सोमवार, 8 सितंबर 2025

कटेरी, Yellow fruit nightshade

 कंटकारी, बड़ी कटेरी, कटेरी, अडेरी, ममोली, छमक निमोली, एक कांटेदार पौधे के नाम हैं जिसे Solanum virginianum, Surattense nightshade, or yellow fruit nightshade  भी कहते हैं. इस पौधे के पत्ते कटे किनारों वाले लम्बे आकर के और कांटों से भरे होते हैं. 

इसमें बैगनी, नीले रंग के फूल खिलते हैं. फूल एक शाखा में दो एक दूसरे विपरीत मुख किये हुए होते हैं. फूल के बीच  में पीले रंग का जीरा होता है. इसका फूल देखने में सुंदर लगता है और बैंगन के फूल की तरह होता है. 

गांव देहात में इसके फल को दवाई के रूप में प्रयोग किया जाता है. सूखा फल पीस छानकर थोड़ी मात्रा में सूंघने से बहुत छींकें आती हैं और पुराना रुका हुआ ज़ुकाम खुल जाता है.  इसी चूर्ण को पानी में मिलाकर खुजली और दाद पर लगाने से फायदा होता है. 

यह एक अत्यंत तेज़ प्रभाव वाला पौधा है इसलिए इसका प्रयोग खाने की दवाई में कदापि न करें. ज़ुकाम और सर दर्द में सूंघने से कभी एलर्जी हो सकती है इसलिए इसका प्रयोग किसी काबिल हकीम या वैद्य की निगरानी में ही करें. 

इस बलाग में दी गयी जानकारी केवल आम समझ और जानकारी के लिए है. इनमें से किसी भी जड़ी बूटी या पौधे का बिना चिकित्सीय सलाह के इस्तेमाल खतरनाक हो सकता है. 


मंगलवार, 12 अगस्त 2025

कपूर का वृक्ष Camphora officinarum

 कपूर को काफूर भी कहते हैं।  ये बाजार में सफेद टुकड़ों के रूप में मिलता है. इसकी विशेष गंध होती है जो बहुत तेज़ होती है. कमरे में अगर कपूर रखा हो तो इसकी  गंध  दूर तक फैल जाती है. यह बहुत ज्वलनशील  होता है. इसे तमाशा दिखने वाले जीभ पर जलाकर दिखते हैं. 

बाजार में मिलने वाला कपूर सिंथेटिक होता है और नकली रूप से बनाया जाता है. असली कपूर वृक्ष से प्राप्त किया जाता है जो सफेद डलियों की शक्ल में होता है. कपूर का वृक्ष बड़ा होता है और इसकी आयु भी बहुत होती है. ये चीन, जापान, ताइवान, भारत लंका आदि में पाया जाता है. इसके वृक्ष में भी कपूर की गंध आती है. इसकी लकड़ी के टुकड़ों को पानी में उबालकर इसकी भाप को ठंडा करके कपूर प्राप्त किया जाता है. 


कपूर के  वृक्ष का वैज्ञानिक नाम  Camphora officinarum  है. इसमें सफेद फूल खिलते हैं और बाद में छोटे आकर के फल लगते हैं जो काले रंग के करी पत्ते के फलों की तरह होते हैं. 

कपूर की लकड़ी में कीड़ा नहीं लगता. इसकी गंध से कीड़े, मकोड़े दूर भागते हैं. दवाओं में कपूर का प्रयोग लगाने में किया जाता है. ये फंग्सनाशक और कीटाणुनाशक है. खुजली के लिए इसे नारियल के तेल में मिलाकर लगते हैं. यह ठंडक उतपन्न करता है और खुजली को आराम देता है. नाखूनों का कला पड़ना जो अक्सर फंगस की वजह से होता है के लिए कपूर को नारियल के तेल या वैसलीन में मिलाकर लगाना लाभ करता है. 

सर के दर्द, नज़ला ज़ुकाम, दर्द निवारक बाम में कपूर भी मिला होता है. नहाने के मेडिकेटेड साबुन में भी कपूर का प्रयोग किया जाता है. 

कपूर को कभी भी खाने की दवा के रूप में प्रयोग न करें। ये बहुत हानिकारक हो सकता है. 

गुरुवार, 7 अगस्त 2025

हरा सेब खाने के फायदे

हरा सेब खाने के फायदे बहुत हैं. सेब की बहुत सी वैराइटी उगाई जाती हैं जिनमें सेब के पकने से पहले जुलाई के महीने में बाजार में हरा सेब मिलने लगता है. इसका रेट कम होने के कारण इसे अमीर गरीब सभी आसानी से खरीद सकते हैं. 

हरा सेब कुदरत का एक वरदान है. यह मज़े में कुछ खट्टा होता है. इसकी चटनी बनाकर भी प्रयोग की जाती है. मुरब्बा बनाने  के लिए हरा सेब बहुत उपयुक्त रहता है. साबुत सेब का मुरब्बा बनाने के लिए हरा कच्चा सेब जो मीडियम आकर का हो प्रयोग किया जाता है. इसे छीलकर पानी में डालते रहते हैं जिससे यह काले न पड़ें. छीलने के लिए भी स्टेनलेस स्टील की छुरी, चाकू का प्रयोग करें. इन्हें अच्छी तरह धोकर पानी में जबतक उबालें कि यह थोड़ा नरम हो जाएं. उसके बाद शकर की चाशनी बनाकर सेब उसमें डाल दें. 

अगर आपने ठीक प्रकार सेब के लिए चाशनी बनाई है तो यह मुरब्बा खराब नहीं होता. फिर भी अगर सड़ने से बचाना हो तो फ्रिज में रखें. इसके अतिरिक्त बाजार के मुरब्बे में सड़ने से बचाने के लिए सोडियम बेंजोएट का प्ररोग किया जाता है. 

इसी प्रकार सेब को छोटा काटकर जैम भी बनाया जा सकता है. जैम एक पेस्ट जैसा होता है. 

सेब का मुरब्बा दिल और दिमाग की ताकत के  लिए फायदेमंद है. यह पेट को भी साफ़ रखता है और इसमें आवश्यक विटामिन और मिनरल्स भी होते हैं. सबसे बढ़कर यह की घर का बनाया मुरब्बा अनावश्यक रंगों और केमिकल से भी बचा रहता है. 

कच्चा हरा सेब आँखों के लिए बहुत फायदेमंद है. इसके खाने से खून पतला रहता है और दिल के स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी है. 
 

सोमवार, 4 अगस्त 2025

खुरफ़ा जंगली Purslane नोनिया का साग

 खुरफ़ा जंगली को लोनिया का साग या नोनिया भी कहते हैं. इसे भी साग सब्ज़ी की तरह पकाकर खाया जाता है.  जड़ी बूटी के रूप में भी इसका उपयोग किया जाता है. 

बाजार में जो कुलफा का साग मिलता है वह बड़े पत्ते वाला होता है. जंगली कुलफा या खुरफा छोटी पत्ती  वाला होता है. इसमें पीले फूल खिलते हैं. इसे नोनिया, या नोनिया का साग भी कहते हैं. 


