गुरुवार, 12 मार्च 2020

पेड़ पौधों का दवा में इस्तेमाल

 पेड़ पौधे दवा में इस्तेमाल करने से पहले उनके बारे में जानना बहुत ज़रूरी है. आम तौर से पेड़ पौधों की  पांच चीज़ें  दवा के रूप में इस्तेमाल होती  हैं.  ये भाग  हैं - पत्तियां, फूल/कलियां , फल/बीज, छाल और जड़. इन्हें ही पंचांग कहा जाता है.
कुछ जड़ी बूटियां फूल, पत्ते और शाखों के साथ पूरी इस्तेमाल की जाती हैं. जड़ हटा कर पूरा पौधा दवा के काम में लाया जाता है. जड़ी बूटी के उखाड़ने, पेड़ों से दवा के अवयव इकठ्ठा करने का एक उपयुक्त समय होता है. इस उपयुक्त समय में लिया गया पौधा या जड़ी बूटी अच्छी तरह से काम करता है.
कुछ जड़ी बूटियां पूरी तरह से परिपक्व हो जाने पर या सूखने पर उखाड़ी जाती हैं, कुछ फूल निकलने पर जब उनमें बीज न बना हो. कुछ फल और बीज आने पर उखड़ी जाती हैं. जिन पौधों की जड़ काम में आती है वे लगभग एक साल पुराने हों. कुछ पौधों की जेड दो साल के पौधे से ली जाती हैं.
फूल और पत्तियां एक साल तक ठीक फायदा देती हैं. मजबूरी में इन्हे दो साल तक इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन ये ख़राब न हुई हों, इनमे. फफूंदी न लगी हो और कीड़ों ने न खाया हो. बीज भी एक वर्ष से दो वर्ष तक ठीक रहते हैं उसके बाद उनकी शक्ति कमज़ोर पड़ जाती है.
पेड़ों की छाल ज़्यादा दिनों तक रखने से काम की नहीं रहती.
जड़ें बहुत दिनों तक ठीक रहती है. लेकिन ये देख लेना चाहिए की कीड़ा लगकर ये ख़राब न हो गयी हों.
जड़ी बूटियों के इस्तेमाल में एक और समस्या आती है. इन्हें हरे/कच्चे रूप में इस्तेमाल किया जाए या सूखे रूप में. कुछ जड़ी बूटियां हरी इस्तेमाल की जाती हैं. जैसे लिवर की सूजन के लिए कासनी, कसौंदी और मकोय, हरी अवस्था में इनके पत्ते इस्तेमाल किये जाते हैं. सांठ भी हरे रूप में इस्तेमाल होती हैं. गुलाब के फूल सूखी अवस्था में इस्तेमाल किये जाते हैं. लेकिन गुलकंद बनाते समय गुलाब के ताज़े फूल ही प्रयोग किये जाते हैं. सूखे फूलों का गुलकंद उतना फायदा नहीं करता.
इस्तेमाल से पहले कुछ जड़ी बूटियों को शुद्ध किया जाता है जिससे उनके विषैले प्रभाव से बचा जाए. मुलेठी जो एक जड़ है, को इस्तेमाल करने से पहले उसकी छाल को उतार दिया जाता है और अंदर की लकड़ी प्रयोग की जाती है. सना की पत्तियों में से सना की फलियां, उनके तिनके अलग कर दिए जाते हैं क्योंकि ये पेट में दर्द पैदा करते हैं. कौंच के बीजों के इस्तेमाल से पहले दूध में उबाल कर उनका विषैलापन दूर किया जाता है और उनका छिलका भी उतार दिया जाता है.


