लोगों को जड़ी बूटी के नाम पर क्या क्या खिलाया, पिलाया जा रहा है. घीग्वार, ग्वारपाठा घृतकुमारी, जिसे आजकल सभी लोग एलोवेरा के नाम से जानते है का दवाई के रूप में इतना प्रचार किया गया है जैसे हर रोग का पक्का इलाज केवल और केवल एलोवेरा ही है. शैम्पू, साबुन, तेल, के साथ साथ, एलोवेरा का जूस लोगों को पिलाया जा रहा है.
बिज़नेस टैक्टिस की मानसिकता ने मानव जाति का बहुत अहित किया है. हर्बल के नाम पर मुर्ख बनाने का ऐसा धंधा चला है कि अब सब्ज़ियां भी ऑर्गेनिक के नाम पर बिकने लगी हैं. एक बड़ी दवा कंपनी ने मेंथोल, क्लोरोफार्म, और अन्य दवाएं  मिलाकर एक दवा बनायी जिसे पेट दर्द की दवा के नाम  से प्रचारित किया गया. क्योंकि इसमें मेंथोल था जो पुदीने का सत कहलाता है इसलिए इसका नाम पुदीने के नाम  पर रख दिया गया. क्लोरोफार्म क्योंकि अचेतावस्था उत्पन्न करता है इसलिए पेट में जाते ही दर्द शांत हो जाता था. लेकिन यहां पर ही केमिस्ट्री का एक पेच था. क्लोरोफार्म को कभी भी ऐसी बोतल में नहीं रखा जाता जिसमें क्लोरोफार्म के ऊपर स्थान खली हो क्योंकि हवा/ ऑक्सीजन के संपर्क में आने पर ये फास्जीन नाम की ज़हरीली गैस बना लेता है. इसलिए क्लोरोफार्म हमेशा मुंह तक भरी बोतल में ही रखते हैं.
इसी फास्जीन गैस के कारण कुछ लोग इस दवा का इस्तेमाल करके दुनिया से चले गये. बाद में इसके कम्पोज़िशन से क्लोरोफार्म हटाया गया.
कंपनियां हर्बल और ऑर्गेनिक  के नाम पर जो धंधा कर रही हैं, ये न समझा जाए कि ऐसी सभी दवाएं सुरक्षित हैं.
हर्बल के नाम पर जड़ी बूटियां बेची जा रही हैं. हर्बल शैम्पू में झाग, हर्बल क्रीम में सॉफ्टनेस, पैदा करने के लिए वही फार्मूले अपनाये जा रहे हैं जो कमर्शियल शैम्पू और क्रीम बनाने वाले इस्तेमाल करते हैं. दर्द निवारक हर्बल दवाएं खतरे से खाली नहीं हैं. धोखा देने के लिए हर्बल के नाम पर पेन किलर और एस्टेरॉइड्स खिलाए जा रहे हैं. एक व्यक्ति ने कई साल तक जोड़ों के दर्द का देसी इलाज करने वाले से लेकर दवाएं खायीं. बाद में पता चला कि उसके गुर्दे फेल हो गए क्योंकि दवा में पेन किलर मिला हुआ था. 

