सरकंडा को काना भी कहते हैं. इसका एक नाम बान भी है. ये एक घनी झाड़ीदार घास है. बरसात में खूब बढ़ती है. अक्टूबर आते आते इसमें सफ़ेद फूल खिलते हैं. इसकी पत्तियां लम्बी लम्बी धारदार होती हैं. जिनको हाथ लगाने से हाथ कट जाता है.
इसकी वह टहनियां जिन में फूल खिलते हैं पत्तियों को मोटे कवर से ढकी होती हैं. इस कवर को उतार कर, कूटकर उसके रेशे को बारीक करके बान बनाया जाता है जिससे चारपाई बुनी जाती है. इसे मूँज भी कहते हैं.
सरकंडे में बांस की तरह कुछ दूरी पर गांठे होती हैं. इनसे छप्पर बनाने का काम लिया जाता है. और फर्नीचर भी बनाया जाता है.
सरकंडा एक बहु उपयोगी पौधा है. इसकी जड़ें गुच्छेदार होती हैं. ये भूमि के कटान को रोकता है. इसके पौधे बरसात में भूमि-छरण नहीं होने देते. इसके पौधों को पतेल भी कहते हैं.
गर्मी आते आते इसके पौधे सूखने लगते हैं. सरकंडे पीले रंग के हो जाते हैं. किसान इन पौधों को काटकर विभिन्न प्रकार से प्रयोग में लाते हैं. जेड रह जाती हैं जिनमे आग लगाकर जला दिया जाता है. खेतो के किनारे सरकंडे की जली हुई जड़े दिखाई देती हैं.
अजीब बात है की इन जाली जड़ो से बरसात आते ही नए पौधे फूट निकलते हैं. इसकी अंदरूनी जड़ों तक आग नहीं पहुंचती।
सरकंडा पेशाब की जलन को दूर करता है. इसकी पत्तियों का पानी पेट के कीड़े मार कर निकाल देता है.
इसकी जड़ो को सुखाकर कूटकर थोड़ी सी हल्दी, सोंठ और गुड़ के साथ पकाकर पेस्ट बना लिया जाता है. सुबह शाम दूध के साथ एक चमच इस्तेमाल करने से टूटी हड्डी भी जुड़ जाती है.
सरकंडा-2
सरकंडा पर बहुत से पाठकों ने कमेंट्स किये हैं. आप सबका बहुत धन्यवाद. कुछ लोगों ने पूछा है की इसके छोटे पौधे की पहचान कैसे करें. इसका छोटा पौधा घास के सामान होता है. लेकिन इसकी पत्तियां घास से लम्बी, मोटी और किनारे से धारदार होती हैं. इनको हाथ लगाने से धार से हाथ कट जाता है. इसके नए पौधे बरसात के मौसम में निकलते हैं. पुरानी जड़ों से इसके पौधे भी बरसात में बढ़ते हैं. शुरू से ही इसका पौधा जड़ के पास से ही गुच्छे दार और घना होता है. खेतों के किनारे, सड़कों के किनारे, खाली पड़े स्थानों पर, नदी के किनारे, रेत में इसके पौधे मिल जाते हैं. बरसात में ये तेज़ी से बढ़कर सितम्बर अक्टूबर तक 2 - 3 मीटर तक ऊंचे हो जाते हैं. अक्टूबर में इसमें फूल खिलने लगते हैं. जड़ों से फूलों के लिए लम्बी शाखा निकलती है जिसपर पत्तियां आवरण के रूप में लिपटी होती हैं. इस शाखा में ऐसी गांठें होती हैं जैसे बांस में होती हैं. यही सरकंडा, सेठा, सेंटा, काना कहलाता है. इसके ऊपरी सिरे पर 1 - 2 फुट लम्बा गुच्छे दार फूल लगता है. जो दूर से सफ़ेद, चमकदार पहचाना जा सकता है.
सरकंडे का कुटीर उद्योग में बड़ा महत्त्व है. इसकी पत्तियों का उपयोग छप्पर बनाने, खपरैल बनाने में किया जाता है. सरकंडे का ऊपरी कवर उतार कर हरे लाल रंग से रंगकर डलियां बुनी जाती हैं. यही कवर सुखाकर पानी में भिगोकर मुगरी या लकड़ी से कूटकर रेशों में बदल जाता है. इसे ही मूंज कहते हैं. इन रेशों से घर पोतने के लिए कूची /ब्रश बनायी जाती है. इसी मूंज को बटकर बान बनाये जाते हैं जिससे चारपाई बुनी जाती है. मूंज की रस्सी भी बनायीं जाती है.
सरकंडे से बैठने के लिए कुर्सी, मोढ़ा बनाया जाता है. इस प्रकार की कुर्सियां आपने अक्सर देखी होंगी. घरेलु दस्तकारी, सजावटी सामान बनाने, पंखों की डंडियां बनाने में सरकंडे का उपयोग होता है. पुराने ज़माने में बच्चे सरकंडे का प्रयोग कलम के रूप में करते थे. इसी सरकंडे से हलके और छोटे बाण भी बनाये जाते थे.
इस पौधे के विभिन्न अंगों के नाम और उनके उपयोग से जो शब्द बने हैं वह आप ऊपर पढ़ चुके हैं. वह शब्द ये हैं. सरकंडा, सेंटा, काना, पतेल, मूंज, बाण, बान.
सरकंडा, सेंटा, काना पौधे का एक भाग है लेकिन पुरे पौधे का भी यही नाम लोग जानते हैं.
बाण वही सरकंडा है लेकिन बाण के रूप में प्रयुक्त होता है.
बाण से बान बना है लेकिन ये मूंज की पतली बटी हुई डोरी है जिससे चारपाई बुनी जाती है. लेकिन पूरे पौधे को भी इसी नाम से जाना जाता है.
सरकंडा कमाल का पौधा है.
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