कुछ दवाएं भूनकर प्रयोग को जाती हैं. कुछ पानी में भिगोकर प्रयोग की जाती हैं.
ज़हरीली दवाओं का प्रयोग सावधानी से किया जाता है. पहले इनके ज़हरीले प्रभाव को कम करने के उपाय किये जाते हैं जिससे केवल दवा की शक्ति का ही उपयोग किया जाए. ऐसा न हो कि दवा बजाय फायदे के नुकसान करे. भिलावां एक ऐसी दवा है जिसके इस्तेमाल से, या शरीर पर उसका रस लग जाने से सूजन आ जाती है. ऐसी दवा का प्रयोग करने से पहले भिलावां के फल से उसका चिपचिपा, काला पदार्थ जिसे भिलावां का शहद भी कहते हैं निकाल दिया जाता है. बाद में इस दवा को अन्य दवाओं के साथ मिलाकर जिससे इसके ख़राब गुण समाप्त हो जाएं, इस्तेमाल किया जाता है.
मुलेठी का ऊपर का छिलका उतार कर ही प्रयोग किया जाता है. कहा जाता है की ऊपर की छाल में कुछ ऐसे तत्व होते हैं जो नुकसान कर सकते हैं. मुलेठी को जोशांदे  में डालने से पहले उसे कुचल लिया जाता है जिससे उसका असर जोशांदे में ठीक प्रकार से आ जाए. 
इसी प्रकार गुर्च को भी प्रयोग से पहले कुचल लिया जाता है जिससे अगर काढ़ा बना रहे हैं तो उसका पूरा असर मिल सके. 





बुधवार, 11 मार्च 2020

लभेड़ा

लभेड़ा एक आम माध्यम ऊंचाई का वृक्ष है. इसकी आम तौर से दो किस्में पायी जाती हैं. एक पेड़ जिसके फल पूरी तरह गोलाई लिए हुए नहीं होते, ये कुछ चपटे से, आगे से नुकीले होते हैं. इसके फल बरसात के मौसम में पक जाते हैं. इनका रंग पकने पर प्याज़ी हो जाता है. खाने में ये मीठे और चिपचिपे होते हैं. इसके अंदर चिपचिपा गूदा भरा होता है. इसे ही लभेड़ा कहते हैं.


इसकी दूसरी किस्म वह है जिसके फल बड़े और गोलाई लिए होते हैं. इसे लाशोरा, लहसोड़ा, लसोड़ा, कहते हैं. इसके फल गर्मी, बरसात के मौसम में कच्चे, हरे सब्ज़ी बाजार में भी मिल जाते हैं. इन्हें सिरके में डाला जाता है और अचार के रूप में प्रयोग किया जाता है.


लभेड़ा और लहसोड़ा दोनों के गुण सामान हैं. लेकिन हकीमी दवाओं में लभेड़ा बहुतायत से प्रयोग होता है. नज़ले जुकाम के जोशांदे का ये मुख्य अव्यव है. खांसी के लिए विशेष दवा है. हकीमी दवाओं में सूखा लभेड़ा प्रयोग किया जाता है - इसे सपिस्तां कहा जाता है. सूखे लभेड़े का प्रयोग जोशांदे के आलावा, खांसी के नुस्खों, एसिडिटी कम करने की दवाओं और दवाओं की खुश्की  कम करने में भी होता है. जैसा की ऊपर लिखा जा चूका है इसकी एक बड़ी वैराइटी भी होती है जिसे लहसोड़ा, लाशोरा, लसोड़ा कहते हैं. इसलिए कुछ लोग इस छोटी वैराइटी को लसोड़ियां भी कहते हैं. लेकिन इसका मुख्य नाम लभेड़ा है. 
लभेड़े के पक्के फल खाने से एसिडिटी की समस्या दूर हो जाती है. 


लभेड़े का स्वभाव गर्म-तर है. ये बलगम को निकालता है. बार बार खांसी आने और सुखी खांसी में विशेष रूप से लाभ करता है. कब्ज़ में भी फायदा करता है.
लभेड़े  के पत्ते, अमरुद के पत्ते, गेहूं के आटे की भूसी (जो आटा  छानने से निकलती है) और थोड़ा सा नमक डालकर दो कप पानी में पकाएं. जब पानी आधा रह जाए तो छानकर पीने से नज़ला ज़ुकाम में बहुत लाभ होता है.
स्पर्मेटोरिया में लभेड़े के पक्के फल रोज़ाना सुबह शाम खाने से बहुत लाभ मिलता है. इसके लिए लहसोड़े के पक्के फल लभेड़े के फलों ज़्यादा लाभकारी हैं. 