रविवार, 8 मार्च 2020

नेचर जंगल कैसे उगाती है

 पृथ्वी का खाली पड़ा भूभाग जहां पेड़ों के उगने के लिए उपयुक्त परिस्थितियां हों, जंगल में बदल जाता है. नेचर का जंगल उगाने का अपना सिद्धांत है जो कभी फेल नहीं होता. यदि किसी भी ज़मीन, मकान  को कुछ वर्षों के लिए खाली छोड़ दिया जाए तो उसमें जंगली पौधे उग आते हैं.
प्रकृति द्वारा बीजों और फलों के बिखरने और दूर दूर तक पहुंचाने का इंतेज़ाम किया जाता है. कुछ बीज बहुत हलके, और छोटे होते हैं और प्रकृति के साधनो - हवा, पानी के साथ दूर दूर तक पहुंच जाते हैं. कुकुरमुत्ते और बहुत से फंगस के बीज आंख से भी नज़र आते.
हवा से बिखरने वाले बीजों में कुछ बीज पंख वाले होते हैं. इन बीजों में चिलबिल एक अच्छा उदहारण है. इसके बीज के चारों ओर पतला आवरण होता है जो हवा में बखूबी उड़ सकता है.   कुछ बीज रेशेदार होते हैं जो हवा में दूर तक उड़ सकते हैं. जैसे आक या मदार  के बीज जिसके सफ़ेद रेशे (जिन्हें आक की रूई कहा जाता है) एक गोले का रूप ले लेते हैं जिनके बीच में बीज होता है. ये बीज हवा के साथ उड़कर दूर दूर चले जाते हैं. अब कहीं तो इन्हे गिरना ही  है. उचित परिस्थितियां मिलने पर इन बीजों से नए पौधे निकलते हैं.
कुछ बीज कांटेदार या रोएंदार होते हैं. कांटेदार बीजों में बड़ा सा बीज बघनखी का होता है. जिसके दो मुड़े हुए कांटे होते हैं. चिड़चिड़े या लटजीरे के बीज भी कांटेदार होते हैं. ऐसे बीज जानवरों के चिपक जाते हैं. और इस तरह दूर दूर तक बिखर जाते हैं.
फलियों में लगने वाले बीज फलियां चटकने पर दूर तक छिटक जाते हैं. गुलमेंहदी इसका अच्छा उदहारण है. इसकी पक्की फली में हाथ लगते ही फली चटक कर बीज छिटक जाते है.
पीपल, पाकड़, बरगद, गूलड़ और अंजीर ये ऐसे पौधे हैं जो दूध / लेटेक्स वाले हैं. दूध वाले पौधे जल्दी नहीं सूखते. इनके बीज भी छोटे होते हैं. इनके बीजों का कवर सख्त होता है. चिड़ियां इन पौधों के फलों के गूदे के साथ हज़ारों की मात्रा में बीज खा जाती हैं. फिर ये चिड़ियां कहीं भी - बिल्डिंग के ऊपर, किसी पेड़ पर, ज़मीन पर मलत्याग (बीट ) करती हैं. इस तरह ये चिड़ियां इन पेड़ों के बीजों को दूर दूर तक पहुंचा देती हैं.
पेड़ों और जानदारों (जिसमें जानवरों के साथ आदमी भी शामिल है ) का इको - सिस्टम (पारिस्थितिकी) में महत्वपूर्ण योगदान है. दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं. पेड़ न केवल चिड़ियों का बल्कि अन्य जानवरों का पेट भी भरते हैं. यदि हम पीपल, पाकड़, बरगद, गूलड़ और अंजीर जैसे पौधों की बात फिर से करें तो पता चलता है कि  बन्दर भी पेट भरने के लिए इन पौधों के फल खाते हैं. इन पौधों के बीजों के छिलके / आवरण ऐसे होते हैं जो पेट की गर्मी और पाचन एंजाइम से भी नष्ट नहीं होते. इन की बीट से निकले बीजों से नये पौधे निकलते हैं. चिड़िया के पाचन तंत्र से गुजरने के बाद इन बीजों में जमने की क्षमता बढ़ जाती है. पाचन रस से इनके बाहरी आवरण कुछ कमज़ोर पड़ जाते हैं और बीजों का जमना आसान हो जाता है. बीट से थोड़ी सी खाद भी मिल जाती है जो नन्हे पौधे को बहुत सहारा देती है.
चमगादड़ जैसे जानवर, कौए भी बीजों को दूर दूर तक पहुंचाते हैं. नीम के पक्के फल जिन्हें निमोली, निमकौली आदि कहा जाता है, कौए और चमगादड़ बड़े शौक से खाते हैं. ये एक साथ कई फल खाकर उड़ते हुए गुठलियां फ़ेंक देते हैं. इस तरह ये बीज दूर दूर पहुंच जाते हैं.
