आक या मदार
सारे भारत में बहुतायत से पाया जाने वाला पौधा है. इसके बहुत से नाम हैं. इसे आक, आख, अकौआ, मदार, सूर्य नेत्र, अरबी भाषा में उश्र, उशार भी कहते है. अंग्रेजी भाषा में इसका नाम कैलोट्रोपिस है. इसे ज़हरीला होने की वजह से कोई जानवर नहीं खाता. फरवरी से लेकर जून तक ये शबाब पर रहता है. इसमें गुच्छों में फूल खिलते हैं. फिर छोटे आम के बराबर आम जैसे फल लगते हैं. ये फल पाक कर चटक जाते हैं. उनमें से आक के बीज निकलते हैं जिनके चारों तरफ रूई की तरह रेशे होते हैं. हर बीज उन रेशों के वजह से रूई के एक गोल गाले की तरह हो कर हवा में उड़ने लगता है और दूर दूर पहुँच जाता है. इस तरह इस पौधे का फैलाव दूर दूर तक हो जाता है.
वैसे ये झाडी नुमा पौधा है लेकिन कुछ किस्में ऐसी भी है जो बहुत बड़ी हो कर एक मीडियम साइज़ के पौधे का रूप ले लेते हैं. इनके फूल भी अलग होते हैं. ये सफ़ेद रंग के और सितारे के आकर के होते हैं. आम तौर से उत्तर भारत में इसके वे पौधे पाए जाते हैं जिनके फूलों का रंग बाहर से सफ़ेद और अंदर से बैंगनी रंग का होता है. उनका आकर भी सितारे की तरह नहीं होता . दवाओं में यही वैरायटी इस्तेमाल होती है कियोंकि यह दूसरी वैरायटी से काम ज़हरीली होती है.
आक के रेशों को आक की रूई भी कहते हैं. यह एक ऐसा पौधा है जिसमें दूध होता है. दूध वाले पौधे ख़राब वातावरण और पानी के कमी में भी ज़िंदा रहते हैं. इसका दूध शरीर पर लगने से घाव कर देता है. वह जगह जहाँ दूध लगता है लाल पड़ जाती है. दाने निकल आते हैं और सूजन हो जाती है. कबाइली लोग इसके दूध का इस्तेमाल दाद पर करते हैं जिससे घाव हो कर दाद ठीक हो जाता है. लेकिन ये कोई कारगर तरीका नहीं है. कभी कभी इससे बहुत गम्भीर त्वचा की समस्याएं पैदा होती हैं. दूध का इस्तेमाल खोखले दांतों को निकलने के लिए भी जंगल के निवासियों के द्वारा किया जाता है. रूई भिगोकर खोखले दांत में रख दी जाती है घाव होकर दांत निकल जाता है. अनचाहे गर्भ से छुटकारे के लिए भी जंगल के निवासियों द्वारा इसके दूध का इस्तेमाल किया जाता है जिससे अत्यधिक रक्तस्राव होकर गर्भपात हो जाता है. लेकिन इससे शरीर में घाव पड़ जाते हैं और गम्भीर समस्याएं उत्पन्न होती हैं. कान के दर्द में भी इसके पत्तों को आग पर गर्म करके पानी निचोड़ कर कान में डाला जाता है.
सारे भारत में बहुतायत से पाया जाने वाला पौधा है. इसके बहुत से नाम हैं. इसे आक, आख, अकौआ, मदार, सूर्य नेत्र, अरबी भाषा में उश्र, उशार भी कहते है. अंग्रेजी भाषा में इसका नाम कैलोट्रोपिस है. इसे ज़हरीला होने की वजह से कोई जानवर नहीं खाता. फरवरी से लेकर जून तक ये शबाब पर रहता है. इसमें गुच्छों में फूल खिलते हैं. फिर छोटे आम के बराबर आम जैसे फल लगते हैं. ये फल पाक कर चटक जाते हैं. उनमें से आक के बीज निकलते हैं जिनके चारों तरफ रूई की तरह रेशे होते हैं. हर बीज उन रेशों के वजह से रूई के एक गोल गाले की तरह हो कर हवा में उड़ने लगता है और दूर दूर पहुँच जाता है. इस तरह इस पौधे का फैलाव दूर दूर तक हो जाता है.