मंगलवार, 10 मार्च 2020

जड़ी बूटियां और खर-पतवार

जड़ी बूटियों के बीजों का बिखराव और उनकी देख-भाल नेचर के द्वारा की जाती है. कुछ जड़ी बूटियां खेतों में फसलों के साथ उगती हैं. उनके बीज फसलों के साथ मिक्स हो जाते हैं. इसके आलावा बहुत से बीज खेतों में गिर जाते हैं. जिन्हें नेचर अगले सीज़न तक संभाल कर रखती है. और सीज़न में ये फिर से फूट निकलते हैं.
खेतों में खर-पतवार के साथ जड़ी बूटियां भी जमती हैं. ये पौधे खेतों के आलावा भी खाली पड़े स्थानों पर उगते हैं. लेकिन खेतों में उगने से इन्हे समय पर खाद-पानी मिलता रहता है जिससे इनकी बढ़वार अच्छी होती है.
लेकिन किसानों के लिए खर-पतवार एक बड़ी समस्या है. पहले खेती के अच्छे साधन न होने से फसलों की निराई की जाती थी जिसमें अन्य पौधे निकाल दिए जाते थे. खर-पतवार नाशक दवाओं के इस्तेमाल से  किसानों को जहां ये फायदा हुआ है की फसलों से फालतू पौधों को नष्ट करना आसान हो गया है वहीँ दवाई के काम के पौधे / जड़ी बूटियां ख़त्म हो गयी हैं. इससे नेचर में पौधों की विविधता समाप्त हो गयी है. इको सिस्टम बिगड़ रहा है.
खेतों के आलावा खाली पड़े स्थानों और गांव के किनारे जहां थोड़ा बहुत जंगल था, वहां के पेड़ पौधे भी इंसानी दखल से समाप्त हो चुके हैं. कमर्शियलाइजेशन ने किसी भी खाली पड़ी ज़मीन और जंगल को नहीं छोड़ा है. इससे जड़ी बूटियां, पेड़, पौधे और जीव - जंतु भी नष्ट हुए हैं.
गुज़रे ज़माने में खुदरौ (बिना बोये खुद उगने वाली) जड़ी बूटियां बिना पैसा खर्च किये मिल जाती थीं. गोरखमुंडी, बाबूना (कैमोमिला ), सरफोंका, ऊंटकटारा आदि ऐसी ही जड़ी बूटियां थीं, जिन्हें जानकार किसान हकीमो और वैद्यों को थोड़े से पैसों में बेच आते थे. इससे हकीम भी मरीज़ों से काम पैसे लेते थे और किसानो को भी कुछ आमदनी हो जाती थी. सीज़न पर ताज़ी जड़ी बूटियां मिल जाने से से वह अच्छा काम भी करती थीं.
बेकार समझे जाने वाले पौधों की सफाई, खर-पतवार नाशक स्प्रे का प्रयोग जड़ी बूटियों को ख़त्म कर रहा है. इस स्प्रे से शरीर में अनचाहे ज़हर पहुंच रहे हैं और भूमिगत जल भी ज़हरीला हो रहा है. इको सिस्टम में ये दखल- अंदाज़ी इंसान की सेहत के लिए बहुत घातक साबित हो रही है.
अब जड़ी बूटियों की खेती की जा रही है. हर्बल के नाम पर बड़ा बिज़नेस खड़ा हो गया है. हर्बल दवाएं अब सस्ती नहीं रहीं हैं. वास्तविक हर्बल इलाज फेल हो चुका है और उस पर उपभोक्तावाद का रंग चढ़ गया है. जड़ी बोटियों से इलाज करने और कराने वालों के लिए ये समस्याएं हैं:
1. जड़ी बूटियों का आसानी से नहीं मिलतीं.
2. जड़ी बूटियां महंगे दामों मिलती हैं.
3. वे असली हैं या नकली - उनकी पहचान मुश्किल है.
4. पुरानी रखी हुई बूटियां मिलती हैं जिनका असर कम होता है.
5. महंगी जड़ी बूटियां मिलावट वाली या नकली मिलती हैं.