यह खेतों में, खाली पड़े स्थानों में, गमलों में अपने आप उग आता है. इसके उगने का समय मार्च अप्रेल से जुलाई अगस्त तक है.  इसे बड़े चाव से लोग सब्ज़ी के रूप में  खाते हैं. 

जंगली लुनिया लाल रंग के फूलों वाली और नोनिया पीले फूल वाला दोनों  एक ही कुल के पौधे हैं. इसलिए इनका स्वभाव भी एक है. इसमें पानी  की मात्रा अधिक और पौष्टिक पदार्थ कम होते हैं. इसलिए यह मोटे लोगों के लिए फायदेमंद है. इसके खनिज पदार्थ जैसे मैगनीशियम, लोहा और कैल्शियम सेहत को दुरुस्त और हड्डियों, दांतो के लिए फायदेमंद है. 

यह सुपाचक है इसलिए पाचन तंत्र की समस्याओं के लिए लाभकारी है. 

लेकिन ध्यान रखें इसमने अक्ज़िलेट होता है जो गुर्दे की पथरी वाले मरीज़ों के लिए नुकसानदेह है. 

बुधवार, 30 जुलाई 2025

दस बजे का फूल, लुनिया जंगली (Portulaca)

 लुनिया जंगली एक छत्तेदार बूटी है जो बरसात में उगती है. यह पोर्टुलका ग्रान्डीफ्लोरा  की एक जंगली वैराइटी है. यह पार्टलेकैसी कुल का पौधा है. आम भाषा में इसे लुनिया कहते हैं. पोर्टुलका ग्रान्डीफ्लोरा के पौधे सुंदरता के लिए घरों में लगाए जाते हैं. इसमें खूबसूरत गुलाब से मिलते जुलते फूल खिलते हैं. इसकी पत्तियां मांसल, लम्बे आकर की होती हैं और यह पौधा घास की तरह ज़मीन पर फैलता है. 


इसे आसानी से कटिंग से लगाया जा सकता है. इसकी शाखा को ज़मीन में लगा देने से वह बहुत जल्दी जड़ पकड़ लेता है और फूल भी जल्दी खिलने लगते हैं. यहां पर लुनिया जंगली का फोटो दिया जा रहा है. इसी प्रकार के पौधे में घनी पंखुड़ियों वाले फूल खिलते हैं. यह जंगली वैराइटी है इसलिए इसके फूल इकहरी पत्ती के और छोटे आकर के हैं. इसे दस बजे का फूल भी कहते हैं क्योंकि यह दिन में दस बजे के लगभग खिलता है. 

 इसी पार्टलेकैसी कुल का दूसरा पौधा  पोर्टुलका ओलेरेसिया है जिसे परसले कहते हैं. आम भाषा में खुरफा का साग के नाम से बाजार में मिलता है. इसके पत्ते भी मांसल लेकिन आगे से नुकीले होने के बजाय गोलाई लिए होते हैं. इसकी जंगली वैराइटी को लोनिया का साग या नोनिया का साग कहते हैं और इसे सब्ज़ी की तरह इस्तेमाल करते हैं.  बाजार में मिलने वाला खुरफा, या कुल्फ़ा का साग बड़े पत्तों का होता है और जंगली उगने वाला कुल्फ़ा छोटे आकर के पत्तों का होता है. दोनों में पीले फूल खिलते हैं. 

रविवार, 27 जुलाई 2025

अगावे अमेरिकाना Agave Americana/ Century Plant

 अगावे अमेरिकाना एक सजावटी पौधा है.  इसकी बहुत सी प्रजातियां हैं. इसे सेंचुरी प्लांट भी कहते हैं. यह अपने मज़बूत रेशों के लिए जाना जाता है. इसके पत्तों के सिरे पर एक मज़बूत कांटा होता है. कई बार बच्चे खेलते समय और बड़े इसकी देखभाल करते समय अनजाने में इसके कांटो से ज़ख़्मी हो जाते हैं. 

इसकी जड़ से दूसरे नए पौधे निकलते हैं जिन्हे निकालकर अन्य जगहों पर लगाया जा सकता है. ये कम पानी पसंद करता है इसलिए इसे ज़्यादा देखभाल की ज़रूरत नहीं पड़ती. 

घरों में इसके पौधे गमले में भी लगते हैं लेकिन ज़मीन में लगाने पर ये काफी बड़ा हो जाता है. इसके पत्तों को कुचलकर या पानी में सड़ाकर रेशा निकाला  जाता  है जो रस्सी बनाने में काम आता है.  देहात में इस पौधे को राम बांस के नाम से लोग जानते हैं. 


इस पौधे की एक प्रजाति से टकीला बनाई जाती है जो एक मशहूर शराब का ब्रांड है.  इस पौधे के आगावे टकीला ही कहते हैं. 

दवाई गुणों के आधार पर आगावे का गूदा कब्ज़ दूर करने वाला और लैक्सेटिव है. इसके अतिरिक्त यह पेशाब को अधिक मात्रा में लाता है जो इसका डाययुरेटिक गुण है. 

होम्योपैथी में इसे जो दवा बनाई जाती है वह कुत्ता काटने के कारण हुए हलकाव, या पानी से डरने, हाइड्रोफोबिया में प्रयोग की जाती है.

हाइड्रोफोबिया में आगावे को  चाव से खाने  का उदाहरण 

जॉन हेनरी क्लार्क ने होम्योपैथिक मटेरिया मेडिका में हाइड्रोफोबिया का एक केस जो  एल - सिंगलो मेडिको से एच-रिकार्डर द्वारा कोट किया गया है, का उद्धरण किया है.  काटे जाने के साढ़े चार माह बाद एक लड़के को हाइड्रोफोबिया हो गया.  उसे गले से निगलना असम्भव हो गया और उसे नर्सो को अस्पताल में काटने से बचाने के लिए रोकना पड़ता था. डाक्टर ने उसे अस्पताल में उगे आगावे के पत्ते का एक टुकड़ा दिया जिसे लड़के ने बड़े चाव से खाया. वह आगावे को चाव से खता रहा और धीरे धीरे उसका रोग ठीक होता गया. लेकिन उसने आठवें दिन आगावे खाने से मना कर दिया और कहा कि  यह बहुत कड़वा है और मुंह  में जलन डालता है. 








सोमवार, 17 जून 2024

इस बरसात जंगल लगाएं

जंगल कैसे लगाएं 

जंगलों का क्षेत्र तेज़ी से सिमट रहा है. इसलिए ज़रूरी है कि प्रत्येस नागरिक जंगल लगाने की ज़िम्मेदारी ले. ये बहुत आसान है. एक छोटा सा समूह बनाकर ये काम किया जा सकता है. नरसरी से वुडेन पौधे यानि वे पौधे जो लकड़ी वाले हैं और बड़े वृक्ष बन जाते हैं खरीदे जा सकते हैं. 

