मंगलवार, 10 मार्च 2020

जड़ी बूटियां और खर-पतवार

जड़ी बूटियों के बीजों का बिखराव और उनकी देख-भाल नेचर के द्वारा की जाती है. कुछ जड़ी बूटियां खेतों में फसलों के साथ उगती हैं. उनके बीज फसलों के साथ मिक्स हो जाते हैं. इसके आलावा बहुत से बीज खेतों में गिर जाते हैं. जिन्हें नेचर अगले सीज़न तक संभाल कर रखती है. और सीज़न में ये फिर से फूट निकलते हैं.
खेतों में खर-पतवार के साथ जड़ी बूटियां भी जमती हैं. ये पौधे खेतों के आलावा भी खाली पड़े स्थानों पर उगते हैं. लेकिन खेतों में उगने से इन्हे समय पर खाद-पानी मिलता रहता है जिससे इनकी बढ़वार अच्छी होती है.
लेकिन किसानों के लिए खर-पतवार एक बड़ी समस्या है. पहले खेती के अच्छे साधन न होने से फसलों की निराई की जाती थी जिसमें अन्य पौधे निकाल दिए जाते थे. खर-पतवार नाशक दवाओं के इस्तेमाल से  किसानों को जहां ये फायदा हुआ है की फसलों से फालतू पौधों को नष्ट करना आसान हो गया है वहीँ दवाई के काम के पौधे / जड़ी बूटियां ख़त्म हो गयी हैं. इससे नेचर में पौधों की विविधता समाप्त हो गयी है. इको सिस्टम बिगड़ रहा है.
खेतों के आलावा खाली पड़े स्थानों और गांव के किनारे जहां थोड़ा बहुत जंगल था, वहां के पेड़ पौधे भी इंसानी दखल से समाप्त हो चुके हैं. कमर्शियलाइजेशन ने किसी भी खाली पड़ी ज़मीन और जंगल को नहीं छोड़ा है. इससे जड़ी बूटियां, पेड़, पौधे और जीव - जंतु भी नष्ट हुए हैं.
गुज़रे ज़माने में खुदरौ (बिना बोये खुद उगने वाली) जड़ी बूटियां बिना पैसा खर्च किये मिल जाती थीं. गोरखमुंडी, बाबूना (कैमोमिला ), सरफोंका, ऊंटकटारा आदि ऐसी ही जड़ी बूटियां थीं, जिन्हें जानकार किसान हकीमो और वैद्यों को थोड़े से पैसों में बेच आते थे. इससे हकीम भी मरीज़ों से काम पैसे लेते थे और किसानो को भी कुछ आमदनी हो जाती थी. सीज़न पर ताज़ी जड़ी बूटियां मिल जाने से से वह अच्छा काम भी करती थीं.
बेकार समझे जाने वाले पौधों की सफाई, खर-पतवार नाशक स्प्रे का प्रयोग जड़ी बूटियों को ख़त्म कर रहा है. इस स्प्रे से शरीर में अनचाहे ज़हर पहुंच रहे हैं और भूमिगत जल भी ज़हरीला हो रहा है. इको सिस्टम में ये दखल- अंदाज़ी इंसान की सेहत के लिए बहुत घातक साबित हो रही है.
अब जड़ी बूटियों की खेती की जा रही है. हर्बल के नाम पर बड़ा बिज़नेस खड़ा हो गया है. हर्बल दवाएं अब सस्ती नहीं रहीं हैं. वास्तविक हर्बल इलाज फेल हो चुका है और उस पर उपभोक्तावाद का रंग चढ़ गया है. जड़ी बोटियों से इलाज करने और कराने वालों के लिए ये समस्याएं हैं:
1. जड़ी बूटियों का आसानी से नहीं मिलतीं.
2. जड़ी बूटियां महंगे दामों मिलती हैं.
3. वे असली हैं या नकली - उनकी पहचान मुश्किल है.
4. पुरानी रखी हुई बूटियां मिलती हैं जिनका असर कम होता है.
5. महंगी जड़ी बूटियां मिलावट वाली या नकली मिलती हैं.
