मंगलवार, 11 सितंबर 2018

डूबते सूरज का रंग

डूबते सूरज का रंग बाजार की भाषा में सनसेट यलो एफ सी एफ कहलाता है. ये रंग भी टार से बनता है. इसे भी खाने और दवाओं में प्रयोग किया जाता है. इसे E-110 और  FD&C YELLOW 6 भी कहते हैं.

ये रंग खाने को संतरे जैसा रंग देता है. चिकन से बने खाने, चिकन कोरमा, चिकन फ्राई, चिकन रोस्टेड को इसी रंग में खूब लपेटा जाता है जिससे रंग सुन्दर दिखाई दे. पनीर के पकवान जैसे शाही पनीर, पनीर कढ़ाई, पनीर हांड़ी, पालक पनीर में भी खूब मिलाया जाता है.
इसके अलावा नमकीन, स्नैक्स, बिस्किट, और उनमे लगाने वाली क्रीम में भी यही रंग बहुतायत से पाया जाता है. इसी रंग को लाल रंग के साथ मिलकर ब्राउन रंग बनाया जाता है जो चॉकलेट और केक में प्रयोग होता है. सॉफ्ट ड्रिंक और फलों के जूस का भी ये अच्छा रंग है.
टॉनिक, पेट की दवाएं जैसे जेल और टेबलेट में भी ये मिलाया जाता है.
मानक के अनुसार ये रंग खाने की चीज़ों में एक किलो  में 4 मिलीग्राम तक  मिलाया जा सकता है. लेकिन हमारे देश में ये 100 - 200 गुना तक मिला दिया जाता है और इससे फ़ूड पॉइज़निंग होने का खतरा रहता है क्योकि ये इतनी मात्रा में पेट में पहुँचता है जो निर्धारित मानक से कहीं ज़्यादा होती है.
घरों में खाने की चीज़ो में मिलते समय ये नहीं देखा जाता की इसकी मात्रा कितनी है. अधिक से अधिक मात्रा का प्रयोग घरेलु महिलाओं द्वारा, हलवाइयों द्वारा मिठाइयों में किया जाता है.
ये रंग भी एलर्जी पैदा कर सकता है और ये भी कहा जाता है की इसमें ऐसा कुछ नहीं है जो कैंसर को जन्म दे.
इसलिए घबराने की कोई बात नहीं लेकिन आप वह चीज़ें क्यों खा रहे हैं जो खाने की नहीं हैं ?  

एक जंग कलर के खिलाफ

 खाने में आपको कुछ भी खिलाया और पिलाया जा रहा है. क्या आपने कभी सोचा है की इस मल्टी-नैशनल बाजार में तरह तरह की खाने की चीज़े परोसी जा रही हैं. पीले कलर के ऐसे कोल्ड ड्रिंक हैं जो आम जैसे फलों के जूस के नाम पर बेचे जा रहे हैं. इनको पीने से दांत तक पीले पड़  जाते हैं.

पीले फ़ूड कलर में कई तरह के रंग प्रयोग होते हैं. इनमें मुख्य रंग है टार्टराजिन  ये खिलता हुआ पीला कलर नीबू जैसा  है और टार से बनता है. इसे E - 102 से भी जाना जाता है. इसे एफ डी एंड सी यलो नंबर 5 भी कहते हैं. 
 ये रंग सॉफ्ट ड्रिंक, कोल्ड ड्रिंक, फलों के जूस, आइस क्रीम, कैंडी, पॉप कॉर्न, आलू के चिप्स, नमकीन, नूडल्स, ब्रेड, आदि और बहुत सी ऐसी चीज़ों में मिलाया जाता है जिसका आपको पता भी नहीं चलता.
खाने के आलावा लगाने की चीज़ों में जैसे साबुन, क्रीम, शैम्पू, हेयर ऑइल, दवाओं की टेबलेट, पीने की दवाएं, लगाने की दवाएं भी इस रंग से युक्त होती हैं.
ये रंग एलर्जी पैदा करता है. दमे के रोगियों को नुकसान करता है. इसके प्रयोग से बच्चो में हाइपर होने की सम्भावना बढ़ जाती है.
दुनिया में फ़ूड कलर के रूप में सबसे ज़्यादा यही रंग प्रयोग किया जाता है. कुछ चीज़ों में ये इतनी काम मात्रा में मिला होता है जिसे रंग का पता भी नहीं चलता. इसकी मात्रा 7. 5 मिलीग्राम एक किलो में ली जा सकती है. कहा जाता है की कैंसर का कारण यही रंग है लेकिन साइंटिस्ट इसे  नहीं मानते क्योंकि उनके अनुसार ऐसा कुछ नहीं पाया गया. उनका कहना है की ये एक निष्क्रिय पदार्थ है और अन्य पदार्थो से क्रिया नहीं करता.