 

इन पौधों में अमलतास, अर्जुन, बढ़ल, नीम, शीशम, सागौन, जामुन, आम, बहेड़ा, करंज, चिलबिल, कनक चम्पा जिसे मुचकुन्द भी कहते हैं, और बकायन जैसे पौधे लगाए जा सकते हैं. यूकेलिप्टिस जिसे नीलगिरि भी कहते हैं एक समय काफी मात्रा में लगाया गया था लेकिन बाद  में  ज्ञात हुआ कि ये पौधा पानी की अधिक मात्रा चाहता है और इससे भूमिगत जल के स्रोतों को हानि पहुंचती है. इसलिए इसका रोपण बंद कर दिया गया. लेकिन ये पौधा दलदली जमीनों पर अब भी लगाया जाता है. 

बिना पैसा खर्च किये पौधे कैसे लगाएं. 

बिना कोई पैसा खर्च किये भी आप पौधे लगा सकते हैं. इसके लिए बरसात का मौसम सबसे अच्छा है. इसके लिए घर में खाने वाले फलों के बीज या गुठलियां इकठ्ठा कर लें. इन बीजों से आप ये पौधे लगा सकते हैं. : 

इमली :

इमली का वृक्ष बड़ा होता है. बीज से आसानी से पौधे उग आते हैं. बाज़ार से घर में प्रयोग के लिए लायी गयी इमली  के बीज फेंकें नहीं.   दो या तीन बीज गीली मिट्टी में रखकर  मिट्टी का एक लड्डू के आकार का गोला बनाएं और उसे सूखने दें. ध्यान रहे इसे छाया में ही सुखाएं. 

आम :

आम का पौधा बहुत आसानी से उगता है. कूड़े वाले स्थानों पर बरसात में जहां आम की गुठलियां फेंकी जाती हैं आम के पौधे उग आते हैं. बस आप को करना ये है कि इस बार आम खाकर गुठलियां रख लें. 

लीची:

इसका पौधा भी बहुत आसानी से उगता है. इसकी गुठलियां भी संभालकर रखें. 

आड़ू: 

इसका पौधा ज़रा मुश्किल से उगता है. लेकिन गुठली बजाए फेंकने के संभालकर रखें. 

जामुन: 

जामुन का पौधा बहुत जल्दी उगता है. इसकी गुठली भी खाने के बाद सुखाकर रख लें. 

जब बरसात कई दिन होकर ज़मीन अच्छी तरह भीग जाए तो आप इन गुठलियों को ऐसे ही किसी भी खाली स्थान पर फेंक सकते हैं. छोटे बीजों को मिट्टी के लड्डू में रखकर फ़ेंक दें. ये काम ऐसे स्थानों पर करें जहां थोड़ी बहुत घास फूस, झाड़ी आदि हो. इससे फायदा ये होगा की पौधा जब उगेगा तो घास या झड़ी के बीच में सुरक्षित रहेगा. और बरसात में अच्छी बढ़वार पकड़ लेगा.  आप के इस तरह बिखेरे हुए बीजों और गुठलियों से अगर कुछ पौधे भी बच गए तो धरती को हरा भरा करने में एक बड़ा योगदान होगा. 

ये केवल एक उदाहरण है. आप इस प्रकार बहुत प्रकार के पौधे लगा सकते हैं. 

तो आइये इस बरसात धरती को हरा भरा बनाने में सहयोग दें. 



शुक्रवार, 14 जून 2024

लाशोरा, लहसोड़ा Glue Berry, Cordia dichotoma

लाशोरा, लहसोड़ा  एक माध्यम ऊंचाई के वृक्ष का फल है. ये कुछ गोल आकर लिए 2 से ढाई सेंटीमीटर के व्यास का फल होता है. पकने पर ये प्याज़ी रंग का हो जाता है. इसके अंदर चिपचिपा गूदा होता है जो ग्लू की तरह होता है इसलिए इसे अंग्रेजी में ग्लू बेरी या चिपचिपा फल कहते हैं. 


ये चिपचिपा फल बड़े काम की चीज़ है. इसी की नस्ल का एक और फल है जो आकार में छोटा और शेप में तिकोना नोकदार सा होता है जिसे लभेड़ा कहते हैं. 

इसका अचार बनाया जाता है. इसके कच्चे फल को थोड़ा सा उबालकर सिरके में भी डालते हैं जो एक अच्छे हाज़मा करने वाले अचार का काम करता है. 

इसका पक्का फल अपने चिचिपिन या लेसदार होने के कारण आंतो और आमाशय के अल्सर और जख्मों के लिए फायदेमंद है. इससे जख्म जल्दी भर जाते हैं. 

इसका स्वभाव या मिज़ाज गर्म और तर है. धातु रोगी इसके पक्के फलों के सेवन से ठीक हो जाते हैं. स्त्रियों में  श्वेत प्रदर या लियोकोरिया के लिए इसके पक्के फलों का नित्य सेवन बहुत लाभकारी होता है. इसके कच्चे फलों को सुखाकर पीसकर तीन से पांच ग्राम की मात्रा में सुबह शाम सेवन करने से भी यही लाभ होता है. 

 इसकी दूसरी वैरायटी जिसे लभेड़ा कहा जाता है, के सूखे फल दवा में बहुतायत से उपयोग किये जाते हैं. नज़ला जुकाम, खांसी में जोशांदे के रूप में इसका प्रयोग होता है. 

लभेड़ा का प्रयोग देसी दवाओं में बहुतायत से किया जाता है. इसे सुखाकर दवाओं में प्रयोग करते हैं. इन दोनों फलों का मौसम मई जून का है. जून में इनके फल पक जाते हैं. और दोनों प्रकार के पहल पककर मीठे हो जाते हैं. इनका रंग हल्का सा गुलाबी होता है. इस रंग को प्याज़ के रंग से मिलने के कारण प्याज़ी रंग कहते हैं. 



तपता सूरज सिमटते जंगल

जंगलों को बचाने की जो कवायद थी उसमें सारी दुनिया के देश फेल हो रहे हैं.  पिछले पांच वर्षों में केवल भारत में जंगलों का क्षेत्र लगभग साढ़े छ लाख हेक्टेयर कम हुआ है. ये ब्राज़ील के बाद दुनिया का दूसरा बड़ा जंगलों के क्षेत्र का नुकसान  है.  


बढ़ती शहरी आबादी, तेज़ी से होता औद्योगीकरण सबसे पहले शहरी क्षेत्र और गांव की ज़मीनो और खेतों को खाते हैं. सिमटते हैं और उनकी जगह पर कालोनियां, सड़कें, हाइवे और फैक्ट्रियां लगती हैं. उसके बाद गांव की जनता का पलायन शुरू होता है. जब खेती किसानी खत्म हो जाती है. बाग़ बगीचे नहीं रहते तो गांव का किसान या तो मज़दूरी करने शहर का रुख करता है या फिर अपनी बची खुची ज़मीन बेचकर बाहर निकल जाता है. इससे न केवल शहरो पर अनावश्यक बोझ पड़ता है, उनकी आबादी तेज़ी से बढ़ती है. पानी के संसाधनों पर दबाव पड़ता है और जल संकट की समस्या भी पैदा होती है. 