केसर (ज़ाफ़रान) जो दवा के अलावा धार्मिक कामो और खाने में काम आती थी, महंगी होने की वजह से नकली भी बेचीं जा रही है. पानी में डालते ही रंग छोड़ती है और वैसी ही ज़ाफ़रानी सुगंध आती है. अब जिस दवा में असली ज़ाफ़रान पड़ना हो, नकली ज़ाफ़रान उसमें क्या काम करेगी. बाद में यही कहा जाएगा कि देसी दवा अब काम नहीं. करती.
बड़ी कंपनियां जड़ी बूटियों के खेती करवा रही हैं. या फिर खेती करने वालों से खरीद रही हैं. यहां भी वही मामला है. खाद पानी लगाकर ज़्यादा से ज़्यादा जड़ी बूटियां उगाई जा रही है. जो जड़ी बूटियां विशेष तापमान चाह्ती हैं उनके लिए वैसा तापमान सुनिश्चित किया जा रहा है. यही जड़ी बूटियां अब दवाओं में इस्तेमाल की जा रही हैं.
इसके साथ साथ बिज़नेस बढ़ाने के लिए बिना ज़रुरत भी लोगों को जड़ी बूटी के नाम पर क्या क्या खिलाया, पिलाया जा रहा है. घीग्वार, ग्वारपाठा घृतकुमारी, जिसे आजकल सभी लोग एलोवेरा के नाम से जानते है का दवाई के रूप में इतना प्रचार किया गया है जैसे हर रोग का पक्का इलाज केवल और केवल एलोवेरा ही है. शैम्पू, साबुन, तेल, के साथ साथ, एलोवेरा का जूस लोगों को पिलाया जा रहा है.
बिज़नेस टैक्टिस की मानसिकता ने मानव जाति का बहुत अहित किया है. हर्बल के नाम पर मुर्ख बनाने का ऐसा धंधा चला है कि अब सब्ज़ियां भी ऑर्गेनिक के नाम पर बिकने लगी हैं. एक बड़ी दवा कंपनी ने मेंथोल, क्लोरोफार्म, और अन्य दवाएं  मिलाकर एक दवा बनायी जिसे पेट दर्द की दवा के नाम  से प्रचारित किया गया. क्योंकि इसमें मेंथोल था जो पुदीने का सत कहलाता है इसलिए इसका नाम पुदीने के नाम  पर रख दिया गया. क्लोरोफार्म क्योंकि अचेतावस्था उत्पन्न करता है इसलिए पेट में जाते ही दर्द शांत हो जाता था. लेकिन यहां पर ही केमिस्ट्री का एक पेच था. क्लोरोफार्म को कभी भी ऐसी बोतल में नहीं रखा जाता जिसमें क्लोरोफार्म के ऊपर स्थान खली हो क्योंकि हवा/ ऑक्सीजन के संपर्क में आने पर ये फास्जीन नाम की ज़हरीली गैस बना लेता है. इसलिए क्लोरोफार्म हमेशा मुंह तक भरी बोतल में ही रखते हैं.
इसी फास्जीन गैस के कारण कुछ लोग इस दवा का इस्तेमाल करके दुनिया से चले गये. बाद में इसके कम्पोज़िशन से क्लोरोफार्म हटाया गया.
कंपनियां हर्बल और ऑर्गेनिक  के नाम पर जो धंधा कर रही हैं, ये न समझा जाए कि ऐसी सभी दवाएं सुरक्षित हैं.
हर्बल के नाम पर जड़ी बूटियां बेची जा रही हैं. हर्बल शैम्पू में झाग, हर्बल क्रीम में सॉफ्टनेस, पैदा करने के लिए वही फार्मूले अपनाये जा रहे हैं जो कमर्शियल शैम्पू और क्रीम बनाने वाले इस्तेमाल करते हैं. दर्द निवारक हर्बल दवाएं खतरे से खाली नहीं हैं. धोखा देने के लिए हर्बल के नाम पर पेन किलर और एस्टेरॉइड्स खिलाए जा रहे हैं. एक व्यक्ति ने कई साल तक जोड़ों के दर्द का देसी इलाज करने वाले से लेकर दवाएं खायीं. बाद में पता चला कि उसके गुर्दे फेल हो गए क्योंकि दवा में पेन किलर मिला हुआ था. 