सोमवार, 10 सितंबर 2018

मुश्कदाना

मुश्कदाना कमाल का पौधा है. इसका पौधा और पत्तियां भिंडी से मिलती जुलती होती हैं.  ये मैलो जाती का पौधा है. भिंडी की से मिलता जुलता होने के कारण इसे  जंगली भिंडी भी कहते हैं.

इसका पौधा रोएंदार होता है. इसमें पीले रंग के खूबसूरत फूल खिलते हैं. इसके बीजो में मुश्क या कस्तूरी की तरह सुगंध आती है इसलिए इसके बीजों को ही मुश्कदाना कहते हैं. इसके पौधे को कस्तूरी लता या लताकस्तूरी भी कहते हैं. अंग्रेजी में इसका नाम अम्ब्रेट है. ये नाम अम्बर से बना है जो स्वयं एक सुगंध है. इसके बीजों से सुगन्धित तेल निकला जाता है जो कास्मेटिक में प्रयोग होता है.
देहातों में इस पौधे का प्रयोग शकर को साफ़ करने में किया जाता था. इस पौधे से शकर का रंग साफ़ हो जाता था. इससे सेहत की कोई हानि भी नहीं होती थी. अब शकर को साफ़ करने के लिए शुगर मिलों में केमिकल का प्रयोग किया जाता है.
इसके बीजों से जो तेल निकलता है वह काफी सुगन्धित होता है और इस तेल का प्रयोग सुगंध बनाने में, इतर में और अगरबत्ती बनाने में उपयोग होता है. लेकिन अब इसकी जगह भी कृतिम सुगंध ने लेली है.
साबुन उद्योग, सौंदर्य प्रसाधन में इसकी सुगंध का प्रयोग किया जाता है.
ये पौधा सांप के ज़हर को नष्ट करता है. सांप कटे में इसका अंदरूनी और बाहरी प्रयोग किया जाता था. ये डाइयुरेटिक यानि पेशाब-आवर है इसलिए ये गुर्दे और रक्त से अशुद्धियाँ निकाल  देता है.
इसके कच्चे फलों की सब्ज़ी भिंडी की तरह ही बनाकर खायी जाती है. कुछ लोग इसके फूलों और कोंपलों को भी सब्ज़ी के रूप में प्रयोग करते हैं.
इसका बीज पेट को रोगों में कारगर है. दवाओं में इसके बीज के चूर्ण का प्रयोग किया जाता है.


रविवार, 9 सितंबर 2018

नान स्टिक कुकवेयर

नान स्टिक कुकवेयर का आजकल बहुत चलन है. इन बर्तनो में खाना पकाने में बहुत आसानी रहती है. खाना कम चिकनाई में पक जाता है और बर्तनो में भी नहीं चिपकता जिससे बर्तनो को धोने में मेहनत नहीं करना पड़ती.

नान स्टिक कुकवेयर बेचने वाले आपके दिल की सेहत के लिए इन्हे अच्छा बताते हैं की ज़्यादा फैट खाने से बचो और दिल को दुरुस्त रखो. मोटापे, ब्लड प्रेशर जैसे बीमारियों से भी दूर रहो. लेकिन नान स्टिक कुकवेयर आपकी सेहत को कैसे बिगाड़ता है इसके बारे में कुछ नहीं बताते. कई रिपोर्ट्स में ये भी कहा गया की नान स्टिक कुकवेयर कैंसर जैसे रोगों को बढ़ावा देता है. लेकिन इस रिपोर्ट को ख़ारिज कर दिया जाता है और यही कहा जाता है की नान स्टिक कुकवेयर से कुछ भी नुकसान नहीं होता.