जंगलों के इस कटान ने पर्यावरण को भी बहुत नुकसान पहुंचाया है. इसकी वजह से बारिशें कम हुई हैं. हरियाली खत्म हो जाने से बारिश का पानी जमीन में नहीं जा पाता और फालतू बह जाता है जिससे न केवल बाढ़ की समस्या पैदा होती है बल्कि भूगर्भ जल संकट की समस्या भी पैदा होती है. 

पानी की अत्यधिक दोहन से, जमीन से ज़्यादा पानी निखोदे कालने से भूगर्भ जल संकट गहरा रहा है. पानी का लेवल कम होता जा रहा है. पानी के ओवर हेड टैंक के लिये  ज़्यादा गहरे बोरवेल बनाये जा रहे हैं. ज़मीन के अंदर का पानी खत्म हो जाने के बाद पानी के साधन बहुत कम रह जाएंगे. 

इसलिए जंगल बचाने की बहुत ज़रूरत है. 


   

बुधवार, 6 सितंबर 2023

महल कंघी Actiniopteris Radiata

महल कंघी एक ऐसा पौधा है जो ऊंची दीवारों, चट्टानों की दरारों में उगता है.  ये छोटा सा गुच्छेदार पौधा एक प्रकार का फर्न है. इसकी ऊंचाई 5 से 10 सेंटीमीटर के लगभग होती है. इस पौधे की कुछ रों पत्तियां सूखी होती हैं  कुछ हरी। इस पौधे का फैलाव इसकी जड़ों से होता है. स्पोर्स भी इसके फैलाओ में सहायक होते हैं जो हवा के साथ उड़कर दूर तक पहुंच जाते हैं और उचित वातावरण मिलने पर नए पौधे बनाते हैं. 

हिन्दी में इसे कुछ लोग मयूर शिखा भी कहते हैं क्योंकि इसके पत्ते कटे किनारीदार होते हैं. लेकिन मयूर शिखा का नाम कन्फूज़न पैदा करता है.  मुर्गा केस cocks comb celosia flower को भी मयूर शिखा उसके फूलों की वजह से कहा जाता है. 

ऊंची दीवारों और महलों के कंगरों पर उगने के कारण इसका नाम महल कंघी पड़ा है जो उचित है और इसके मिजाज से मिलता है. 

इसके पौधे सितंबर अक्तूबर में सूखने लगते हैं और दीवारों पर सूखे गुच्छे से रह जाते हैं. बरसात आने पर नए पौधे पुरानी जड़ों से फूट निकलते हैं. 

इसका प्रयोग वर्षों से देसी और घरेलू दवाओं में किया जा रहा है. इस पौधे में घाव को भरने की शक्ति है. इसलिए इसको पीसकर घाव पर लगाने से घाव जल्दी ठीक हो जाते हैं. ये एक कीटाणुनाशक का कार्य भी करता है. 

इसका स्वभाव ठंडा और तर है. इसलिए मुंह के छालों में कत्थे के साथ इसकी पत्तियां चबाने से मुंह के छाले ठीक हो जाते हैं. ल्यूकोरिया में इसकी चार पांच पत्तियों को पीसकर दूध के साथ दिन में दो बार लेने से आराम होता है. 

इसके आलावा भी इस पौधे को बच्चों के पेट के कीड़े मारने के लिए भी प्रयोग किया जाता है. पत्तियों का पेस्ट बनाकर चीनी के साथ बच्चे की आयु के अनुसार दो से चार ग्राम की मात्रा में खिलाया जाता है. ये खुराक दो से तीन दिन तक दी जाती है. इस दौरान ये देखा जाता है की बच्चे का पेट ठीक रहे और उसे कब्ज़ न हो. आवश्यकतानुसार रेचक दवा भी दी जाती है जिससे पेट के कीड़े मरकर बाहर निकल जाते हैं. 

जड़ी बूटी कोई भी हो और कितनी ही लाभदायक हो उसका प्रयोग किसी काबिल हकीम ये वैध की निगरानी में ही करें क्योंकि कई बार पौधे को पहचानने में गलतियां हुई हैं और कई बार मरीज के मिजाज से विपरीत होने के कारण गंभीर परिणाम उत्पन्न हुए हैं. 

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मंगलवार, 8 अगस्त 2023

कनक चम्पा / मुचकुन्द का वृक्ष

 कनक चम्पा , मुचकुन्द  एक बड़ा वृक्ष है. इसके पत्ते बड़े और कटे किनारों वाले, मैपल के पत्तों से मिलते जुलते होते हैं. बड़े होने के कारण इसके पत्ते टहनियों में इस प्रकार लटकते हैं की मुरझाये हुए से लगते हैं.


फरवरी से लेकर जुलाई महीने तक इसमें बड़े बड़े हलके पीले रंग के फूल खिलते हैं. ये फूल पीली चमेली जिसे आम तौर से चंपा कहा जाता है के फूलों के सामान होने के कारण ही इसका नाम कनक चम्पा पड़ा है. 

वैसे इसका नाम संस्कृत पुस्तकों में मुचकुन्द है. ये सारे भारत में पाया जाने वाला पौधा है और विविध पर्यावरण में आसानी से लग जाता है. इसकी लकड़ी का रंग लाल होता है. इसे इमारती लकड़ी के रूप में प्रयोग किया जाता है. 


बुधवार, 12 जुलाई 2023

बारिश के दिनों में बाढ़ की स्थिति और पेड़ पौधे.

थोड़ी सी बारिश होते ही बड़े शहरों में  जैसे दिल्ली, मुंबई आदि में  सड़कों पर जल भराव की खबरे आती हैं. बारिश में शहर की सड़कें तालाब बन जाती हैं और अंडर पास भी पानी से भर जाते हैं जिससे दुर्घटना होने की सम्भावना बनी रहती है. 

शहरों में जल भराव का मुख्य कारण पानी की ठीक प्रकार से निकासी न होना, बहुत अधिक शहरीकरण, पेड़ पौधों का अंधाधुन्द कटान, कच्ची जमीन का आभाव और खर-पतवार, घास फूस को नष्ट करना है. नेचर का एक सिस्टम है जिसके द्वारा वह पानी के चक्र को बैलेंस रखती है. 


गाँवो में जो पानी बरसता है या जो पानी खेतों और जंगलों में गिरता है उसको रोकने में घास-फूस और पेड़ पौधे, कच्ची जमीने बहुत बड़ा रोल अदा करती हैं. कच्ची जमीन में बरसा हुआ पानी जमीन सोख लेती है, जंगलों में यह पानी पौधों की सूखी पत्तियां जो जमीन पर इकठ्ठा होकर एक मोटी परत बना लेती हैं, में ठहर जाता है. पेड़ पौधे भी इस पानी का एक बड़ा भाग रोक लेते हैं. 

शहरीकरण की सनक ने कच्ची ज़मीन के एक बड़े भाग को नष्ट कर दिया है. हर मकान पक्का है, छत पक्की है, घर और सड़क की नालियां, नाले, सड़कें  सब पक्की हैं. जो भी पानी बरसता है  उसका 90% भाग बह कर नाले में जाता है जो अंततः या तो जल भराव के रूप में जमा होता है या फिर नदियों में जाकर बाढ़ लाता है. 

