शनिवार, 18 जुलाई 2020

देसी दवाओं की नाकामी

जिन जड़ी बूटियों के चमत्कार के बारे में हम पढ़ते, सुनते हैं उनका वैसा फ़ायदा नहीं मिलता. क्या देसी जड़ी बूटियों में अब वह गुण नहीं रह गए हैं जो चमत्कार करते थे. या वह हकीम/वैद्य नहीं रहे जिन्होंने घास फूस से बड़े बड़े मर्ज़ ठीक किये थे.
देसी दवा क्यों फ़ायदा नहीं करती ये प्रश्न अक्सर पूछा जाता है और इसका संतोषजनक उत्तर न मिलने से जड़ी बूटियों और देसी चिकत्सा विज्ञान से लोगों का भरोसा उठ जाता है.
प्रत्येक चिकत्सा विज्ञान की तकनीक और उसके विशेष रहस्य होते हैं. दवाओं का पढ़ना, समझना और जानना एक अलग कार्य है उनके प्रयोग की तकनीक एक अलग विषय है.
जड़ी बूटी का सही प्रयोग और प्रयोग का सही समय समझना बहुत ज़रूरी है. एक व्यक्ति जो रीढ़ की हड्डी के दर्द और जोड़ों की कड़कड़ाहट (जोड़ों से आवाज़ निकलना) से परेशान था शहर के मशहूर हकीम के पास गया. अक्टूबर का महीना था, सर्दी की शुरुआत हो चुकी थी. हकीम ने कहा तुम होली के बाद आना तब तुम्हारा इलाज करेंगे. ये हकीम ऐसे थे जो फलों और रोज़ इस्तेमाल में आने वाली चीज़ों जैसे धनिया, पुदीना, इमली आदि से इलाज करते थे. दवा से इलाज उनके पास नाम मात्र का था. मरीज़ों को इतना लाभ होता था की उनकी दुकान पर सुबह 4 बजे से लाइन लग जाती थी. सस्ता ज़माना था, उनकी फीस मात्र 5 रूपये थी और वह भी गरीबों से नहीं लेते थे. पहले के हकीम वास्तव में इंसानियत की सच्ची सेवा करते थे.
होली की बाद जब वह मरीज़ हकीम  के पास गया और हाल बताया  तो हकीम साहब ने उसे एक फल पर काली मिर्च का पाउडर, थोड़ी सी शकर, थोड़ा सा नमक छिड़ककर खाने को बता दिया. इस दवा ने चमत्कारी लाभ किया. वही मरीज़ पहले इंजेक्शन भी लगवा चुका था और बहुत सी दवाएं खा चुका था.
अब सवाल पैदा होता है क्या वह फल जो हकीम ने बताया अक्टूबर के महीने में नहीं मिलता था. फल ऐसा था जो लगभग साल भर बाजार में मिलता था. अक्टूबर में भी इस्तेमाल किया जा सकता था. लोग उसे खाते थे. उसके दवाई गुण लोगों और हकीमों को भी पता नहीं थे. लेकिन दवा के  सही समय के प्रयोग ने चमत्कार किया था.
यही हकीम साहब जिस फल वाले से फल खरीदते थे एक दिन वह अपनी दुकान जल्दी बढ़ा रहा था. उन्होंने पूछा आज दूकान जल्दी क्यों बंद कर रहे हो. फल वाले ने कहा सर में दर्द है, बुखार सा लग रहा है. जाकर डाक्टर को दिखाऊंगा. हकीम साहब बोले दवा तुम्हारे पास है तो  डाक्टर को दिखने की क्या ज़रुरत है. अभी दवा इस्तेमाल करो और ठीक हो जाओ.
हकीम साहब ने एक फल का रस निचोड़कर उसमें काली मिर्च का पाउडर डालकर पीने को बता दिया. हकीम साहब अपने घर चले गये. मरीज़ ने फल का जूस पिया और उसका दर्द और बुखार ठीक हो गया.