वे बीज जो बड़े और भारी हैं. उनके फलों में स्वादिष्ट गूदा होता है जैसे आम का फल. इन फलों को आदमी और जानवर दूर दूर तक ले जाते हैं और फल खाकर गुठली फ़ेंक देते हैं. कभी कभी ऐसे फल और बीज हज़ारों किलोमीटर का सफर तय कर लेते हैं.
चीटियां, गिलहरियां और दुसरे जानवर भी बीजों को इधर उधर फैलाने में मददगार साबित होते हैं. चीटियां बीजों को खाने के लिए ले जाती हैं उनमें से कुछ जो खाने से बच जाते है या रास्ते में गिर जाते हैं वह समय अनुकूल पाकर जमते हैं और पौधे बन जाते हैं.
कुदरत बीजों को संभाल कर रखती है. उसने बीजों की रक्षा करने के लिए उपाय किये हैं. सीज़नल पौधों के बीज ज़मीन में पड़े रहते हैं. बारिशें भी होती हैं, पानी भी भरता है, लेकिन ये बीज फूटते नहीं हैं. मौसम आने पर उचित तापमान और नमी मिलने पर ये बीज फूट निकलते हैं. जड़ी बूटियां भी मौसम के हिसाब से ही मिलती हैं. उनके बीज सही समय पर ही जमते हैं. यदि कुदरत इस तरह से बीजों की संभाल न करे तो बहुत से पौधे नष्ट हो जाएं.
इसके आलावा भी कुदरत ने बीजों पर हिफाज़त के लिए मज़बूत आवरण दिया है. आम की गुठली पर रेशे होते हैं. बारिश के मौसम में ये रेशे पानी से भीग जाते हैं और जल्दी सूखते नहीं हैं. पानी पाकर आम का बीज गुठली के अंदर फूलना शुरू करता है. उसमें जड़ और अंकुर निकलता है. किसी भी बीज में जड़ सबसे पहले विकसित होती है क्योंकि अंकुर को वही स्थापित करती है जिससे पौधा सीधा खड़ा हो सके और उसे पानी और पोषण मिलने लगे. आम के बीज के विकास से बाहर की गुठली फट जाती है और पौधा निकल आता है.
किसी भी पौधे का बीज, चाहे वह फल के अंदर हो जैसे आम, कटहल, या फिर फली के अंदर हो जैसे सेम, कपिकच्छु, मूंगफली, या बाली के अंदर हो जैसे जौ और गेंहू अदि, बनने के बाद उसके जमने का समय भी निश्चित होता है. कुछ बीज इतनी जल्दी जमते हैं कि सोचा भी नहीं जा सकता. ज़रूरी नहीं की बीज पककर सूख गया हो. कच्चा बीज भी जम आता है. मक्का का कच्चा भुट्टा यदि रख दिया जाए और उसे उचित नमी और तापमान मिले तो ये कच्चे दाने भी पौधे बन जाते हैं. कटहल के बीज कटहल के अंदर ही जमने लगते हैं. उनमें जड़ें निकल आती हैं. इसी तरह बढ़ल के बीज जो गीले और कच्चे होते हैं जमने लगते हैं.
आम तौर से बीज परिपक्व होने के बाद साल भर तक  उनमें जमने की क्षमता रहती है. लेकिन कुछ बीज दो साल पुराने होने पर ही जमते हैं. अमलतास इसका एक  उदहारण है.
पौधे नेचर में आने वाली तबदीली को भी भांप लेते हैं और उसके अनुसार स्वयं को ढाल लेते हैं. बांस का बीज नहीं होता. बांस में प्रकंद की सहायता से नये पौधे उगते हैं और बांस फैलता चला जाता है. बहुत से ऐसे पौधे हैं जो बिना बीज के प्रकंद की सहायता से उगते हैं. लेकिन अगर बांस के पौधों में फूल आ जाए और बीज लगने लगे तो ये इस बात का संकेत है कि आने वाले वर्षों में सूखा पड़ने वाला है. जानकार गांव वाले इस संकेत से होशियार हो जाते हैं और सूखे से बचने का इंतेज़ाम करने लगते हैं. बांस का ये बीज बहुत कड़ा होता है. कई वर्षों के सूखे में भी ज़मीन पर पड़ा रहने से नष्ट नहीं होता. जब अच्छा मौसम आता है तो इन बीजों से नये पौधे उगते हैं और बांस नेचर में बाकी रहता है.
नेचर इस प्रकार न केवल जंगल उगाती है बल्कि उनके बाकी रहने का प्रबंध भी करती है.