दूर पर्वतों पर हो रहे जंगलों का कटान, दूर के जंगलों का नष्ट होना, खेती का छेत्रफल कम होना, अत्यधिक कालोनियों का बनाना, औद्योगीकरण, प्रदूषण, आदि के कारण पहाड़ों और जंगलों में हुई वर्षा का पानी भी जमीन में समाने के बजाए नदियों से  होता हुआ बडे शहरों का रुख करता है.  उत्तराखंड  में हुई बारिश भी दिल्ली को प्रभावित करती है. क्योंकि वहां पर जंगलों के कट जाने और पहाड़ों में अत्यधिक खनन के कारण पर्यावरण प्रभावित हुआ है. 

बाढ़ को रोकने और पानी के सही इस्तेमाल के लिए क्या उपाय करें?

बड़े जलाशयों/ रिजर्वायर में पानी इकठा करना 

पानी को बचाने के लिए आवश्यक है की बारिश के पानी को बेकार न जाने दिया जाए. ये एक बड़ा प्रोजेक्ट है जिसपर सरकार कार्य कर सकती है और इस दिशा में कुछ काम हुआ भी है. नदियों की किनारे बड़े जलाशय विकसित किये जाएं जिसमें बारिश की दिनों में नदियों का पानी जमा किया जाए. इससे बाढ़ की स्थिति भी नहीं बनेगी. और ये पानी सिंचाई के आलावा साफ़ करके पीने और घरेलू तथा औद्योगिक कार्यों में प्रयोग किया जा सकता है. 

रेन हार्वेस्टिंग आवश्यक है 

पानी को बचाने और उसे वापस पृथ्वी में पहुँचाने के लिए रेन हार्वेस्टिंग एक कारगर उपाय है. पानी की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए अगर रेन हार्वेस्टिंग पर ध्यान न दिया गया तो वह दिन दूर नहीं जब पानी की एक एक बून्द के लिए तरसना पड़ेगा.  रेन वाटर हार्वेस्टिंग एक बड़ा प्रोजेक्ट है जिससे बड़े बोरवेल, ग्राउंड वाटर के स्रोत और तालाब आदि में पानी इकठ्ठा किया जा सकता है. 

ऐसे घरों में जहाँ कच्चा स्थान उपलब्ध है, या कोई बाग़ बगीचा, लॉन आदि मौजूद है वहां छोटे पैमाने पर बारिश का पानी ग्राउंड वाटर को स्रोत को रिचार्ज करने के लिए प्रयोग किया जा सकता है. इसके लिए लॉन, बागीचे के बीच में एक से दो मीटर व्यास का एक गड्ढा बना लें जिसकी गहराई भी एक से दो मीटर हो. इस गड्ढे को गिट्टी, कंक्रीट आदि भर के एक सोख्ता गड्ढे की तरह बनाएं. इसको एक सीमेंट के कवर से ढक दें जिससे किसी का पैर इसमें न जाए. इस कवर में एक इंच व्यास के छेद एक से दो इंच की दूरी पर रखें. लॉन, बगीचे की सतह से यह कुछ नीचा हो जिससे बरसात का पानी इसमें छनकर नीचे ज़मीन में चला जाए. 

आप की यह छोटी सी कोशिश भूमिगत जल को समाप्त होने से बचाएगी. 

जमीन में ग्राउंड वाटर का स्तर लगाताएक र गिर रहा है. इसे सुधारना ज़रूरी है. प्रत्येक घर में रेन हार्वेस्टिंग का इंतिज़ाम होना ज़रूरी है. 

जमीन को कच्चा रखना 

जहाँ तक मुमकिन हो जमीन का कुछ भाग कच्चा रखें जिससे पानी को जमीन में जाने का रास्ता मिले और जल स्तर ें बढ़ौतरी हो. 

खर पतवार को नष्ट न करें 

खर पतवार भी आवश्यक है. ये नेचर का एक आवश्यक भाग है. 

अधिक पेड़ पौधे लगाएं. 

यदि सुखी जीवन चाहिए है तो पेड़ ज़रूर लगाएं. बाजार ने प्लास्टिक के पौधे बेचना शुरू कर दिए हैं. जो उपभोक्तावाद की निशानी हैं जिनसे कुछ नहीं मिलता. 


उपभोक्तावाद से बाहर निकलें. घरों के अंदर लगाने के लिए इनडोर प्लांट उपलब्ध हैं. इनकी देख भाल करें. जगह हो तो बड़े पेड़ भी लगाएं. 



रविवार, 1 जनवरी 2023

बड़ी पीपल Pepper Longum

 बड़ी पीपल एक मसाला है, इसे पीपर लोंगम या लम्बी मिर्च कहते हैं. इसकी एक छोटी वैराइटी भी होते है जिसे छोटी पीपल कहते हैं. 

पीपल का इस्तेमाल बरसों से  और मसालों में किया जा रहा है. भारत का दक्षिण भाग मसालों का घर है जहां पर ये बहुतायत से पैदा होती है. श्री लंका की पीपल बहुत  मानी जाती है. पीपल का प्रयोग अधिकतर मसाले के रूप में और चूरन बनाने में किया जाता है. चूरन में छोटी बड़ी दोनों पीपल डाली जाती है. 


इसका स्वाद तीखा मिर्च से मिलता जुलता होता है. स्वभाव से ये गर्म और खुश्क है. काली मिर्च के स्थान पर भी बहुत से लोग इसे प्रयोग करते हैं. ये पाचन शक्ति को बढ़ाने वाली और मेमोरी को बढ़ाने वाली है. इसके इस्तेमाल से खांसी और ठण्ड के रोग जैसे नज़ला, ज़ुकाम दूर होते हैं. 

पीपल के सर्दियों में इस्तेमाल से रक्त पतला रहता है और रक्त का थक्का बनने के अवसर कम हो जाते हैं. इसे सर्दियों में विशेष रूप से इस्तेमाल कर सकते हैं. 


रविवार, 13 नवंबर 2022

कालीजीरी Centratherum anthelminticum

कालीजीरी एक पौधे के बीज हैं जो दवाओं में  काम आते हैं. इसे कुछ लोग गलती से काला जीरा समझ लेते हैं लेकिन यह केवल एक भ्रम है. जीरा एक मसाला है जिसका प्रयोग अक्सर खाने में किया जाता है. इसकी विशेष गंध और स्वाद होता है. लेकिन कालीजीरी का स्वाद कड़वा होता है. इसे खाने की डिश में प्रयोग नहीं किया जाता. ये दवा के रूप में प्रयोग होती है. 


इसके कड़वे स्वाद और मतली, उलटी लाने के प्रभाव के कारण इसका प्रयोग एक बार में एक चौथाई ग्राम से आधा ग्राम की मात्रा में किया जाता है. दिन भर में इसकी एक ग्राम तक की मात्रा ली जा सकती है. इससे अधिक लेने पर इसके दुष्प्रभाव उतपन्न होते हैं जैसे जी मिचलाना, उलटी आना, पेट दर्द, शरीर पर लाल चकत्ते पड़ना आदि. काली जीरी को कुछ लोग कड़वा जीरा भी कहते हैं. 