नान स्टिक कुकवेयर में बर्तनो पर कई प्रकार के पदार्थ की परतें चढ़ाई जाती हैं. इनमें पॉली -टेट्रा -फ्लोरो -एथिलीन एक मुख्य पदार्थ है. इसे संक्षेप में पी टी एफ ई कहते हैं. आम तौर से इसे इसके ट्रेड नेम टेफ्लॉन के नाम से जाना जाता है. पी टी एफ ई का इस्तेमाल सबसे पहले एटम बम बनाने की प्रक्रिया के दौरान प्रयोग की जाने वाली  गैस यूरेनियम हेक्साफ्लोराइड के दुष्प्रभाव से बचने के लिए सील बनाने में किया गया था. बाद में इसे अन्य कार्यो में इस्तेमाल किया जाने लगा.
नान स्टिक कुकवेयर में खाना बनाते समय इसकी परत न उखड़े इसके लिए पैन में लकड़ी या प्लास्टिक के चमच का प्रयोग किया जाता है. लेकिन इसकी परत तो उखड़ती ही है. खाने के साथ टेफ्लॉन के बारीक़ कण और छोटे टुकड़े पेट में पहुंचते रहते हैं. लम्बे समय तक इस्तेमाल करने से बर्तनों से टेफ्लॉन का बंधन टूट जाता है और फिर बड़े बड़े टुकड़े उतरने लगते हैं.
ये दुनिया एक बड़ा बाज़ार है इसलिए नान स्टिक कुकवेयर बनाने और बेचने वाले कहते हैं कि  इससे कोई नुकसान नहीं होता. टेफ्लॉन ऐसा पदार्थ है जो निष्क्रिय है और अन्य पदार्थो से क्रिया नहीं करता. इसके टुकड़े और सूक्ष्म कण शरीर पर बिना किसी दुष्प्रभाव के ऐसे ही बाहर निकल जाते हैं. इसलिए ये सुरक्षित है और डरने की कोई ज़रुरत नहीं.  लेकिन टेफ्लॉन की कोटिंग खाने के साथ खायी जा रही है. लोग वह चीज़ें खा रहे हैं जो खाने वाली नहीं हैं.             टेफ्लॉन के खतरों से बचने के लिए सेरामिक  कुकवेयर का प्रयोग किया जाने लगा है. सेरामिक कोटिंग सॉल - जेल प्रक्रिया कहलाती है जो मेटल के बर्तनो को भट्टी में सेरेमिक बर्तनों की तरह तपाकर की जाती है. ये बर्तन टेफ्लॉन कोटिंग वाले बर्तनो की तुलना में अधिक सुरक्षित माने  जाते हैं और अभी तक इनके दुष्प्रभाव सामने नहीं आये क्योंकि ये केमिकल से मुक्त होते  हैं.

रविवार, 2 सितंबर 2018

कचनार Bauhinia Variegata

कचनार एक मध्यम आकार का वृक्ष है. फरवरी से मार्च के मौसम में ये खूबसूरत फूलों से भर जाता है. इसकी पत्तियां आगे से अंदर की ओर धंसी हुई होती हैं. इनका आकर ऐसा लगता है जैसे ऊँट के पैर का रेत में पड़ा निशान हो. इसलिए इसे अंग्रेजी में कैमल्स फुट ट्री भी कहते हैं.  ये एक प्रकार का ऑर्किड है. इसकी कई प्रजातियां हैं. इसलिए कचनार को ऑर्किड ट्री भी कहते हैं. 