वैसे ये झाडी नुमा पौधा है लेकिन कुछ किस्में ऐसी भी है जो बहुत बड़ी हो कर एक मीडियम साइज़ के पौधे का रूप ले लेते हैं. इनके फूल भी अलग होते हैं. ये सफ़ेद रंग के और सितारे के आकर के होते हैं. आम तौर से उत्तर भारत में इसके वे पौधे पाए जाते हैं जिनके फूलों का रंग बाहर से सफ़ेद और अंदर से बैंगनी रंग का होता है. उनका आकर भी सितारे की तरह नहीं होता . दवाओं में यही वैरायटी इस्तेमाल होती है कियोंकि यह दूसरी वैरायटी से काम ज़हरीली होती है.
आक के रेशों को आक की रूई भी कहते हैं. यह एक ऐसा पौधा है जिसमें दूध होता है. दूध वाले पौधे ख़राब वातावरण और पानी के कमी में भी ज़िंदा रहते हैं. इसका दूध शरीर पर लगने से घाव कर देता है. वह जगह जहाँ दूध लगता है लाल पड़ जाती है. दाने निकल आते हैं और सूजन हो जाती है. कबाइली लोग इसके दूध का इस्तेमाल दाद पर करते हैं जिससे घाव हो कर दाद ठीक हो जाता है. लेकिन ये कोई कारगर तरीका नहीं है. कभी कभी इससे बहुत गम्भीर त्वचा की समस्याएं पैदा होती हैं. दूध का इस्तेमाल खोखले दांतों को निकलने के लिए भी जंगल के निवासियों के द्वारा किया जाता है. रूई भिगोकर खोखले दांत में रख दी जाती है घाव होकर दांत निकल जाता है. अनचाहे गर्भ से छुटकारे के लिए भी जंगल के निवासियों द्वारा इसके दूध का इस्तेमाल किया जाता है जिससे अत्यधिक रक्तस्राव होकर गर्भपात हो जाता है. लेकिन इससे शरीर में घाव पड़ जाते हैं और गम्भीर समस्याएं उत्पन्न होती हैं. कान के दर्द में भी इसके पत्तों को आग पर गर्म करके पानी निचोड़ कर कान में डाला जाता है.
आक के किसी भी भाग को तोड़ने से पहले सावधानी ज़रूरी है की इसका दूध शरीर पर न लगने पाए और आँख को तो इससे विशेष तौर पर बचाना चाहिए नहीं तो आंख में घाव हो कर आंख खराब भी हो सकती है. बच्चों को इससे दूर रखना चाहिए.
जहाँ कहीं दवाओं में इसके फूल इस्तेमाल करने के ज़रुरत पड़ती है वहां केवल इसके सर बंद फूल यानि कलियाँ जो अभी खिली न हों, इस्तेमाल की जाती हैं. उनमें ज़हर काम होता है. खिले हुए फूल बहुत ज़हरीले होते हैं. ताज़े फूलों की जगह इसके सर बंद फूल ही सुखाकर दवाओं में सावधानी से इस्तेमाल किये जाते हैं.
इसके पत्तों को धोकर और इमली के पत्तों के साथ उबाल कर पानी सुखकर अचार भी बनाया जाता है जो बहुत काम मात्र में इस्तेमाल करने पर पेट के गैस विकार को लाभ करता है.
हकीम यूपियावी कहते हैं की दवाओं के अन्य पौधों की तरह इसके भी पांचों अंग यानि पंचांग प्रयोग किया जाता है. पंचांग का मतलब जड़, फूल, पत्ते, छाल और बीज से है. एक मरीज़ अरकुन्निसा या श्याटिका पेन से बहुत परेशान था. उसे बताया गया की आक की जड़ की छाल निकाल कर उसे धोकर पानी डाल कर उबालो और उसमें थोड़े से चने डाल दो की चने भी उस जड़ के साथ उबल जाएँ. बाद में चनो को निकाल कर सुख लो और पीस कर रख लो. सुबह एक छोटा चमच पानी के साथ सेवन करने से पुराना श्याटिका पेन ठीक हो गया.
हकीम यूपियावी शरीर के दर्द में इसके पत्तों को सरसों के तेल में जलाकर मालिश करने की सलाह देते हैं.
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