शनिवार, 30 मार्च 2019

गूलर एक चमत्कारी वृक्ष है




 गूलर या गूलड़ एक बड़ा वृक्ष है. इसके पत्तों पर गुमड़ियां या गोल गोल से उभार होते हैं. इसके फल पककर लाल रंग के होजाते हैं. इन फलों में विशेष प्रकार के उड़ने वाले भुनगे पाए जाते हैं. इसका साइंटिफिक नेम फिक्स रेसिमोसा है. और इसकी एक वैराइटी फिक्स ग्लोमेराटा है. इसे उदम्बर भी  कहते हैं.
गूलर के फल उसके तने और मोटी शाखाओं में लगते हैं. इनकी शकल अंजीर से मिलती जुलती होती है. इसलिए इसे क्लस्टर फिग या गुच्छे वाला अंजीर भी कहते हैं.
इसकी पत्तियां जानवरों विशेषकर बकरियों के लिए चारे का काम देती हैं. गूलर का धार्मिक महत्त्व भी है.
गूलर के पक्के फलों की विशेष महक होती है. स्वाभाव से ये एक ठंडा वृक्ष है. इसकी छाल, फल और पत्तियां सभी में ठंडा और तर गुण है. गर्मी में जिनकी नकसीर फूटती हो, नाक से खून बहता हो उनके लिए इसके पक्के फलो का इस्तेमाल बहुत फायदेमंद है.
इसकी पत्तियां दस्तों में लाभ करती हैं. इनको पीसकर थोड़े पानी में मिलकर पीने से दस्तों की  बीमारी में लाभ मिलता हैं.
गूलर के पक्के फलों का शरबत पीने से हाई ब्लड प्रेशर कम हो जाता है. मीठा होने के वजह से ये डाईबेटिस के मरीज़ों को नुकसान करता है. ऐसे मरीज़ कच्चे गूलर की  सब्ज़ी बनाकर खा सकते हैं. 

गूलर के पत्तों को पीसकर पानी में मिलाकर पिलाने से दस्त बंद हो जाते हैं. 

गुरुवार, 17 जनवरी 2019

स्वर्णक्षीरी

स्वर्णक्षीरी, सत्यानाशी, सत्यानासी, पीला कटीला एक कांटेदार पौधा है जो बरसात में उगता है. ये खाली पड़े स्थानों, बंजर ज़मीनो और सड़क के किनारे बहुतायत से पाया जाता है. कहते हैं की रोगों को जड़ से मिटाने और उनका सत्यानाश करने के कारण ही इसका नाम सत्यानाशी रखा गया है. जिन लोगों के खेतों को इस पौधे ने बहुतायत से उगकर सत्यानाश किया है उन्होने भी इसका नाम सत्यानासी रख दिया था.
इसमें पीले रंग के कटोरी नुमा फूल खिलते हैं. कुछ पौधों के फूल क्रीम रंग के या सफेदी लिए भी होते हैं. इसके तने को तोड़ने पर पीले रंग का दूध निकलता है. इसलिए इसे स्वर्णक्षीरी या सोने जैसे दूध वाली बूटी भी कहते हैं. इसका दूध बड़ी काम की चीज़ है. ये लगाने पर एंटीसेप्टिक का कार्य करता है. इसकी जड़ की भस्म शहद के साथ इस्तेमाल करने से मिर्गी का रोग जाता रहता है.
लेकिन इस पौधे की गिनती ज़हरीले पौधों में होती है. इसका प्रयोग केवल काबिल हकीम और वैध ही कर सकते हैं. यदि इसे समझदारी से इस्तेमाल किया जाए तो बहुत से रोगों के लिए ये लाभकारी है. लापरवाई और जानकारी के आभाव में इसके इस्तेमाल से गंभीर नुकसान हो सकते हैं.
इसकी फलियां मोटी और छोटी होती हैं. इनमें काले रंग के बहुत से बीज निकलते हैं. इन बीजों में बहुत तेल होता है. कुछ लोगों ने इसके बीजों के मिलावट सरसों के तेल में की है जिससे लोगों को जोड़ों के सूजन, गुर्दे फेल होना और आँखों की  गंभीर बीमारियां हुई हैं.


मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

अमरबेल

अमरबेल को आकाश बेल, अकास बोंग, और स्वर्ण लता भी कहते हैं. ये पीले रंग की लम्बे लम्बे धागों की शक्ल में पेड़ो पर लटकती हैं. ये एक परजीवी पौधा है. ये बबूल, आम, बेर आदि के पौधों पर चढ़ जाती है. इसका पौधा ज़मीन में बीज से उगता है. लेकिन जल्दी ही ये ज़मीन से नाता तोड़ कर किसी पास के पौधे से लिपट जाती है. इसकी जेड पौधे के तने और शाखाओं में धंस जाती हैं और पौधे का रस और पोषक पदार्थ चूस कर ये परवान चढ़ती है.
कहते हैं इसके शाखा तोड़कर किसी पौधे पर डाल दी जाए तो भी ये पनप जाती है. पौधे इसके असर से सूख जाते हैं. इसमें बहुत छोटे फूल खिलते हैं और बाद में बीज बन जाते हैं. ये बीज ज़मीन में 7 -8 वर्षों तक भी पड़े रह सकते हैं और अनुकूल वातावरण मिलने पर फूटते हैं.
अमरबेल वर्षों से देसी दवाओं में प्रयोग की जा रही है. बालों को उगने और बढ़ने में ये बहुत उपयोगी है. इसका तेल बनाकर सर में लगाने से बालो का झड़ना रूक जाता है. नए बालों के उगने में ये मदद करती है.
पीलिया रोग में ये उपयोगी है. इसका काढ़ा बनाकर पीने से पीलिया जाता रहता है.
मिर्गी और शरीर के कांपने में भी ये एक उपयोगी दवा है.


शनिवार, 17 नवंबर 2018

सरकंडा

सरकंडा को काना भी कहते हैं. इसका एक नाम बान भी है. ये एक घनी झाड़ीदार घास है. बरसात में खूब बढ़ती है. अक्टूबर आते आते इसमें सफ़ेद फूल खिलते हैं. इसकी पत्तियां लम्बी लम्बी धारदार होती हैं. जिनको हाथ लगाने से हाथ कट जाता है.
इसकी वह टहनियां जिन में फूल खिलते हैं पत्तियों को मोटे कवर से ढकी होती हैं. इस कवर को उतार कर, कूटकर उसके रेशे को बारीक करके बान बनाया जाता है जिससे चारपाई बुनी जाती है. इसे मूँज भी कहते हैं.
सरकंडे में बांस की तरह कुछ दूरी पर गांठे होती हैं. इनसे छप्पर बनाने का काम लिया जाता है. और फर्नीचर भी बनाया जाता है.