लगभग दो हफ्ते बाद हकीम साहब फिर उसकी दुकान पर पहुंचे. वह दुकान पर बैठा बुरी तरह खांस रहा था.
उनहोंने पूछा क्या हाल है. दुकानदार बोला हकीम जी उस दिन आपके बताये फल के जूस से बहुत फ़ायदा हुआ. दर्द और बुखार ठीक हो गया. दो तीन दिन पहले फिर वैसे ही सर में दर्द हुआ और बुखार सा लगने लगा. मैंने वही आपका बताया जूस इस्तेमाल किया. उससे बुखार और बढ़ गया. सीना जकड गया. डाक्टर को दिखाया. बुखार तो चला गया लेकिन खांसी बहुत आ रही है.
हकीम साहब ने कहा - एक ही दवा क्या हर मौसम में फ़ायदा करेगी?
जिस तरह दवा की प्रयोग में समय या मौसम का संयोग ज़रूरी है उसी तरह दवा की हार्वेस्टिंग, उसे तोड़ने, उखाड़ने, सुखाने में भी उचित समय का ध्यान रखा जाना चाहिए.
कुछ दवाएं जैसे बबूल की फली कच्ची प्रयोग की जाती हैं. दवा के लिए ऐसी बबूल के फली चाहिए जिसमें बीज न पड़ा हो, यदि पड़ गया हो तो कच्ची अवस्था में हो. पक्की फली जिसमें बीज पक चुका हो काम की नहीं है.
इसके उलट सिरिस की फली जब उसका बीज पक जाए तब काम की होती है. लेकिन सिरिस के फली पकते ही चटक कर खुल जाती है और बीज बिखर जाते हैं. अब दो तरीके हैं. पहला सिरिस के पेड़ों के नीचे से बीज बीने जाएं. या फिर फली जब पकने के करीब हो लेकिन पूरी पकी न हो तोड़ ली जाए और धूप में सुखाकर बीज इकठ्ठा किये जाएं.
इन सबके लिए मौसम की जानकारी ज़रूरी है. बबूल की कच्ची फली इकठ्ठा करने के लिए पता लगाएं बबूल के पेड़ कहां हैं. कच्ची फलियां अप्रैल से मई तक मिल सकती हैं. ये भी देखा जाए वह पेड़ देसी बबूल का है, या विदेशी बबूल है जिसकी फली तलवार की तरह मुड़ी हुई होती है. दवा में जिस  बबूल की ज़रुरत है उसकी फली की शक्ल आप इसी ब्लॉग   बोया पेड़ बबूल का   में देख सकते हैं.
सिरिस के पक्के बीज फरवरी से मार्च तक मिल सकते हैं. अप्रैल में भी ये बीज इकठ्ठा किये जा सकते हैं.
इसी तरह पेड़ो की जड़ों को उखाड़ने में भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि जड़ें कब ली जाएं. सेमर के दो वर्ष के पेड़ की जड़ दवा में प्रयोग की जाती है. एक वर्ष के पेड़ की जड़ में वह गुण नहीं होता जिसकी ज़रुरत है. अधिक पुरानी जड़ों के गुण भी छीण हो जाते हैं. मुलेठी के भी दो वर्ष के पौधों के जड़ उपयोगी है.
फूल, पत्ती और छाल के पेड़ों से लेने का समय और पेड़ की आयु की जानकारी ज़रूरी है.
अब आता है दवाओं में मिलावट और गलत पहचान का सवाल. दवाओं में जान बूझ कर मिलावट की जाती है. कुछ दवाओं में खर पतवार मिल जाती है. कुछ दवाएं गलत पहचान के कारण प्रयोग करने से फ़ायदा नहीं करतीं. गलत पहचान कभी कभी गंभीर नुकसान कर सकती है.
एक मोहतरमा ने अपने रिश्तेदार को जो पेचिश के मरीज़ थे, चुनिया गोंद दही में मिलकर खाने को कहा. उनहोंने चुनिया गोंद पंसारी की दुकान से मांगकर दही के साथ खाया. पेचिश बहुत बिगड़ गयी. अस्पताल में भर्ती होना पड़ा और मसूढ़ों के इंफेक्शन से दांत भी गिर गये.