रविवार, 8 मार्च 2020

नेचर जंगल कैसे उगाती है

 पृथ्वी का खाली पड़ा भूभाग जहां पेड़ों के उगने के लिए उपयुक्त परिस्थितियां हों, जंगल में बदल जाता है. नेचर का जंगल उगाने का अपना सिद्धांत है जो कभी फेल नहीं होता. यदि किसी भी ज़मीन, मकान  को कुछ वर्षों के लिए खाली छोड़ दिया जाए तो उसमें जंगली पौधे उग आते हैं.
प्रकृति द्वारा बीजों और फलों के बिखरने और दूर दूर तक पहुंचाने का इंतेज़ाम किया जाता है. कुछ बीज बहुत हलके, और छोटे होते हैं और प्रकृति के साधनो - हवा, पानी के साथ दूर दूर तक पहुंच जाते हैं. कुकुरमुत्ते और बहुत से फंगस के बीज आंख से भी नज़र आते.
हवा से बिखरने वाले बीजों में कुछ बीज पंख वाले होते हैं. इन बीजों में चिलबिल एक अच्छा उदहारण है. इसके बीज के चारों ओर पतला आवरण होता है जो हवा में बखूबी उड़ सकता है.   कुछ बीज रेशेदार होते हैं जो हवा में दूर तक उड़ सकते हैं. जैसे आक या मदार  के बीज जिसके सफ़ेद रेशे (जिन्हें आक की रूई कहा जाता है) एक गोले का रूप ले लेते हैं जिनके बीच में बीज होता है. ये बीज हवा के साथ उड़कर दूर दूर चले जाते हैं. अब कहीं तो इन्हे गिरना ही  है. उचित परिस्थितियां मिलने पर इन बीजों से नए पौधे निकलते हैं.
कुछ बीज कांटेदार या रोएंदार होते हैं. कांटेदार बीजों में बड़ा सा बीज बघनखी का होता है. जिसके दो मुड़े हुए कांटे होते हैं. चिड़चिड़े या लटजीरे के बीज भी कांटेदार होते हैं. ऐसे बीज जानवरों के चिपक जाते हैं. और इस तरह दूर दूर तक बिखर जाते हैं.
फलियों में लगने वाले बीज फलियां चटकने पर दूर तक छिटक जाते हैं. गुलमेंहदी इसका अच्छा उदहारण है. इसकी पक्की फली में हाथ लगते ही फली चटक कर बीज छिटक जाते है.
पीपल, पाकड़, बरगद, गूलड़ और अंजीर ये ऐसे पौधे हैं जो दूध / लेटेक्स वाले हैं. दूध वाले पौधे जल्दी नहीं सूखते. इनके बीज भी छोटे होते हैं. इनके बीजों का कवर सख्त होता है. चिड़ियां इन पौधों के फलों के गूदे के साथ हज़ारों की मात्रा में बीज खा जाती हैं. फिर ये चिड़ियां कहीं भी - बिल्डिंग के ऊपर, किसी पेड़ पर, ज़मीन पर मलत्याग (बीट ) करती हैं. इस तरह ये चिड़ियां इन पेड़ों के बीजों को दूर दूर तक पहुंचा देती हैं.
पेड़ों और जानदारों (जिसमें जानवरों के साथ आदमी भी शामिल है ) का इको - सिस्टम (पारिस्थितिकी) में महत्वपूर्ण योगदान है. दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं. पेड़ न केवल चिड़ियों का बल्कि अन्य जानवरों का पेट भी भरते हैं. यदि हम पीपल, पाकड़, बरगद, गूलड़ और अंजीर जैसे पौधों की बात फिर से करें तो पता चलता है कि  बन्दर भी पेट भरने के लिए इन पौधों के फल खाते हैं. इन पौधों के बीजों के छिलके / आवरण ऐसे होते हैं जो पेट की गर्मी और पाचन एंजाइम से भी नष्ट नहीं होते. इन की बीट से निकले बीजों से नये पौधे निकलते हैं. चिड़िया के पाचन तंत्र से गुजरने के बाद इन बीजों में जमने की क्षमता बढ़ जाती है. पाचन रस से इनके बाहरी आवरण कुछ कमज़ोर पड़ जाते हैं और बीजों का जमना आसान हो जाता है. बीट से थोड़ी सी खाद भी मिल जाती है जो नन्हे पौधे को बहुत सहारा देती है.
चमगादड़ जैसे जानवर, कौए भी बीजों को दूर दूर तक पहुंचाते हैं. नीम के पक्के फल जिन्हें निमोली, निमकौली आदि कहा जाता है, कौए और चमगादड़ बड़े शौक से खाते हैं. ये एक साथ कई फल खाकर उड़ते हुए गुठलियां फ़ेंक देते हैं. इस तरह ये बीज दूर दूर पहुंच जाते हैं.
