कुटकी एक प्रकार की जड़ है जो काले -भूरे रंग की कुछ ऐंठी हुई सी होती है. इसका पौधा पहाड़ो पर उगता है. इसे ऊंचाई और ठंडक दोनो चाहिए होते हैं. इस पौधे के जड़ ही दवा के रूप में प्रयोग की जाती है. इसका स्वाद कडुवा होता है और इसके कड़वे या कटु स्वाद के कारण ही इसका नाम कटुकी या कुटकी पड़ा.
कुटकी बरसों से लिवर के इलाज में प्रयोग की जा रही है. इसे लिवर टॉनिक माना जाता है. ये लिवर के कार्यों को दुरुस्त रखती है. कुटकी का प्रयोग अधिकतर शहद के साथ मिलकर किया जाता है. शहद केवल इसके स्वाद को ही नहीं बल्कि इसके दुष्प्रभाव को भी काम कर देता है.पीलिया रोग में कुटकी का एक ग्राम से तीन ग्राम की मात्रा में चूर्ण शहद के साथ प्रयोग करने से लाभ मिलता है. ये लिवर के एंजाइम को दुरुस्त रखती है और लिवर सिर्रोसिस में बहुत लाभकारी है.
कुटकी के प्रयोग से आंतों का फंक्शन तेज़ हो जाता है जिससे भूख लगने लगती है और कब्ज़ भी दूर हो जाता है.
पेट और लिवर का फंक्शन ठीक होने से शरीर पर जो प्रभाव पड़ता है उससे रोगों से लड़ने की शक्ति यानि इम्युनिटी बढ़ जाती है और शरीर चुस्त दुरुस्त रहने लगता है.
कुटकी जोड़ो के दर्द में भी लाभकारी है. इसका नियमित प्रयोग शरीर से टॉक्सिन निकाल देता है. यूरिक एसिड की समस्या से छुटकारा मिलता है. इसके लिए कुटकी को अश्वगंधा के साथ मिलकर प्रयोग किया जाता है.
कुटकी बुखार में भी लाभकारी है. बुखार में इसका पाउडर काली मिर्च के पाउडर और शहद या शकर के साथ खाया जाता है.
लेकिन कोई भी दवा जो फायदा करती है कुछ लोगों को नुकसान भी कर सकती है. इसलिए किसी भी जड़ी बूटी और दवा का प्रयोग करने से पहले हकीम या वैद्य की सलाह ज़रूर लेना चाहिए.
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