हाथीसूँडी एक जड़ी बूटी है जो खली पड़े स्थानों, खेतों और सड़कों के किनारे उगती है. इसका मौसम जून जुलाई से अक्टूबर तक का है. इसमें लम्बी शाखाओं में गुच्छों में फूल लगते हैं. ये फूलों की शाखाएं हाथी की सूंड से मिलती जुलती होने के कारण इसे हाथीसूँडी बूटी कहते हैं.
इसका प्रयोग पुराने हकीम चांदी की भस्म बनाने में करते थे. हकीम चांदी की भस्म को कुश्ता नुकरा कहते हैं. इसे शक्तिवर्धक और खून की कमी दूर करने में प्रयोग किया जाता है. इस बूटी के पत्तों को कुचल कर पेस्ट बनाकर उसमें चांदी के पतले टुकड़ों को जिसे चांदी का पत्रा कहते थे लपेटकर एक मिटटी के बर्तन में रखकर उसे अच्छी तरह कपड़मट करके सुखाने के बाद आग में फूँक लेते थे. इससे चांदी के बारीक़ पत्र खील खील हो जाते थे इसे ही चांदी का कुश्ता कहते थे.
ये बूटी ताज़े घाव से खून को बंद करने और घाव को सुखाने में बहुत कारगर है. पुराने घाव भी इसके पत्तों का रस लगाने से ठीक हो जाते हैं. इसके स्वभाव गर्म-तर है. जिन महिलाओं को मासिक धर्म की समस्या हो, इसके पत्तों और जड़ का जोशांदा बनाकर पिलाने से मासिक खुलकर आता है. अधिक सेवन करने से गर्भवती महिलाओं को गर्भपात हो जाता है. इसलिए इस बूटी को गर्भवती महिलाऐं इस्तेमाल ने करें.
इसकी जड़ का जोशांदा खांसी और बुखार में भी लाभ करता है. कहते हैं कि बारी का ज्वर जिसे मलेरिया कहते हैं हाथीसूँडी के सामने टिक नहीं सकता. ये बूटी ऐसे मौसम में पैदा होती है जिस मौसम में मलेरिआ का प्रकोप होता है. पुराने जानकार इस बूटी के जोशांदे के साथ काली मिर्च और तुलसी के पत्तों की गोली बनाकर इस्तेमाल करते थे और मलेरिआ छूमन्तर हो जाता था.
आंखो की सूजन में इसके पत्तों को कुचलकर, आंख बंद करके ऊपर बांधने से आराम मिलता है. लेकिन ये ज़रूर देखलें की पत्ते साफ हों और उनमने गंदगी न हो.
हाथीसूँडी जोड़ों के दर्द में भी लाभकारी है. इसका तेल बनाकर या फिर जड़ को पीसकर दर्द वाली जगह पर लगाने से आराम मिलता है.