वे बीज जो बड़े और भारी हैं. उनके फलों में स्वादिष्ट गूदा होता है जैसे आम का फल. इन फलों को आदमी और जानवर दूर दूर तक ले जाते हैं और फल खाकर गुठली फ़ेंक देते हैं. कभी कभी ऐसे फल और बीज हज़ारों किलोमीटर का सफर तय कर लेते हैं.
चीटियां, गिलहरियां और दुसरे जानवर भी बीजों को इधर उधर फैलाने में मददगार साबित होते हैं. चीटियां बीजों को खाने के लिए ले जाती हैं उनमें से कुछ जो खाने से बच जाते है या रास्ते में गिर जाते हैं वह समय अनुकूल पाकर जमते हैं और पौधे बन जाते हैं.
कुदरत बीजों को संभाल कर रखती है. उसने बीजों की रक्षा करने के लिए उपाय किये हैं. सीज़नल पौधों के बीज ज़मीन में पड़े रहते हैं. बारिशें भी होती हैं, पानी भी भरता है, लेकिन ये बीज फूटते नहीं हैं. मौसम आने पर उचित तापमान और नमी मिलने पर ये बीज फूट निकलते हैं. जड़ी बूटियां भी मौसम के हिसाब से ही मिलती हैं. उनके बीज सही समय पर ही जमते हैं. यदि कुदरत इस तरह से बीजों की संभाल न करे तो बहुत से पौधे नष्ट हो जाएं.
इसके आलावा भी कुदरत ने बीजों पर हिफाज़त के लिए मज़बूत आवरण दिया है. आम की गुठली पर रेशे होते हैं. बारिश के मौसम में ये रेशे पानी से भीग जाते हैं और जल्दी सूखते नहीं हैं. पानी पाकर आम का बीज गुठली के अंदर फूलना शुरू करता है. उसमें जड़ और अंकुर निकलता है. किसी भी बीज में जड़ सबसे पहले विकसित होती है क्योंकि अंकुर को वही स्थापित करती है जिससे पौधा सीधा खड़ा हो सके और उसे पानी और पोषण मिलने लगे. आम के बीज के विकास से बाहर की गुठली फट जाती है और पौधा निकल आता है.
किसी भी पौधे का बीज, चाहे वह फल के अंदर हो जैसे आम, कटहल, या फिर फली के अंदर हो जैसे सेम, कपिकच्छु, मूंगफली, या बाली के अंदर हो जैसे जौ और गेंहू अदि, बनने के बाद उसके जमने का समय भी निश्चित होता है. कुछ बीज इतनी जल्दी जमते हैं कि सोचा भी नहीं जा सकता. ज़रूरी नहीं की बीज पककर सूख गया हो. कच्चा बीज भी जम आता है. मक्का का कच्चा भुट्टा यदि रख दिया जाए और उसे उचित नमी और तापमान मिले तो ये कच्चे दाने भी पौधे बन जाते हैं. कटहल के बीज कटहल के अंदर ही जमने लगते हैं. उनमें जड़ें निकल आती हैं. इसी तरह बढ़ल के बीज जो गीले और कच्चे होते हैं जमने लगते हैं.
आम तौर से बीज परिपक्व होने के बाद साल भर तक  उनमें जमने की क्षमता रहती है. लेकिन कुछ बीज दो साल पुराने होने पर ही जमते हैं. अमलतास इसका एक  उदहारण है.
पौधे नेचर में आने वाली तबदीली को भी भांप लेते हैं और उसके अनुसार स्वयं को ढाल लेते हैं. बांस का बीज नहीं होता. बांस में प्रकंद की सहायता से नये पौधे उगते हैं और बांस फैलता चला जाता है. बहुत से ऐसे पौधे हैं जो बिना बीज के प्रकंद की सहायता से उगते हैं. लेकिन अगर बांस के पौधों में फूल आ जाए और बीज लगने लगे तो ये इस बात का संकेत है कि आने वाले वर्षों में सूखा पड़ने वाला है. जानकार गांव वाले इस संकेत से होशियार हो जाते हैं और सूखे से बचने का इंतेज़ाम करने लगते हैं. बांस का ये बीज बहुत कड़ा होता है. कई वर्षों के सूखे में भी ज़मीन पर पड़ा रहने से नष्ट नहीं होता. जब अच्छा मौसम आता है तो इन बीजों से नये पौधे उगते हैं और बांस नेचर में बाकी रहता है.
नेचर इस प्रकार न केवल जंगल उगाती है बल्कि उनके बाकी रहने का प्रबंध भी करती है.