ये अपने पत्तों और फूलों से आसानी से पहचाना जा सकता है. इसके फूल आम तौर से हलके बैगनी या पर्पल कलर के होते हैं. लेकिन सफ़ेद और गुलाबी फूलों वाला कचनार भी पाया जाता है. इसके फूल की एक पंखुड़ी सबसे अलग होती है जिस पर क्राउन का निशान बना होता है. इस प्रकार के फूलों को क्राउन पंखुड़ी वाले फूल कहते हैं. गुलमोहर के फूल की पंखुड़ी में भी क्राउन बना होता है. तालाबों और नदियों में पायी जाने वाली जलकुम्भी या वाटर ह्यसिन्थ के फूल की पंखुड़ी में भी क्राउन होता है. 
कचनार की कलियों की सब्ज़ी बनायी जाती है. इनका स्वाद कुछ कड़वापन लिए हुए होता है. कचनार पेट के रोगों की अच्छी दवा है. इसके लिए इसकी छाल का चूर्ण सुखी अदरक जिसे सोंठ भी कहते हैं के चूर्ण के साथ मिलकर सुबह शाम तीन ग्राम की मात्रा में प्रयोग करने से लाभ मिलता है. कचनार डायरिया में लाभ करता है. इसकी कलियों का अचार भी बनाया जाता है जो आँतों को शक्ति देता है और भूख बढ़ाता है.
कचनार ब्लड प्रेशर को घटाता है. जिन लोगों को थायराइड का रोग हो उन्हें कचनार के फूलों का काढ़ा पीने से लाभ मिलता है. आयुर्वेदिक दवाओं की कम्पनी कचनार काश्य बनाती है जो एक प्रकार का सीरप होता है और इसे घेघा रोग के लिए प्रयोग किया जाता है. 
इसके फूल सूखे भी प्रयोग किये जा सकते हैं. यदि फूल न मिलें तो कचनार की छाल का काढ़ा भी पिया जा सकता है. इसके अलावा कचनार शरीर की गांठों और बढ़ी हुई गिल्टियों के लिए भी प्रयोग किया जाता है. यूट्रस की रसौलियां, पीठ में होने वाला लाइपोमा भी इससे ठीक हो जाता है. 

कचनार बवासीर के लिए उपयोगी है. इसके प्रोयोग से बवासीर ठीक हो जाती है. इसके लिए फूलों और कलियों की सब्ज़ी खाना लाभकारी होता है.
कचनार में कैंसर रोधी गुण हैं. सीज़न में इसके इस्तेमाल से कैंसर होने का खतरा नहीं रहता. इस रोग में इसकी छाल का काढ़ा पीना लाभकारी होता है.
कचनार की पत्तियों का जूस या काढ़ा कांच निकलने के रोग में लाभ करता है. इससे रेक्टम के तंतु मज़बूत हो जाते हैं.
मुंह के छालों के लिए भी कचनार की पत्तियों का काढ़ा अच्छी दवा है. इससे गारगल करने से मुंह के रोगों में लाभ मिलता है दांत और मसूढ़े मज़बूत होते हैं.
अजीब बात है कि कचनार के बीज ज़हरीले होते हैं. कचनार की फलियों और बीजों को नहीं खाना चाहिए,  इनके खाने से गंभीर स्वास्थय समस्या उत्पन्न हो सकती है. 

गुरुवार, 23 अगस्त 2018

कुटकी

कुटकी एक प्रकार की जड़ है जो काले -भूरे रंग की कुछ ऐंठी हुई सी होती है. इसका पौधा पहाड़ो पर उगता है. इसे ऊंचाई और ठंडक दोनो चाहिए होते हैं. इस पौधे के जड़ ही दवा के रूप में प्रयोग की जाती है. इसका स्वाद कडुवा होता है और इसके कड़वे या कटु स्वाद के कारण ही इसका नाम कटुकी या कुटकी पड़ा.

कुटकी बरसों से लिवर के इलाज में प्रयोग की जा रही है. इसे लिवर टॉनिक माना जाता है. ये लिवर के कार्यों को दुरुस्त रखती है. कुटकी का प्रयोग अधिकतर शहद के साथ मिलकर  किया जाता है. शहद केवल इसके स्वाद को ही नहीं बल्कि इसके दुष्प्रभाव को भी काम कर देता है.
पीलिया रोग में कुटकी का एक ग्राम से तीन ग्राम की मात्रा में चूर्ण शहद के साथ प्रयोग करने से लाभ मिलता है. ये लिवर के एंजाइम को दुरुस्त रखती है और लिवर सिर्रोसिस में बहुत लाभकारी है.
कुटकी के प्रयोग से आंतों का फंक्शन तेज़ हो जाता है जिससे भूख लगने लगती है और कब्ज़ भी दूर हो जाता है.
पेट और लिवर का फंक्शन ठीक होने से शरीर पर जो प्रभाव पड़ता है उससे रोगों से लड़ने की शक्ति यानि इम्युनिटी बढ़ जाती है और शरीर चुस्त दुरुस्त रहने लगता है.
कुटकी जोड़ो के दर्द में भी लाभकारी है. इसका नियमित प्रयोग शरीर से टॉक्सिन निकाल देता है. यूरिक एसिड की समस्या से छुटकारा मिलता है. इसके लिए कुटकी को अश्वगंधा के साथ मिलकर प्रयोग किया जाता है.
कुटकी बुखार में भी लाभकारी है. बुखार में इसका पाउडर काली मिर्च के पाउडर और  शहद या शकर के साथ  खाया जाता है.
लेकिन कोई भी दवा जो फायदा करती है कुछ लोगों को नुकसान भी कर सकती है. इसलिए किसी भी जड़ी बूटी और दवा का प्रयोग करने से पहले हकीम या वैद्य की सलाह ज़रूर लेना चाहिए.