सरकंडा एक बहु उपयोगी पौधा है. इसकी जड़ें  गुच्छेदार होती हैं. ये भूमि के कटान को रोकता है. इसके पौधे बरसात में भूमि-छरण  नहीं होने देते. इसके पौधों को पतेल भी कहते हैं.
गर्मी आते आते इसके पौधे सूखने लगते हैं. सरकंडे पीले रंग के हो जाते हैं. किसान इन पौधों को काटकर विभिन्न प्रकार से प्रयोग में लाते हैं. जेड रह जाती हैं जिनमे आग लगाकर जला दिया जाता है. खेतो के किनारे सरकंडे की जली हुई जड़े दिखाई देती हैं.
अजीब बात है की इन जाली जड़ो से बरसात आते ही नए पौधे फूट निकलते हैं. इसकी अंदरूनी जड़ों तक आग नहीं पहुंचती।
सरकंडा पेशाब की जलन को दूर करता है. इसकी पत्तियों का पानी पेट के कीड़े मार कर निकाल देता है.
इसकी जड़ो को सुखाकर कूटकर थोड़ी सी हल्दी, सोंठ और गुड़ के साथ पकाकर पेस्ट बना लिया जाता है. सुबह शाम दूध के साथ एक चमच इस्तेमाल करने से टूटी हड्डी भी जुड़ जाती है.
 सरकंडा-2 
सरकंडा पर बहुत से पाठकों ने कमेंट्स किये हैं. आप सबका बहुत धन्यवाद. कुछ लोगों ने पूछा है की इसके छोटे पौधे की पहचान कैसे करें. इसका छोटा पौधा घास के सामान होता है. लेकिन इसकी पत्तियां घास से लम्बी, मोटी और किनारे से धारदार होती हैं. इनको हाथ लगाने से धार से हाथ कट जाता है. इसके नए पौधे बरसात के मौसम में निकलते हैं. पुरानी जड़ों से इसके पौधे भी बरसात में बढ़ते हैं. शुरू से ही इसका पौधा जड़ के पास से ही गुच्छे दार और घना होता है. खेतों के किनारे, सड़कों के किनारे, खाली पड़े स्थानों पर, नदी के किनारे, रेत में इसके पौधे मिल जाते हैं. बरसात में ये तेज़ी से बढ़कर सितम्बर अक्टूबर तक 2 - 3 मीटर तक ऊंचे हो जाते हैं. अक्टूबर में इसमें फूल खिलने लगते हैं. जड़ों से फूलों के लिए लम्बी शाखा निकलती है जिसपर पत्तियां आवरण के रूप में लिपटी होती हैं. इस शाखा में ऐसी गांठें होती हैं जैसे बांस में होती हैं. यही सरकंडा, सेठा, सेंटा, काना कहलाता है. इसके ऊपरी सिरे पर 1 - 2 फुट लम्बा गुच्छे दार फूल लगता है. जो दूर से सफ़ेद, चमकदार पहचाना जा सकता है.
सरकंडे का कुटीर उद्योग में बड़ा महत्त्व है. इसकी पत्तियों का उपयोग छप्पर बनाने, खपरैल बनाने में किया जाता है. सरकंडे का ऊपरी कवर उतार कर हरे लाल रंग से रंगकर डलियां बुनी जाती हैं. यही कवर सुखाकर पानी में भिगोकर मुगरी या लकड़ी से कूटकर रेशों में बदल जाता है. इसे ही मूंज कहते हैं. इन रेशों से घर पोतने के लिए कूची /ब्रश बनायी जाती है. इसी मूंज को बटकर बान बनाये जाते हैं जिससे चारपाई बुनी जाती है. मूंज की रस्सी भी बनायीं जाती है.
सरकंडे से बैठने के लिए कुर्सी, मोढ़ा बनाया जाता है. इस प्रकार की कुर्सियां आपने अक्सर देखी  होंगी. घरेलु दस्तकारी, सजावटी सामान बनाने, पंखों की डंडियां बनाने में सरकंडे का उपयोग होता है. पुराने ज़माने में बच्चे सरकंडे का प्रयोग कलम के रूप में करते थे. इसी सरकंडे से हलके और छोटे बाण भी बनाये जाते थे.
इस पौधे के विभिन्न अंगों के नाम और उनके उपयोग से जो शब्द बने हैं वह आप ऊपर पढ़ चुके हैं. वह शब्द ये हैं. सरकंडा, सेंटा,  काना, पतेल, मूंज, बाण, बान.
सरकंडा, सेंटा,  काना पौधे का एक भाग है लेकिन पुरे पौधे का भी यही नाम लोग जानते हैं.
बाण वही सरकंडा है लेकिन बाण के रूप में प्रयुक्त होता है.
बाण से बान बना है लेकिन ये मूंज  की पतली बटी हुई डोरी है जिससे चारपाई बुनी जाती है. लेकिन पूरे पौधे को भी इसी नाम से जाना जाता है.
सरकंडा कमाल का पौधा है.