गुरुवार, 5 मार्च 2020

मुंडी बूटी

मुंडी बूटी एक ऐसा पौधा है जिसकी विशेष गंध होती है. इसके पत्ते रोएंदार होते हैं. ये रबी की फसल का पौधा है और अक्सर गेहूं के खेतों में भी खर-पतवार के साथ में उगता है. इसमें गोल गोल घुंडियां सी लगती हैं. ये मुंडी का फूल है जो बैगनी रंग का होता है. यही घुंडी सूखकर भूरी पड़ जाती है और इसके अंदर बीज बन जाते हैं.यही मुंडी है जिसे गोरखमुंडी भी कहते हैं. यही फल दवा में काम आते हैं.
मुंडी का स्वाद कड़वा होता है. स्वभाव से ये ठंडी और तर है. इसका प्रयोग गर्मी में किया जाता है. मुंडी मार्च- अप्रैल में तैयार हो जाती है जब इसके पौधे सूख जाते हैं. मुंडी बहुत बड़ी रक्त शोधक जड़ी बूटी है. इसका यही एक गुण सौ गुणों पर भारी है. यूनानी और आयुर्वेद में जितनी रक्त-शोधक दवाएं बनायीं जा रही हैं उनमें से शायद ही कोई ऐसी हो जिसमें मुंडी का इस्तेमाल न हुआ हो.
जिन लोगों का मिज़ाज गर्म है, गर्मी, खुश्की और खुजली से परेशान हैं उनके लिए मुंडी बहुत लाभकारी है. ये रक्त की गर्मी को शांत करती है और रक्त से गंदगी, और टॉक्सिन निकाल देती है.
हकीमों का फार्मूला है अगर ब्लड में टॉक्सिन न रहें तो बहुत सी बीमारियों से बचा जा सकता है. इसके लिए गर्मी के मौसम में मार्च आखिर से जून तक रक्त शोधक दवाओं का प्रयोग करना चाहिए. मुंडी उनमें से एक है.
आंखों के लिए मुंडी बड़े कमाल की दवा है. इसके इस्तेमाल से आंखे हमेशा निरोग बनी रहती हैं. कहा जाता है की यदि कोई सीज़न में रोज़ाना सुबह मुंडी का अर्क इस्तेमाल करता है तो वह न कभी अंधा होगा और उसे कभी मोतियाबिंद भी नहीं होगा.
गुरु गोरखनाथ, जो प्रसिद्ध योगी गुज़रे हैं, के नाम से दो जड़ी बूटियां मशहूर हैं. - एक मुंडी बूटी जिसे उनके नाम पर गोरखमुंडी कहते हैं. दूसरी जड़ी बूटी गोरखपान है.
मुंडी का प्रयोग इसके अर्क के रूप में किया जाता है. मुंडी का अर्क भपके से डिस्टिलेशन किया हुआ पानी होता है जिसको 25 - 50 मिलीलीटर की मात्रा में सुबह शाम प्रयोग किया जाता है. पिसी हुई मुंडी का चूर्ण 1 - 3 ग्राम की मात्रा में उपुक्त अनुपान, (मुनासिब बदरका) जैसे काला नमक, शहद, शकर के साथ मिलाकर पानी के साथ खाया जाता है.
विशेष प्रयोग में एक मुंडी साबित भी निगली जाती है.


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