गुरुवार, 5 मार्च 2020

मुंडी बूटी

मुंडी बूटी एक ऐसा पौधा है जिसकी विशेष गंध होती है. इसके पत्ते रोएंदार होते हैं. ये रबी की फसल का पौधा है और अक्सर गेहूं के खेतों में भी खर-पतवार के साथ में उगता है. इसमें गोल गोल घुंडियां सी लगती हैं. ये मुंडी का फूल है जो बैगनी रंग का होता है. यही घुंडी सूखकर भूरी पड़ जाती है और इसके अंदर बीज बन जाते हैं.यही मुंडी है जिसे गोरखमुंडी भी कहते हैं. यही फल दवा में काम आते हैं.
मुंडी का स्वाद कड़वा होता है. स्वभाव से ये ठंडी और तर है. इसका प्रयोग गर्मी में किया जाता है. मुंडी मार्च- अप्रैल में तैयार हो जाती है जब इसके पौधे सूख जाते हैं. मुंडी बहुत बड़ी रक्त शोधक जड़ी बूटी है. इसका यही एक गुण सौ गुणों पर भारी है. यूनानी और आयुर्वेद में जितनी रक्त-शोधक दवाएं बनायीं जा रही हैं उनमें से शायद ही कोई ऐसी हो जिसमें मुंडी का इस्तेमाल न हुआ हो.
जिन लोगों का मिज़ाज गर्म है, गर्मी, खुश्की और खुजली से परेशान हैं उनके लिए मुंडी बहुत लाभकारी है. ये रक्त की गर्मी को शांत करती है और रक्त से गंदगी, और टॉक्सिन निकाल देती है.
हकीमों का फार्मूला है अगर ब्लड में टॉक्सिन न रहें तो बहुत सी बीमारियों से बचा जा सकता है. इसके लिए गर्मी के मौसम में मार्च आखिर से जून तक रक्त शोधक दवाओं का प्रयोग करना चाहिए. मुंडी उनमें से एक है.
आंखों के लिए मुंडी बड़े कमाल की दवा है. इसके इस्तेमाल से आंखे हमेशा निरोग बनी रहती हैं. कहा जाता है की यदि कोई सीज़न में रोज़ाना सुबह मुंडी का अर्क इस्तेमाल करता है तो वह न कभी अंधा होगा और उसे कभी मोतियाबिंद भी नहीं होगा.
गुरु गोरखनाथ, जो प्रसिद्ध योगी गुज़रे हैं, के नाम से दो जड़ी बूटियां मशहूर हैं. - एक मुंडी बूटी जिसे उनके नाम पर गोरखमुंडी कहते हैं. दूसरी जड़ी बूटी गोरखपान है.
मुंडी का प्रयोग इसके अर्क के रूप में किया जाता है. मुंडी का अर्क भपके से डिस्टिलेशन किया हुआ पानी होता है जिसको 25 - 50 मिलीलीटर की मात्रा में सुबह शाम प्रयोग किया जाता है. पिसी हुई मुंडी का चूर्ण 1 - 3 ग्राम की मात्रा में उपुक्त अनुपान, (मुनासिब बदरका) जैसे काला नमक, शहद, शकर के साथ मिलाकर पानी के साथ खाया जाता है.
विशेष प्रयोग में एक मुंडी साबित भी निगली जाती है.


मंगलवार, 3 मार्च 2020

जो रस से भरी है वही रसभरी है

 रसभरी एक पीले रंग का कवर के अंदर बंद फल है. ये फल बाजार में सर्दी का मौसम जाते समय फरवरी, मार्च के महीनों में मिल जाता है. मुख्यतः ये अफ्रीका का पौधा है. इसे अंग्रेजी में केप गूज़बरी और गोल्डनबरी भी कहते हैं. इसका पौधा बीज या फिर कटिंग से उगाया जाता है. बरसात के मौसम में इसके पौधे खूब बढ़ते हैं और जाड़ों में इसमें फल आते हैं. जो जाड़ा बीतते बीतते पककर पीले गोल्डन हो जाते हैं और इनके ऊपर का छिलका या कवर सूख जाता है. ये फल खाने में खट्टे-मीठे होते हैं.
रसभरी लीवर के लिए फायदेमंद हैं. इसमें सूजन घटाने के गुण हैं और ये लीवर के फंक्शन को तेज़ करती है. ये कोलेस्ट्रॉल के लेवल को ठीक रखती है और इस लिए ख़राब कोलेस्ट्रॉल के कारण बनने वाली पित्ते के पथरियों पर भी असर डालती है. इसके इस्तेमाल से पित्त गाढ़ा नहीं होने पाता और पित्ते में पथरी नहीं. बनती. यही काम इमली भी करती है. इमली का इस्तेमाल करने वालों के पित्ते में पथरी नहीं होती.
रसभरी न केवल इम्युनिटी यानि रोगों से लड़ने की क्षमता को बढाती है बल्कि हड्डियों को भी मज़बूती देती है. आंखों के लिए ये बहुत लाभकारी है. इसके इस्तेमाल से आंखों में मोतियाबिंद नहीं होता और आंखों के मांस पेशियां मज़बूत रहती हैं जिससे आंखों की रौशनी बनी रहती है.
रसभरी का बहुत बड़ा फ़ायदा कैंसर से बचाने में है. इसमें ऐसे तत्व हैं जो कैंसर को न केवल होने नहीं देते बल्कि ट्यूमर को नष्ट करने के क्षमता रखते हैं. ये ब्लड कैंसर के लिए भी लाभकारी है.
अजीब बात है कि पक्की पीली रसभरी के इतने फायदे हैं लेकिन कच्ची रसभरी ज़हरीली होती है.  इसके फूल, पत्ते और पौधा सभी ज़हरीले हैं. इसके इस्तेमाल से जी मिचलाना, उल्टी आना, पेट में दर्द और घबराहट होती है. ऐसे में तुरंत डाक्टर से संपर्क करना चाहिए.

Popular Posts

महल कंघी Actiniopteris Radiata

महल कंघी एक ऐसा पौधा है जो ऊंची दीवारों, चट्टानों की दरारों में उगता है.  ये छोटा सा गुच्छेदार पौधा एक प्रकार का फर्न है. इसकी ऊंचाई 5 से 10...