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पागल बूटी धतूरा

  धतूरा, घूरे, कूड़े के ढेर और खाली पड़े स्थानों पर उगता है. इसके उगने का समय भी बरसात का है. इसकी कई प्रजातियां हैं. जिनमे आम तौर से मिलने वाला सफ़ेद धतूरा, और काला धतूरा प्रमुख हैं.
इसके फल कांटेदार होते हैं. फूल पीछे से पतले और आगे से चौड़े, भोपे के आकर के होते हैं. इसके बहुत से देसी नाम भी हैं. संस्कृत में इसे कनक कहते हैं. फल सूखने पर चटक जाते हैं और उनमे से बीज गिर जाते हैं. इन्ही बीजों से बरसात में नए पौधे उगते हैं. इसके बीज, बैगन के बीज से मिलते जुलते होते हैं. इनका रंग काला, भूरा होता है.
कला धतूरा देखने से ही काली आभा लिए होता है. इसके फूल भी सफ़ेद फूलो के बजाय बैगनी रंग के होते हैं. काला धतूरा सफ़ेद से अधिक ज़हरीला होता है.
इसके पेड़ को कोई जानवर नहीं खता और इस पर कीड़े, मक्खी, मच्छर भी नहीं आते. इसे पहले खेतो की बाढ़ के रूप में किसान लगाते थे जिससे उनके खेत को जानवर न चरे.
देसी दवाओं में इसके पत्तो और बीजो का प्रयोग किया जाता है. कुछ हकीम इसके पत्तों के सूखे चूर्ण को बहुत काम मात्रा में चिलम में डाल कर दमे के मरीज़ को धूम्रपान करते थे इससे दमे का दौरा रुक जाता था. इसके बीजों का प्रयोग शुद्ध करके ही बहुत काम मात्रा में अन्य दवाओं के साथ किया जाता है. क्योंकि धतूरा के प्रयोग से होश-हवास जाते रहते है और आदमी पागलों जैसे हरकते करने लगता है इसलिए कहा जाता है कि धतूरा पागल बूटी है.
धतूरा सूजन और दर्द- नाशक है. इसके पत्तों का तेल जोड़ो के दर्दो, गठिया की सूजन में प्रयोग किया जाता है. इसके पत्तों को सरसों के तेल में डालकर पकाया जाता है कि पत्ते जल जाते हैं. इस तेल को छान कर रख लिया जाता है. जोड़ो के दर्द में थोड़ा गर्म करके इसकी मालिश करके गर्म पट्टी बाँध दी जाती है. ऐसा निरंतर करने से जोड़ों के दर्द में आराम मिलता है. लेकिन ध्यान रहे की इस तेल के प्रयोग के बाद हाथ अच्छी तरह साबुन से धो लिया जाए और इस दवा को बच्चो की पहुंच से दूर रखा जाए.
सावधानी इसी में है कि इस ज़हरीले पौधे से दूर रहे. 