ऐसे बहुत से कारण हैं जिसकी वजह से दवाएं फायदा नहीं करतीं. और लोग देसी चिकित्सा पद्धति को बदनाम करते हैं.
इसके आलावा दवाओं के बनाने में भी कुछ रहस्य हैं. किसी महोदय ने एक हकीम से नुस्खा लिखवा लिया कि दवा वह खुद बना लेंगे. नुस्खा कुछ इस प्रकार था:
(1) बादयान नीम-ब्रशत  (2)सातर फ़ारसी,  (3) शाजन्ज हिंदी, (4) मस्तगी रूमी, सबका सफूफ बना लें.
सुबह शाम 3 माशा खाएं.
मरीज़ ने बाजार से दवा मंगवाई. बादयान नीम-ब्रशत के नाम पर सौंफ मिली. बादयान हकीम लोग सौंफ को लिखते हैं. अब रह गया नीम-ब्रशत, ये दवा का एक प्रकार का ट्रीटमेंट था जो मरीज़ को पता नहीं था. सातर फ़ारसी एक प्रकार का पहाड़ी पोदीना था, शाजन्ज हिंदी वही तेजपात था जिसे खाने की डिश में प्रयोग किया जाता है. मस्तगी रूमी एक प्रकार का सुगन्धित गोंद था.
मरीज़ ने बिना नीम-ब्रशत किये सौंफ और बाकी तीन दवाएं कूटना शुरू कर दीं. मस्तगी रूमी ने चिपककर सारी दवाओं का एक गोला सा बना दिया. अब ये चिपचिपा पदार्थ न तो कूट सकता था न पीसा जा सकता था. उसे दवा बनाने की  तरकीब मालूम नहीं थी. इसलिए सब दवाएं आखिर में फेंकना पड़ीं.
दवाओं के नाम में भी भ्रम हो जाता है. तालमखाना और फूल मखाना के नाम से सभी वाकिफ हैं. ये गोल गोल भुने हुए बीज जिन्हे फॉक्स नट कहते हैं, मेवे के रूप में घरों में इस्तेमाल किये जाते हैं. दवाओं में भी पड़ते हैं. लेकिन इसी  कॉमन नाम तालमखाना से एक दूसरी दवा भी है जो एक छोटे आकार का बीज है. ये बीज एस्टरकेंथा लांगीफोलिया एक अलग चीज़ है. जिसे दवाओं के बारे में ज्ञान नहीं है वह तालमखाना पढ़कर जब दवा खरीदेगा तो दुकानदार का नौकर उसे वही कॉमन मखाना दे देगा.
कुछ लोग फूल मखाना को कमल के भुने हुए बीज समझते हैं. लेकिन कमल का बीज एक अलग चीज़ है. ये बीज भी दवाओं में इस्तेमाल होते हैं. तब इसे कमलगट्टा कहते हैं. कमल के बीजों का आवरण बहुत सख्त होता है.
कुछ दवाएं महंगी होने की वजह से उनका बदल प्रयोग किया जा रहा है. गुलबनफ्शा, जिसे गुलबनक्शा भी कहते हैं, एक महंगा फूल है. ये ठन्डे और पहाड़ी स्थानों का पौधा है. गुलबनफ्शा के स्थान पर बर्ग बनफ्शा, या बनफ्शा की सूखी पत्तियां इस्तेमाल की जा रही हैं.  इन पत्तियों में भी घास फूस की मिलावट होती है. पुरानी होने की वजह से भी इनका लाभ नहीं मिलता. देसी चिकित्सा पद्धति बदनाम होती है.
हकीमों और वैद्यो ने इसका भी तोड़ निकाला, उन्होंने इसकी जगह जोशांदे में हंसराज इस्तेमाल करना शुरू किया. हंसराज सस्ती दवा है. लेकिन ये बूटी भी मिलावट से बची नहीं है. दूसरी बात वही पत्तियों का पुराना होना है जिससे असर कम हो जाता है.



