रविवार, 2 सितंबर 2018

कचनार Bauhinia Variegata

कचनार एक मध्यम आकार का वृक्ष है. फरवरी से मार्च के मौसम में ये खूबसूरत फूलों से भर जाता है. इसकी पत्तियां आगे से अंदर की ओर धंसी हुई होती हैं. इनका आकर ऐसा लगता है जैसे ऊँट के पैर का रेत में पड़ा निशान हो. इसलिए इसे अंग्रेजी में कैमल्स फुट ट्री भी कहते हैं.  ये एक प्रकार का ऑर्किड है. इसकी कई प्रजातियां हैं. इसलिए कचनार को ऑर्किड ट्री भी कहते हैं. 

ये अपने पत्तों और फूलों से आसानी से पहचाना जा सकता है. इसके फूल आम तौर से हलके बैगनी या पर्पल कलर के होते हैं. लेकिन सफ़ेद और गुलाबी फूलों वाला कचनार भी पाया जाता है. इसके फूल की एक पंखुड़ी सबसे अलग होती है जिस पर क्राउन का निशान बना होता है. इस प्रकार के फूलों को क्राउन पंखुड़ी वाले फूल कहते हैं. गुलमोहर के फूल की पंखुड़ी में भी क्राउन बना होता है. तालाबों और नदियों में पायी जाने वाली जलकुम्भी या वाटर ह्यसिन्थ के फूल की पंखुड़ी में भी क्राउन होता है. 
कचनार की कलियों की सब्ज़ी बनायी जाती है. इनका स्वाद कुछ कड़वापन लिए हुए होता है. कचनार पेट के रोगों की अच्छी दवा है. इसके लिए इसकी छाल का चूर्ण सुखी अदरक जिसे सोंठ भी कहते हैं के चूर्ण के साथ मिलकर सुबह शाम तीन ग्राम की मात्रा में प्रयोग करने से लाभ मिलता है. कचनार डायरिया में लाभ करता है. इसकी कलियों का अचार भी बनाया जाता है जो आँतों को शक्ति देता है और भूख बढ़ाता है.
कचनार ब्लड प्रेशर को घटाता है. जिन लोगों को थायराइड का रोग हो उन्हें कचनार के फूलों का काढ़ा पीने से लाभ मिलता है. आयुर्वेदिक दवाओं की कम्पनी कचनार काश्य बनाती है जो एक प्रकार का सीरप होता है और इसे घेघा रोग के लिए प्रयोग किया जाता है. 
इसके फूल सूखे भी प्रयोग किये जा सकते हैं. यदि फूल न मिलें तो कचनार की छाल का काढ़ा भी पिया जा सकता है. इसके अलावा कचनार शरीर की गांठों और बढ़ी हुई गिल्टियों के लिए भी प्रयोग किया जाता है. यूट्रस की रसौलियां, पीठ में होने वाला लाइपोमा भी इससे ठीक हो जाता है. 

कचनार बवासीर के लिए उपयोगी है. इसके प्रोयोग से बवासीर ठीक हो जाती है. इसके लिए फूलों और कलियों की सब्ज़ी खाना लाभकारी होता है.
कचनार में कैंसर रोधी गुण हैं. सीज़न में इसके इस्तेमाल से कैंसर होने का खतरा नहीं रहता. इस रोग में इसकी छाल का काढ़ा पीना लाभकारी होता है.
कचनार की पत्तियों का जूस या काढ़ा कांच निकलने के रोग में लाभ करता है. इससे रेक्टम के तंतु मज़बूत हो जाते हैं.
मुंह के छालों के लिए भी कचनार की पत्तियों का काढ़ा अच्छी दवा है. इससे गारगल करने से मुंह के रोगों में लाभ मिलता है दांत और मसूढ़े मज़बूत होते हैं.
अजीब बात है कि कचनार के बीज ज़हरीले होते हैं. कचनार की फलियों और बीजों को नहीं खाना चाहिए,  इनके खाने से गंभीर स्वास्थय समस्या उत्पन्न हो सकती है. 

गुरुवार, 23 अगस्त 2018

कुटकी

कुटकी एक प्रकार की जड़ है जो काले -भूरे रंग की कुछ ऐंठी हुई सी होती है. इसका पौधा पहाड़ो पर उगता है. इसे ऊंचाई और ठंडक दोनो चाहिए होते हैं. इस पौधे के जड़ ही दवा के रूप में प्रयोग की जाती है. इसका स्वाद कडुवा होता है और इसके कड़वे या कटु स्वाद के कारण ही इसका नाम कटुकी या कुटकी पड़ा.