इसके वानस्पतिक नाम में anthelminticumशब्द जुड़ा है जो यह बताता है कि कालीजीरी एक ऐसे दवा समूह से सम्बन्ध रखती है जो कृमि नाशक है. ऐसी दवाएं बिना मरीज को नुकसान पहुंचाए कीड़े मार या कृमि नाशक का कार्य करती हैं. 

कालीजीरी नीम की तरह अच्छा एंटीसेप्टिक है. ये पेट के कीड़े भी मारकर निकाल देती है. इसके लिए एक ग्राम वायवडंग का पाउडर, ( यह एक प्रकार के काले भूरे बीज होते हैं, जिनका आकार काली मिर्च से मिलता जुलता होता है, यह भी पेट के कीड़े मारने के लिए प्रयोग की जाती है. ) आधा ग्राम कालीजीरी का पाउडर और थोड़ा सा गुड़ मिलाकर रात को सोते समय  खिलाया जाता है. इसका 2 से 3 दिन का इस्तेमाल पेट के कीड़ों से छुटकारा दिला देता है.  छोटे बच्चों को देना हो तो खुराक आधी करलें. 

कालीजीरी 10 ग्राम , अजवायन 20 ग्राम , मेथी 20 ग्राम और कुटकी 10 ग्राम का पाउडर बनाकर 2 से 3 ग्राम की मात्रा में पानी  के साथ सुबह शाम  लेने से मेटाबॉलिज़्म तेज़ होता है और मोटापा कम हो जाता है. लेकिन इस दवा का प्रयोग हकीम या वैद्य की निगरानी में करें. 

गुरुवार, 11 अगस्त 2022

अरंड Castor Oil Plant, Ricinus communis

 अरंड, अंडी, अंडौआ  एक मध्यम ऊंचाई के पौधे के नाम हैं जिसकी लकड़ी कमज़ोर और पत्ते पपीते के पत्तों से मिलते जुलते होते हैं. पपीते का पेड़ एक सीधे तने वाला होता है जिसमें गोलाई में चारों ओर पत्ते लगे होते हैं और इसके तने में फूल फल लगते हैं. इस पौधे का वानस्पतिक नाम Ricinus communis है. 


जबकि अरंड का पेड़ बहुत सी शाखाओं वाला एक झाड़ीदार पेड़ होता है. सितंबर, अक्टूबर में इसके फूल निकलते हैं और फिर फल लगते हैं जो एक कांटेदार आवरण में बंद होते हैं. ये कांटे मुलायम होते हैं और हाथ में नहीं चुभते. सूखने पर ये फल तीन भागों में फट जाता है और इसमें से बीज निकलते हैं. इन बीजों को अण्डी कहते हैं. 

अण्डी का छिलका कड़ा होता है. इसपर चित्तियां पड़ी होती हैं. अण्डी काले, भूरे रंग की होती है इसके अंदर मुलायम बीज होता है जो तेल से भरा होता है. इसको हाथ से मसलने पर हाथ में तेल लग जाता है. 

अरंड, या अण्डी के तेल को कैस्टर ऑयल कहते हैं. इसका प्रयोग हकीम, वैद्य और डाक्टर सभी करते हैं. ये बहुत कॉमन दवा है. इसका मुख्य प्रयोग कब्ज़ दूर करने के लिए किया जाता है. सोते समय एक सो दो चमच कैस्टर ऑयल दूध में मिलाकर पिला देते है इससे खुलकर पेट साफ़ हो जाता है. कैस्टर ऑयल काफी गाढ़ा होता है. इसमें एक विशेष गंध आती है जो अरंड की गंध है, इसलिए बहुत से लोगों को ये सूट नहीं करता. 

ये एक बहुत अजीब हर्ब है. इसका तेल चमड़े को नरम करने, जलाकर रौशनी करने, कई प्रकार के साबुन, और औद्योगिक कार्यों में प्रयोग होता है. कॉस्मेटिक इंडस्ट्री में भी इसका प्रयोग होता है. कैस्टर ऑयल में त्वचा को कांतिमय बनाने, झुर्रियां दूर करने, धूप के बुरे प्रभाव से बचाने के गुण हैं. इसका प्रयोग लिपस्टिक बनाने में भी होता है. इस ऑयल का प्रयोग त्वचा की कुदरती नमी बरक़रार रखता है. 

कैस्टर ऑयल को थोड़ा सा असली गुलाब जल मिलाकर त्वचा पर लगाने से एक अच्छे नमी कारक का कार्य करता है. इसके इस्तेमाल से बालों की रुसी जाती रहती है. 

इसके पौधे को बहुत देखभाल की आवश्यकता नहीं होती. ये बरसात में आसानी से बीज से लगाया जा सकता है. मार्च अप्रैल में इसके फल पककर तैयार हो जाते हैं. किसानों के लिए ये एक अच्छी फसल है. इसका पौधा दो-तीन वर्ष तक रह सकता है. दूसरे साल में इसमें अच्छी पैदावार होती है. तीन साल के बाद इसके पौधे पुराने हो जाते हैं. तब नए पौधे लगाने चाहिए. 


इसकी लकड़ी का कोयला बहुत हल्का होता है. इस कोयले से दांत साफ़ करने से दांत चमक जाते हैं. 

अजीब बात है कि इसका फल जिसे अण्डी कहते है एक खतरनाक ज़हर है. बच्चों को इससे दूर रखें. कई बार बच्चों ने गलती से अण्डी को खा लिया है जिससे गंभीर परिणाम उत्पन्न हुए हैं. 


सोमवार, 8 अगस्त 2022

कायफल Myrica esculenta

 कायफल एक मध्यम ऊंचाई का वृक्ष है जिसका घर हिमालय का क्षेत्र गढ़वाल, कुमाऊं नेपाल और भूटान है. ये पहाड़ों की ऊंचाई पर 1000 से 2000 फिट की ऊंचाई पर उगता है. ये उत्तराखंड का विशेष फल है और वहां बहुत चाव से खाया जाता है. इसे काफल कहते हैं. 

ये फल छोटे, गोल आकार के पकने  लाल रंग के हो जाते हैं. इन फलों का सीज़न अप्रैल, मई का होता है जब मार्केट में ये बहुतायत से मिलते हैं. 

लेकिन दवाओं में इसकी छाल का प्रयोग होता है. इसकी छाल कायफल के नाम से बाजार में मिलती है. जड़ी बूटी बेचने वाली दुकानों से मांगने पर कायफल की छाल ही मिलती है. इसके लिए अलग से कायफल की छाल कहने की आवश्यकता नहीं है. 

कायफल की छाल का प्रयोग दवाओं में किया जाता है. इसका स्वाद कड़वा होता है और इसका प्रभाव गर्म तर है. दांतों की समस्याएं, दांतों से खून पीप निकलना, मसूढ़ों की सूजन में इसकी छाल का काढ़ा बनाकर गार्गल करने से लाभ होता है. 