गुरुवार, 12 मार्च 2020

पेड़ पौधों का दवा में इस्तेमाल

 पेड़ पौधे दवा में इस्तेमाल करने से पहले उनके बारे में जानना बहुत ज़रूरी है. आम तौर से पेड़ पौधों की  पांच चीज़ें  दवा के रूप में इस्तेमाल होती  हैं.  ये भाग  हैं - पत्तियां, फूल/कलियां , फल/बीज, छाल और जड़. इन्हें ही पंचांग कहा जाता है.
कुछ जड़ी बूटियां फूल, पत्ते और शाखों के साथ पूरी इस्तेमाल की जाती हैं. जड़ हटा कर पूरा पौधा दवा के काम में लाया जाता है. जड़ी बूटी के उखाड़ने, पेड़ों से दवा के अवयव इकठ्ठा करने का एक उपयुक्त समय होता है. इस उपयुक्त समय में लिया गया पौधा या जड़ी बूटी अच्छी तरह से काम करता है.
कुछ जड़ी बूटियां पूरी तरह से परिपक्व हो जाने पर या सूखने पर उखाड़ी जाती हैं, कुछ फूल निकलने पर जब उनमें बीज न बना हो. कुछ फल और बीज आने पर उखड़ी जाती हैं. जिन पौधों की जड़ काम में आती है वे लगभग एक साल पुराने हों. कुछ पौधों की जेड दो साल के पौधे से ली जाती हैं.
फूल और पत्तियां एक साल तक ठीक फायदा देती हैं. मजबूरी में इन्हे दो साल तक इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन ये ख़राब न हुई हों, इनमे. फफूंदी न लगी हो और कीड़ों ने न खाया हो. बीज भी एक वर्ष से दो वर्ष तक ठीक रहते हैं उसके बाद उनकी शक्ति कमज़ोर पड़ जाती है.
पेड़ों की छाल ज़्यादा दिनों तक रखने से काम की नहीं रहती.
जड़ें बहुत दिनों तक ठीक रहती है. लेकिन ये देख लेना चाहिए की कीड़ा लगकर ये ख़राब न हो गयी हों.
जड़ी बूटियों के इस्तेमाल में एक और समस्या आती है. इन्हें हरे/कच्चे रूप में इस्तेमाल किया जाए या सूखे रूप में. कुछ जड़ी बूटियां हरी इस्तेमाल की जाती हैं. जैसे लिवर की सूजन के लिए कासनी, कसौंदी और मकोय, हरी अवस्था में इनके पत्ते इस्तेमाल किये जाते हैं. सांठ भी हरे रूप में इस्तेमाल होती हैं. गुलाब के फूल सूखी अवस्था में इस्तेमाल किये जाते हैं. लेकिन गुलकंद बनाते समय गुलाब के ताज़े फूल ही प्रयोग किये जाते हैं. सूखे फूलों का गुलकंद उतना फायदा नहीं करता.
इस्तेमाल से पहले कुछ जड़ी बूटियों को शुद्ध किया जाता है जिससे उनके विषैले प्रभाव से बचा जाए. मुलेठी जो एक जड़ है, को इस्तेमाल करने से पहले उसकी छाल को उतार दिया जाता है और अंदर की लकड़ी प्रयोग की जाती है. सना की पत्तियों में से सना की फलियां, उनके तिनके अलग कर दिए जाते हैं क्योंकि ये पेट में दर्द पैदा करते हैं. कौंच के बीजों के इस्तेमाल से पहले दूध में उबाल कर उनका विषैलापन दूर किया जाता है और उनका छिलका भी उतार दिया जाता है.