बुधवार, 8 अगस्त 2018

नीम

नीम के पेड़ को सभी जानते हैं. ये एक बड़ा वृक्ष है. इसकी पत्तियां, फल और छाल सभी कड़वी होती हैं. मार्च के महीने में नीम में सफ़ेद रंग के छोटे छोटे फूल आते हैं. 

 नीम का पतझड़ होने के बाद जब नई पत्तियां निकलती हैं के साथ ही नीम में फूल भी लगते हैं. फूल गुच्छो में लगते हैं. नीम के फल को निबोरी, निमोली, निमकौली, कहते हैं. ये फल भी कड़वे होते हैं लेकिन पकने के बाद कुछ मीठे हो जाते हैं लेकिन कड़वापन फिर भी बाकी रहता है.
नीम की नयी पत्तियां जिन्हे कोंपल भी कहते हैं मार्च में महीने में इस प्रकार सेवन की जाती हैं कि ढाई पत्तियां नीम की और ढाई काली मिर्च चबा कर सुबह बिना कुछ खाये तीन दिन तक खाई जाती है. इन तीन दिनों में खाने में बेसन की रोटी देशी घी लगाकर खायी जाती है. इसके अलावा सब चीज़ का परहेज़ रहता है. कहते हैं कि ये नुस्खा बेहतरीन ब्लड प्यूरीफायर है और इससे साल भर त्वचा के रोग नहीं होते.
इसी प्रकार ब्लड प्यूरीफिकेशन के लिए नीम की अंतर छाल यानि नीम की ऊपरी छाल को हटाकर नीचे जो गीली छाल निकलती है, का प्रयोग मार्च के महीने से जून के महीने तक किया जाता है. इस अंतर छाल का तीन से चार इंच के टुकड़े को सुबह एक गिलास पानी में भिगो दिया जाता है. शाम को खली पेट चार बजे ये पानी कुछ महीनो पीने से शरीर का सभी टॉक्सिन निकल जाता है और बहुत से रोगो के होने का खतरा टल जाता है.
यदि शरीर से  टॉक्सिन समय समय पर निकलते रहे तो भयंकर बीमारियों के होने की सम्भावना समाप्त हो जाती है. इसकी अंतर-छाल को पानी में भिगोकर पीने से रक्त ही साफ़ नहीं होता होता  त्वचा भी  कांतिमय हो जाती है और चेहरा दमकने लगता है.
नीम का तेल एंटी सेप्टिक है. बाजार में आसानी से मिल जाता है. थोड़ी मात्रा में नीम के बीज से घर पर भी निकला जा सकता है. इसके लिए नीम के बीजों को पीस लिया जाता है और थोड़े पानी में मिलकर आग पर गर्म करते हैं. तेल ऊपर आजाता है जिसे अलग कर लिया जाता है. 
नीम एक बहु-उपयोगी पौधा है. इसे नीम या आधा हकीम कहते हैं.  बरसात के दिनों में निलकने वाले फोड़े और फुंसी में नीम की बाहरी छाल पानी में घिसकर लगाने से लाभ होता है.
नीम के पके फल दिन में तीन से पांच की मात्रा में खाने से त्वचा के बीमारियां नहीं होतीं. इनका  प्रयोग लगातार 3 से 4  सप्ताह करना चाहिए.

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