केसर (ज़ाफ़रान) जो दवा के अलावा धार्मिक कामो और खाने में काम आती थी, महंगी होने की वजह से नकली भी बेचीं जा रही है. पानी में डालते ही रंग छोड़ती है और वैसी ही ज़ाफ़रानी सुगंध आती है. अब जिस दवा में असली ज़ाफ़रान पड़ना हो, नकली ज़ाफ़रान उसमें क्या काम करेगी. बाद में यही कहा जाएगा कि देसी दवा अब काम नहीं. करती.
बड़ी कंपनियां जड़ी बूटियों के खेती करवा रही हैं. या फिर खेती करने वालों से खरीद रही हैं. यहां भी वही मामला है. खाद पानी लगाकर ज़्यादा से ज़्यादा जड़ी बूटियां उगाई जा रही है. जो जड़ी बूटियां विशेष तापमान चाह्ती हैं उनके लिए वैसा तापमान सुनिश्चित किया जा रहा है. यही जड़ी बूटियां अब दवाओं में इस्तेमाल की जा रही हैं.
इसके साथ साथ बिज़नेस बढ़ाने के लिए बिना ज़रुरत भी लोगों को जड़ी बूटी के नाम पर क्या क्या खिलाया, पिलाया जा रहा है. घीग्वार, ग्वारपाठा घृतकुमारी, जिसे आजकल सभी लोग एलोवेरा के नाम से जानते है का दवाई के रूप में इतना प्रचार किया गया है जैसे हर रोग का पक्का इलाज केवल और केवल एलोवेरा ही है. शैम्पू, साबुन, तेल, के साथ साथ, एलोवेरा का जूस लोगों को पिलाया जा रहा है.
बिज़नेस टैक्टिस की मानसिकता ने मानव जाति का बहुत अहित किया है. हर्बल के नाम पर मुर्ख बनाने का ऐसा धंधा चला है कि अब सब्ज़ियां भी ऑर्गेनिक के नाम पर बिकने लगी हैं. एक बड़ी दवा कंपनी ने मेंथोल, क्लोरोफार्म, और अन्य दवाएं  मिलाकर एक दवा बनायी जिसे पेट दर्द की दवा के नाम  से प्रचारित किया गया. क्योंकि इसमें मेंथोल था जो पुदीने का सत कहलाता है इसलिए इसका नाम पुदीने के नाम  पर रख दिया गया. क्लोरोफार्म क्योंकि अचेतावस्था उत्पन्न करता है इसलिए पेट में जाते ही दर्द शांत हो जाता था. लेकिन यहां पर ही केमिस्ट्री का एक पेच था. क्लोरोफार्म को कभी भी ऐसी बोतल में नहीं रखा जाता जिसमें क्लोरोफार्म के ऊपर स्थान खली हो क्योंकि हवा/ ऑक्सीजन के संपर्क में आने पर ये फास्जीन नाम की ज़हरीली गैस बना लेता है. इसलिए क्लोरोफार्म हमेशा मुंह तक भरी बोतल में ही रखते हैं.
इसी फास्जीन गैस के कारण कुछ लोग इस दवा का इस्तेमाल करके दुनिया से चले गये. बाद में इसके कम्पोज़िशन से क्लोरोफार्म हटाया गया.
कंपनियां हर्बल और ऑर्गेनिक  के नाम पर जो धंधा कर रही हैं, ये न समझा जाए कि ऐसी सभी दवाएं सुरक्षित हैं.
हर्बल के नाम पर जड़ी बूटियां बेची जा रही हैं. हर्बल शैम्पू में झाग, हर्बल क्रीम में सॉफ्टनेस, पैदा करने के लिए वही फार्मूले अपनाये जा रहे हैं जो कमर्शियल शैम्पू और क्रीम बनाने वाले इस्तेमाल करते हैं. दर्द निवारक हर्बल दवाएं खतरे से खाली नहीं हैं. धोखा देने के लिए हर्बल के नाम पर पेन किलर और एस्टेरॉइड्स खिलाए जा रहे हैं. एक व्यक्ति ने कई साल तक जोड़ों के दर्द का देसी इलाज करने वाले से लेकर दवाएं खायीं. बाद में पता चला कि उसके गुर्दे फेल हो गए क्योंकि दवा में पेन किलर मिला हुआ था. 

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