कायफल की छाल एंटीसेप्टिक का कार्य करती है. इसका पाउडर बनाकर घाव पर छिड़कने से घाव जल्दी भर जाते हैं और उनमें सड़न नहीं होती. 

एक आदमी बहुत पुराने नज़ला ज़ुकाम से परेशान था. दादी ने उसे कायफल की छाल का पाउडर बनाकर उसे एक पोटली में बांधकर दे दिया. उससे कहा की इस पोटली को हाथ में रखो और जब तब सूंघते रहो. उसने ऐसा ही किया. कायफल की छाल का पाउडर सूंघने से उसे बहुत छींकें आयीं और पुराना ज़ुकाम बह गया. फिर दादी ने उसे कुश्ता मरजान, खमीरा मरवारीद में मिलकर खाने को कहा. पुराना ज़ुकाम जो किसी दवा से नहीं जाता था, ठीक हो गया. 


कायफल की छाल से बना तेल जोड़ों के दर्दों के लिए भी लाभकारी है. इसे लगाकर सिंकाई करें और गर्म पट्टी बांधें. 

कायफल एक फल ही नहीं एक कमाल की दवा है. 

रविवार, 7 अगस्त 2022

हाथीसूँडी बूटी Heliotropium indicum

 हाथीसूँडी एक जड़ी बूटी है जो खली पड़े स्थानों, खेतों और सड़कों के किनारे उगती है. इसका मौसम जून जुलाई से अक्टूबर तक का है. इसमें लम्बी शाखाओं में गुच्छों में फूल लगते हैं. ये फूलों की शाखाएं हाथी की सूंड से मिलती जुलती होने के कारण इसे हाथीसूँडी बूटी कहते हैं. 

इसका प्रयोग पुराने हकीम चांदी की भस्म बनाने में करते थे. हकीम चांदी की भस्म को कुश्ता नुकरा कहते हैं. इसे शक्तिवर्धक और खून की कमी दूर करने में प्रयोग किया जाता है. इस बूटी के पत्तों को कुचल कर पेस्ट बनाकर उसमें चांदी के पतले टुकड़ों को जिसे चांदी का पत्रा कहते थे लपेटकर एक मिटटी के बर्तन में रखकर उसे अच्छी तरह कपड़मट करके सुखाने के बाद आग में फूँक लेते थे. इससे चांदी के बारीक़ पत्र खील खील हो जाते थे इसे ही चांदी का कुश्ता कहते थे. 


ये बूटी ताज़े घाव से खून को बंद करने और घाव को सुखाने में बहुत कारगर है. पुराने घाव भी इसके पत्तों का रस लगाने से ठीक हो जाते हैं. इसके स्वभाव गर्म-तर है. जिन महिलाओं को मासिक धर्म की समस्या हो, इसके पत्तों और जड़ का जोशांदा बनाकर पिलाने से मासिक खुलकर आता है. अधिक सेवन करने से गर्भवती महिलाओं को गर्भपात हो जाता है. इसलिए इस बूटी को गर्भवती महिलाऐं इस्तेमाल ने करें. 

इसकी जड़ का जोशांदा खांसी और बुखार में भी लाभ करता है. कहते हैं कि बारी का ज्वर जिसे मलेरिया कहते हैं हाथीसूँडी के सामने टिक नहीं सकता. ये बूटी ऐसे मौसम में पैदा होती है जिस मौसम में मलेरिआ का प्रकोप होता है. पुराने जानकार इस बूटी के जोशांदे के साथ काली मिर्च और तुलसी के पत्तों की गोली बनाकर इस्तेमाल करते थे और मलेरिआ छूमन्तर हो जाता था. 

आंखो की सूजन में इसके पत्तों को कुचलकर, आंख बंद करके ऊपर बांधने से आराम मिलता है. लेकिन ये ज़रूर देखलें की पत्ते साफ हों और उनमने गंदगी न हो. 

हाथीसूँडी जोड़ों के दर्द में भी लाभकारी है. इसका तेल बनाकर या फिर जड़ को पीसकर दर्द वाली जगह पर लगाने से आराम मिलता है. 


शनिवार, 6 अगस्त 2022

अश्वगंधा Withania somnifera

अश्वगंधा एक छोटा हर्ब है. इसे दवाई के लिए उगाया भी जाता है और ये जंगली पौधों की तरह भी उगता है. इसके फल या बीज पककर लाल रंग के हो जाते हैं और रसभरी की तरह एक कवर में बंद होते हैं. इनका आकार मकोय के बराबर होता है. इन फांफ में छोटे बीज भरे होते हैं. 

इसकी जड़ों को दवा के रूप में प्रयोग किया जाता है. इसकी ताज़ी जड़ों से घोड़े की गंध आती है इसलिए इसे अश्वगंधा या घोड़े की गंध वाली बूटी कहते हैं. इस पौधे से पुराने वैद्य खूब वाकिफ थे और वे ही इसे दवाई के रूप में प्रयोग करते थे. फिर इस दवा को हकीमों ने इस्तेमाल करना शुरू किया और वे भी इसके गुणों से परिचित हो गये और उन्होंने माना की अश्वगंधा कमाल की दवा है. 

इसे हकीमों ने असगंध कहा और यही नाम प्रचलित हो गया. नागौर के इलाके की अश्वगंधा बहुत कारगर मानी जाती है इसलिए हकीम इसे असगंध नागौरी लिखते हैं. 

बाजार में ये छोटी लकड़ियों के रूप में मिलती है. ये इसकी सुखी जड़ें होती हैं. इनका रंग क्रीम, भूरा होता है. पीसने पर आसानी से पिस कर पाउडर बन जाती हैं. इनमें रेशे भी नहीं होते. बाजार में इसका पाउडर भी मिलता है जिससे कूटने पीसने के झंझट से छुटकारा मिल जाता है. 

अश्वगंधा का इस्तेमाल घोड़े की तरह बल उतपन्न करता है. इसका पाउडर 1 से 3 ग्राम की मात्रा तक उपयोग किया जा सकता है. ये रक्त में हीमोग्लोबिन को बढ़ाता है और मांस पेशियों को मज़बूत करता है. 

जो लोग नींद की कमी, बेचैनी, घबराहट, डिप्रेशन का शिकार हैं अश्वगंधा उनके लिए बहुत लाभकारी टॉनिक का काम कर सकता है. 

इसके इस्तेमाल से दिल की ही नहीं, दिमाग की सेहत भी दुरुस्त रहती है. ये पुरुषों में कामोद्दीपन करने में सक्षम है. इससे टेस्टोस्टेरोन की मात्रा बढ़ती है और ज़िंदगी जीने की इच्छा बलवती होती है. जो लोग ज़िंदगी से मायूस हो चुके हों अश्वगंधा उनका बेहतरीन साथी है. ये मूड को फ्रेश करता है और अच्छी नींद लाने में मदद करता है. 