कुटकी बरसों से लिवर के इलाज में प्रयोग की जा रही है. इसे लिवर टॉनिक माना जाता है. ये लिवर के कार्यों को दुरुस्त रखती है. कुटकी का प्रयोग अधिकतर शहद के साथ मिलकर  किया जाता है. शहद केवल इसके स्वाद को ही नहीं बल्कि इसके दुष्प्रभाव को भी काम कर देता है.
पीलिया रोग में कुटकी का एक ग्राम से तीन ग्राम की मात्रा में चूर्ण शहद के साथ प्रयोग करने से लाभ मिलता है. ये लिवर के एंजाइम को दुरुस्त रखती है और लिवर सिर्रोसिस में बहुत लाभकारी है.
कुटकी के प्रयोग से आंतों का फंक्शन तेज़ हो जाता है जिससे भूख लगने लगती है और कब्ज़ भी दूर हो जाता है.
पेट और लिवर का फंक्शन ठीक होने से शरीर पर जो प्रभाव पड़ता है उससे रोगों से लड़ने की शक्ति यानि इम्युनिटी बढ़ जाती है और शरीर चुस्त दुरुस्त रहने लगता है.
कुटकी जोड़ो के दर्द में भी लाभकारी है. इसका नियमित प्रयोग शरीर से टॉक्सिन निकाल देता है. यूरिक एसिड की समस्या से छुटकारा मिलता है. इसके लिए कुटकी को अश्वगंधा के साथ मिलकर प्रयोग किया जाता है.
कुटकी बुखार में भी लाभकारी है. बुखार में इसका पाउडर काली मिर्च के पाउडर और  शहद या शकर के साथ  खाया जाता है.
लेकिन कोई भी दवा जो फायदा करती है कुछ लोगों को नुकसान भी कर सकती है. इसलिए किसी भी जड़ी बूटी और दवा का प्रयोग करने से पहले हकीम या वैद्य की सलाह ज़रूर लेना चाहिए.

बुधवार, 8 अगस्त 2018

नीम

नीम के पेड़ को सभी जानते हैं. ये एक बड़ा वृक्ष है. इसकी पत्तियां, फल और छाल सभी कड़वी होती हैं. मार्च के महीने में नीम में सफ़ेद रंग के छोटे छोटे फूल आते हैं. 

 नीम का पतझड़ होने के बाद जब नई पत्तियां निकलती हैं के साथ ही नीम में फूल भी लगते हैं. फूल गुच्छो में लगते हैं. नीम के फल को निबोरी, निमोली, निमकौली, कहते हैं. ये फल भी कड़वे होते हैं लेकिन पकने के बाद कुछ मीठे हो जाते हैं लेकिन कड़वापन फिर भी बाकी रहता है.
नीम की नयी पत्तियां जिन्हे कोंपल भी कहते हैं मार्च में महीने में इस प्रकार सेवन की जाती हैं कि ढाई पत्तियां नीम की और ढाई काली मिर्च चबा कर सुबह बिना कुछ खाये तीन दिन तक खाई जाती है. इन तीन दिनों में खाने में बेसन की रोटी देशी घी लगाकर खायी जाती है. इसके अलावा सब चीज़ का परहेज़ रहता है. कहते हैं कि ये नुस्खा बेहतरीन ब्लड प्यूरीफायर है और इससे साल भर त्वचा के रोग नहीं होते.
इसी प्रकार ब्लड प्यूरीफिकेशन के लिए नीम की अंतर छाल यानि नीम की ऊपरी छाल को हटाकर नीचे जो गीली छाल निकलती है, का प्रयोग मार्च के महीने से जून के महीने तक किया जाता है. इस अंतर छाल का तीन से चार इंच के टुकड़े को सुबह एक गिलास पानी में भिगो दिया जाता है. शाम को खली पेट चार बजे ये पानी कुछ महीनो पीने से शरीर का सभी टॉक्सिन निकल जाता है और बहुत से रोगो के होने का खतरा टल जाता है.
यदि शरीर से  टॉक्सिन समय समय पर निकलते रहे तो भयंकर बीमारियों के होने की सम्भावना समाप्त हो जाती है. इसकी अंतर-छाल को पानी में भिगोकर पीने से रक्त ही साफ़ नहीं होता होता  त्वचा भी  कांतिमय हो जाती है और चेहरा दमकने लगता है.
नीम का तेल एंटी सेप्टिक है. बाजार में आसानी से मिल जाता है. थोड़ी मात्रा में नीम के बीज से घर पर भी निकला जा सकता है. इसके लिए नीम के बीजों को पीस लिया जाता है और थोड़े पानी में मिलकर आग पर गर्म करते हैं. तेल ऊपर आजाता है जिसे अलग कर लिया जाता है. 
नीम एक बहु-उपयोगी पौधा है. इसे नीम या आधा हकीम कहते हैं.  बरसात के दिनों में निलकने वाले फोड़े और फुंसी में नीम की बाहरी छाल पानी में घिसकर लगाने से लाभ होता है.
नीम के पके फल दिन में तीन से पांच की मात्रा में खाने से त्वचा के बीमारियां नहीं होतीं. इनका  प्रयोग लगातार 3 से 4  सप्ताह करना चाहिए.

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