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

काला बिछुआ या बघनखी

बघनखी या बाघनखी या बाघनख एक पौधा है जो बरसात में उगता है और सर्दी आते आते सूख जाता है. इसके फल सूख कर चटक जाते हैं और उनमे से एक काले या भूरे रंग का बड़ा सा बीज निकलता है. इस बीज की शकल बाघ के मुड़े हुए नाखूनों जैसी होती है. इसलिए इसे बघनखी या बाघनखी या बाघनख कहते हैं.
इसके पत्ते बड़े और रोएंदार होते हैं. कुछ लोग इसके पौधे को हाथाजोड़ी, हथजोड़ी का पौधा कहकर भ्रम फैला रहे हैं. हथजोड़ी के नाम से जो चीज़ बाजार में महंगे दामों बेची जा रही थी वह मॉनिटर लिज़र्ड का जननांग था और इस पर जब वैज्ञानिकों ने रिसर्च करके ये बताया कि  मॉनिटर लिज़र्ड इस हथजोड़ी के चक्कर में मारी जा रही है और जंगली जन्तुओं का नाश हो रहा है तो इसका बेचना बंद कर दिया गया. भ्रम फैलाने वाले कहते थे कि असली हथजोड़ी विंध्याचल के जंगलों में मिलती है. कोई इसे हिमालय में बताता था. कोई कहता था की पेड़ की जड़ है और कोई फल बताता था. हथजोड़ी के मामले में भ्रम फैलाने वालों की अब भी कमी नहीं है.
बघनखी के पौधे को अंग्रेजी भाषा में  डेविल्स क्ला (शैतानी पंजा) कहते है. इसका वैज्ञानिक नाम मार्टिनिया एनुआ  है. देसी भाषाओं में कहीं इसे उलट कांटा भी कहते हैं. इसके मुड़े हुए कांटो की वजह से इसे बिच्छू फल या काला बिछुआ भी कहते हैं. कुछ लोग इसके पौधे को बिच्छू झाडी समझते हैं. जबकि बिच्छू झाड़ी एक अलग ही पौधा है.
कुछ लोगों ने ये भ्रम भी पाल रखा है की ये पौधा वहीँ उगता है जहां बिच्छू रहते हैं. और ये बिच्छू काटे की अच्छी दवा है.
इसके कई नाम होने के कारण अन्य पौधों की नामों में भ्रम हो जाता है. ये पौधा ही ऐसा है.
ये पौधा सूजन और दर्द को दूर करता है. इसमें रक्त शोधक गुण हैं. सूजन और दर्द को दूर करने के गुणों के कारण  इसे गठिया रोग में इस्तेमाल किया जाता है. इसके पत्तों को सरसों के तेल में पकाकर ये तेल जोड़ो के दर्द में मालिश करने से बहुत आराम मिलता है. इसके सूखे फलों को कूटकर भी तेल में पका सकते हैं. ये एक अच्छा दर्द निवारक तेल बन जाता है.
इसके फलो का तेल बालों में लगाने से बाल जल्दी सफ़ेद नहीं होते.
इसकी जड़ का पाउडर एक से दो ग्राम की मात्रा में अश्वगंधा का पाउडर सामान मात्रा में मिलाकर शहद के साथ सुबह शाम इस्तेमाल करने से गठिया रोग में राहत मिलती है.
कुछ लोगों को इसके इस्तेमाल से एलर्जी हो जाती है. इसका प्रयोग करने से पहले किसी काबिल हकीम या वैद्य की सलाह अवश्य लें.


बुधवार, 10 अक्तूबर 2018

लपेटुआ

लपेटुआ का वैज्ञानिक नाम यूरेना लोबाटा है. इस पौधे के बीज रोएंदार होते हैं और इस लिए ये किसी भी व्यक्ति या जानवर के आसानी से चिपक जाते हैं और दूर दूर पहुंच जाते हैं. बरसात में इन बीजों से लपेटुआ के नये पौधे निकलते हैं. ये पौधा खेत खलिहानो में और खाली पड़ी ज़मीनो में उगता है.  
इसका रेशा मज़बूत होता है. जूट के पौधों की तरह ही इसके रेशे भी निकाले जाते हैं और उनकी रस्सी बनायी जाती है या फिर इन रेशो को बुनकर कैनवास जैसा कपडा बनाया जाता है.  ये मालवेसी कुल का  पौधा है. इसे अंग्रेजी में सीज़र -वीड, कांगो-जूट, और मडगास्कर-जूट भी कहते हैं.
इसके बीज पानी में भीगकर लेसदार हो जाते हैं. बीजों का ये म्यूसिलेज, या चिपचिपा पदार्थ पेट के रोगों में फ़ायदा करता है.
इसका स्वाभाव गर्म है. इसकी जड़  को पानी में उबालकर पिलाने  से शिशु-जन्म आसानी से हो जाता है.
फूलों को सुखाकर  रख लिया जाता है. इन फूलो को पानी में पकाकर पीने से खांसी में आराम मिलता है और जमा हुआ बलगम निकल जाता है.
बीजों को पानी में पकाकर पीने से पेट के कीडे मर कर निकल जाते हैं.

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