ये जोड़ों के दर्दों, कमर दर्द, स्त्रियों के श्वेत प्रदर, की अचूक दवा है. अश्वगंधा और सुरंजान का चूर्ण समान मात्रा में मिलकर खाने से जोड़ों और कमर के दर्द से छुटकारा मिल जाता है. 

ये लिवर के लिए भी अच्छी दवा है. शरीर से ज़हरीले माद्दे निकलकर शरीर को डिटॉक्स कर देता है. 

होम्योपैथी वाले भी इसे इस्तेमाल कर रहे हैं. अश्वगंधा मदर टिंक्चर में बाजार में मिलता है. 

अजीब बात है कि अश्वगंधा की जड़ों में बहुत गुण हैं लेकिन इसके फल और बीज अगर खाए जाएं तो बहुत नुक्सान करते हैं. उलटी और पेट में दर्द शुरू हो जाता है. 

अश्वगंधा को किसी काबिल हकीम या वैद्य की निगरानी में ही इस्तेमाल करें.  

सोमवार, 1 अगस्त 2022

समुद्र फल Indian Oak, Barringtonia acutangula

समुद्र फल एक मध्यम ऊंचाई का वृक्ष है. ये नदियों की किनारे पाया जाता था इसलिए इसका नाम समुद्र फल या सिंधु फल पड़ा. इसे भारतीय शाह बलूत या इंडियन ओक भी कहते हैं. इसका एक नाम हिज्जाल भी है. हकीम इसे जोज़-अल-कै भी कहते हैं. 

इसके पेड़ में गुच्छो में लम्बी शाखों में लाल रंग की खूबसूरत फूल लगते हैं. फूलों की लम्बी शाखाओं की वजह से ये आसानी से पहचाना जा सकता है. इसके दवाई गुण बहुत लाभकारी हैं. लेकिन इसका इस्तेमाल करना हर किसी के बस की बात नहीं है. इसका सबसे बड़ा गुण उल्टी लाने का है. इसके इस्तेमाल से बहुत ज़ोर की मिचली और उलटी आती है. बहुत थोड़ी मात्रा में इसका प्रयोग वैद्य लोग बलगम निकालने और खांसी दूर करने में करते हैं. 


ये सूजन को घटाता है इसलिए फेफड़ों की शोथ, न्यूमोनिया, कफ और पुरानी खांसी, दमा रोग में फायदेमंद है लेकिन प्रयोग फिर सावधानी चाहता है और काबिल वैद्य या हकीम की निगरानी में ही इस्तेमाल किया जा सकता है. 

समुद्र फल कैंसर रोधी है. ये ट्यूमर को घटाकर कम कर देता है. इसके अतिरिक्त ये मूत्र की मात्रा को बढ़ा देता है. शरीर में पानी पड़ जाने और उसकी वजह से सूजन आ जाने में फायदा करता है. 

अजीब बात है कि मछलियों की लिए ये एक घातक विष है. मछुआरे इसकी छाल पीसकर पानी में डाल देते हैं जिससे मछलियां मर जाती हैं. दूसरी अजीब बात ये है कि इसके फल रीठे की तरह कपडे धोने में काम आते हैं. कपड़ों के लिए ये एक डिटर्जेंट का काम करता है. 

समुद्र फल का इस्तेमाल न करें. ये खतरनाक हो सकता है.  


आम के बीज से पौधा उगना Mango Seed Germination

आम की गुठली जिसे आम का बीज भी कहते हैं आम का पौधा बहुत आसानी से जमाया जा सकता है. घूरे कूड़े पर पड़ी आम की गुठलियां बरसात का पानी पाकर उनसे पौधे निकलते हैं. लेकिन उचित देख रेख न मिलने या फिर बरसात के बाद पानी न मिलने से सूख जाते हैं.  

आम की गुठली मोटी और सख्त होती है. बीज को जमने के लिए इतने पानी की ज़रूरत होती है जिससे अंदर का बीज फूल जाए, उसमें जड़ निकले और वह बहरी कवर को फाड़कर बाहर निकल सके. इसके लिए कुदरत ने आम के बीज में रेशे बनाए हैं जो पानी सोख लेते हैं और गुठली नरम हो जाती है. आम के बीज को जमने के लिए 25 डिग्री सेल्सियस से 40 डिग्री सेल्सियस के तापमान की ज़रूरत होती है. इसके अलावा इसे गर्म और नम मौसम चाहिए. उत्तरी भारत में ये सभी आवश्यकताएं बरसात के मौसम में आसानी से पूरी हो जाती हैं इसलिए आम के बीज आसानी से फूट जाते हैं और इनसे नए पौधे निकलते हैं. 

आम की गुठली को एक गमले में बगीचे की मिटटी में लगा दीजिये. इसे हल्का पानी दीजिये जिससे इसमें नमी बनी रहे. गुठली से सबसे पहले जड़ निकलती है. जड़ एक छोटे छेद से निकलती है जहाँ पुर कुदरत ने गुठली को थोड़ा सा कमज़ोर रखा होता है. जड़ पानी लेकर अंदर के बीज को देती है जिससे बीज फूल जाता है और उसके फूलने से गुठली फट जाती है. अब इस गुठली से नन्ही छोटी पत्तियां निकलती हैं जिनका रंग बैगनी होता है. ये आम में मौजूद टैनिक एसिड और गैलिक एसिड की वजह से होता है. 

गुठली पर धुप पड़ने से वह भी हरे रंग में बदल जाती है और क्लोरोफिल के कारण कुछ भोजन बनाकर नयी पत्तियों को देती है. गुठली में भी इस नये पौधे के लिए भोजन पहले ही मौजूद होता है. लेकिन कुदरत इसका पोषण दो तरह से करती है. 

गुठली से पौधा दो सप्ताह में निकल आता है. दो सप्ताह के पौधे का फोटो ये है. 


पौधा धीरे धीरे डेवलप होता है. इसकी पत्तियां अभी हरी नहीं होतीं. अगले एक सप्ताह के बाद पौधा कुछ इस तरह का लगता है. 


अगले एक सो दो सप्ताह में पौधा लम्बाई में बढ़ जाता है. इसके पत्ते भी बड़े हो जाते हैं और जड़ गहराई में पहुंच जाती है. चार सप्ताह के पौधे का चित्र ये है:


पांच से छः सप्ताह में पौधे की पत्तियां और बड़ी हो जाती हैं. इस पौधे का चित्र ये हैं:


आम का नया पौधा सितंबर तक बढ़ता है. लेकिन ये एक डेढ़ फुट से ज़्यादा नहीं बढ़ता. अब क्योंकि पतझड़ का मौसम आ जाता है और आम के पौधे सुप्तावस्था में चले जाते हैं. 

इन नये पौधों को सर्दी के मौसम में सर्दी और पाले की मार से बचाना ज़रूरी है. नहीं तो पौधा मर जाता है. फरवरी में ये पौधे फिर जागते हैं और इनमें नयी पत्तियां निकलती हैं. 

दो या तीन वर्ष के पौधों को नयी जगह पर लगाया जा सकता है. बीज से बने आम के पौधे में फल आने में सात से दस वर्ष लगते हैं. 

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