कुछ दवाएं भूनकर प्रयोग को जाती हैं. कुछ पानी में भिगोकर प्रयोग की जाती हैं.
ज़हरीली दवाओं का प्रयोग सावधानी से किया जाता है. पहले इनके ज़हरीले प्रभाव को कम करने के उपाय किये जाते हैं जिससे केवल दवा की शक्ति का ही उपयोग किया जाए. ऐसा न हो कि दवा बजाय फायदे के नुकसान करे. भिलावां एक ऐसी दवा है जिसके इस्तेमाल से, या शरीर पर उसका रस लग जाने से सूजन आ जाती है. ऐसी दवा का प्रयोग करने से पहले भिलावां के फल से उसका चिपचिपा, काला पदार्थ जिसे भिलावां का शहद भी कहते हैं निकाल दिया जाता है. बाद में इस दवा को अन्य दवाओं के साथ मिलाकर जिससे इसके ख़राब गुण समाप्त हो जाएं, इस्तेमाल किया जाता है.
मुलेठी का ऊपर का छिलका उतार कर ही प्रयोग किया जाता है. कहा जाता है की ऊपर की छाल में कुछ ऐसे तत्व होते हैं जो नुकसान कर सकते हैं. मुलेठी को जोशांदे  में डालने से पहले उसे कुचल लिया जाता है जिससे उसका असर जोशांदे में ठीक प्रकार से आ जाए. 
इसी प्रकार गुर्च को भी प्रयोग से पहले कुचल लिया जाता है जिससे अगर काढ़ा बना रहे हैं तो उसका पूरा असर मिल सके. 





बुधवार, 11 मार्च 2020

लभेड़ा

लभेड़ा एक आम माध्यम ऊंचाई का वृक्ष है. इसकी आम तौर से दो किस्में पायी जाती हैं. एक पेड़ जिसके फल पूरी तरह गोलाई लिए हुए नहीं होते, ये कुछ चपटे से, आगे से नुकीले होते हैं. इसके फल बरसात के मौसम में पक जाते हैं. इनका रंग पकने पर प्याज़ी हो जाता है. खाने में ये मीठे और चिपचिपे होते हैं. इसके अंदर चिपचिपा गूदा भरा होता है. इसे ही लभेड़ा कहते हैं.


इसकी दूसरी किस्म वह है जिसके फल बड़े और गोलाई लिए होते हैं. इसे लाशोरा, लहसोड़ा, लसोड़ा, कहते हैं. इसके फल गर्मी, बरसात के मौसम में कच्चे, हरे सब्ज़ी बाजार में भी मिल जाते हैं. इन्हें सिरके में डाला जाता है और अचार के रूप में प्रयोग किया जाता है.


लभेड़ा और लहसोड़ा दोनों के गुण सामान हैं. लेकिन हकीमी दवाओं में लभेड़ा बहुतायत से प्रयोग होता है. नज़ले जुकाम के जोशांदे का ये मुख्य अव्यव है. खांसी के लिए विशेष दवा है. हकीमी दवाओं में सूखा लभेड़ा प्रयोग किया जाता है - इसे सपिस्तां कहा जाता है. सूखे लभेड़े का प्रयोग जोशांदे के आलावा, खांसी के नुस्खों, एसिडिटी कम करने की दवाओं और दवाओं की खुश्की  कम करने में भी होता है. जैसा की ऊपर लिखा जा चूका है इसकी एक बड़ी वैराइटी भी होती है जिसे लहसोड़ा, लाशोरा, लसोड़ा कहते हैं. इसलिए कुछ लोग इस छोटी वैराइटी को लसोड़ियां भी कहते हैं. लेकिन इसका मुख्य नाम लभेड़ा है. 
लभेड़े के पक्के फल खाने से एसिडिटी की समस्या दूर हो जाती है. 


लभेड़े का स्वभाव गर्म-तर है. ये बलगम को निकालता है. बार बार खांसी आने और सुखी खांसी में विशेष रूप से लाभ करता है. कब्ज़ में भी फायदा करता है.
लभेड़े  के पत्ते, अमरुद के पत्ते, गेहूं के आटे की भूसी (जो आटा  छानने से निकलती है) और थोड़ा सा नमक डालकर दो कप पानी में पकाएं. जब पानी आधा रह जाए तो छानकर पीने से नज़ला ज़ुकाम में बहुत लाभ होता है.
स्पर्मेटोरिया में लभेड़े के पक्के फल रोज़ाना सुबह शाम खाने से बहुत लाभ मिलता है. इसके लिए लहसोड़े के पक्के फल लभेड़े के फलों ज़्यादा लाभकारी हैं. 

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